लोकतंत्र में राजनेताओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने कर्म एवं वचन से समाज व देश का मार्गदर्शन करेंगे; परंतु समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह का बलात्कारियों के प्रति नरमी बरतने का बयान और पार्टी नेता अबु आजमी द्वारा बलात्कार पीड़िता को भी फांसी देने की मांग ने स्त्रियों के प्रति राजनेताओं की संवेदनहीनता को फिर रेखांकित किया है.
इन नेताओं ने सार्वजनिक तौर पर गैर-जिम्मेदाराना बयान पहली बार नहीं दिये हैं. बीते साल बलात्कार से संबंधित कानूनों में न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति के सुझावों के अनुरूप किये जा रहे संशोधनों के वक्त भी श्री सिंह ने कहा था कि ऐसे कानूनों की जरूरत नहीं है. उनकी ही पार्टी के प्रमुख नेता व सांसद रामगोपाल यादव ने तो यहां तक कह दिया था कि इस कानून को मानसिक रूप से बीमार लोगों ने तैयार किया है.
लोकसभा चुनाव के लिए जारी सपा के घोषणापत्र में भी इस कानून में बदलाव का वादा किया गया है. उल्लेखनीय है कि बलात्कार के मामलों में उत्तर भारत के राज्यों उत्तर प्रदेश पहले स्थान पर है, जहां सपा की सरकार है. महिला आरक्षण विधेयक का विरोध करनेवालों में भी सपा नेता आगे रहे हैं. हालांकि ऐसे गैरजिम्मेवाराना बयान जब-तब दूसरी पार्टियों के कुछ नेता भी देते रहते हैं. दूसरी ओर कश्मीर में कुनान पोशपोरा, मणिपुर में मनोरमा देवी, ऑपरेशन ग्रीन हंट में आदिवासी महिलाओं के साथ अभद्रता, सांप्रदायिक दंगों के दौरान गैंग रेप, कामकाजी महिलाओं के शोषण जैसे मामलों पर हमारे नेता अमूमन चुप्पी ओढ़े रहते हैं.
राष्ट्रीय राजनीति में महिला नेताओं की भी अच्छी-खासी संख्या है, पर इनमें से कोई भी महिलाओं के हित में संघर्ष या संवेदनशीलता के लिए नहीं जानी जाती हैं. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि विभिन्न दलों के घोषणापत्र में महिला अधिकारों या उनकी सुरक्षा के लिए कोई ठोस प्रस्ताव नहीं दिखता है. बलात्कार के खिलाफ नया कानून निर्भया कांड के बाद उभरे जनाक्रोश का नतीजा है. हालांकि किसी भी अपराध के लिए मौत की सजा के औचित्य पर बहस की गुंजाइश है, पर अपराधियों के प्रति नरमी या उनकी तरफदारी को जायज नहीं ठहराया जा सकता. सपा नेताओं के इन गैर-जिम्मेवाराना बयानों से महिला अधिकारों के आंदोलन को धक्का पहुंचा है.