।। राकेश कुमार।।
(प्रभात खबर, रांची)
मौसम चुनावी है. हर जगह इसी का जिक्र है. प्रचार वाहनों पर बज रहे पैरोडी गीत सारी दीवारें भेद कर घर के भीतर तक पहुंच रहे हैं. क्या इस तरह के प्रचार से वोट अधिक मिलता है? अगर ऐसा नहीं है तो फिर आम लोगों से वोट प्राप्त करने का आधार क्या है? मैं इसी उधेड़बुन में मोबाइल रिचार्ज कराने एक छोटी सी दुकान पर पहुंचा. बाहर छोटी सी चौपाल लगी हुई थी.
चुनाव पर गरमा-गरम बहस चल रही थी. कोई भाजपा को कोस रहा था, तो कोई कांग्रेस को. कोई केजरीवाल पर चुटकुला सुना रहा था, तो कोई ममता और अन्ना के बने-बिगड़े रिश्ते पर चुटकी ले रहा था. एक से एक ऐतिहासिक ‘तथ्य’ पेश किये जा रहे थे. मुङो लगा कि शायद यहां मेरी जिज्ञासा का समाधान हो सकता है. वैसे राष्ट्रीय स्तर की बड़ी पार्टियां अपने वोट का प्रतिशत बढ़ाने के लिए जाने-माने पेशेवरों और कंपनियों का सहयोग ले रही हैं.
लेकिन स्थानीय स्तर पर यह काम कैसे होता है, मुङो तो यह जानना था, इसलिए मैंने चर्चा में हिस्सा लेने का मन बना लिया. थोड़ी देर उनके बीच खड़ा रहा. एक-दो बार सहमति में सिर हिला दिया, तो बोलने का मौका भी मिल गया. मैंने अपना मूल प्रश्न सामने रख दिया- क्या सड़क पर चुनाव प्रचार में लगी गाड़ियों से ऊंची आवाज में चिल्ला कर प्रचार करने और नये-नये पैरोडी गीत बजाने से आम लोग प्रभावित होंगे और प्रचार करनेवाली पार्टी को वोट करेंगे? मुङो बड़ा आश्चर्य हुआ, जब सबने एक स्वर में कहा- ‘नहीं’. तब मैं तुरत पूछ बैठा कि आखिर वोट प्राप्त करने का मूल तरीका क्या होता है. अब तो लगा कि सबको एक नया मुद्दा मिल गया बोलने का.
एक ने कहा कि अरे ये सब एक छलावा है. वोट का सेटिंग और गेटिंग होता है. मुहल्ला-मुहल्ला चिल्लाना तो एक दिखावा है. सब पैसे का खेल है. क्षमता दिखाने का खेल है. तपाक से दूसरे ने कहा- अरे नहीं भई, वोट तो जाति पर मिलते हैं. तीसरे ने कहा-नहीं, वोट प्राप्त करने का कोई फामरूला नहीं होता. जैसे यह कोई नहीं बता सकता कि ऊंट किस करवट बैठेगा. खुद को विद्वान समझनेवाले एक अन्य सज्जन ने बड़ी अदा के साथ कहा- वोट मैनेजमेंट नहीं, बल्कि बूथ मैनेजमेंट वोट दिलाता है. जिस पार्टी या प्रत्याशी का बूथ प्रबंधन बेहतर होगा, वही जीतेगा.
जाति, धर्म के आधार पर बनी समितियां, संस्थाएं अपना हित साधने के लालच में वोट का सौदा करती हैं, लेकिन वे भी सुनिश्चित नहीं कर पातीं कि अंदर में वोट किसे मिल रहा है. बहस बहुत रोचक होती जा रही थी. लेकिन सभी यह बताने में विफल रहे कि बूथ प्रबंधन कैसे होता है. सभी अपने-अपने नजरिये को दूसरे से अधिक प्रभावी बताने में लगे थे. मैं चुपचाप वहां से खिसक गया. हां, इतना जरूर समझ में आया कि सड़क पर इस तरह शोर करने से वोट नहीं मिलता. लेकिन हमारे पढ़े-लिखे प्रत्याशी यह नहीं समझते, तभी तो हर मोहल्ले में ध्वनि प्रदूषण बढ़ाने में लगे हैं.