10.3 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

मतदाता की भी परीक्षा है मतदान

।। विश्वनाथ सचदेव।। (वरिष्ठ पत्रकार) कुछ पंक्तियां देखिये- ओ मतदाता, ओ मतदाता, तुम भारत के भाग्य-विधाता/ राजसूय-सम आज राष्ट्र-हित, यह चुनाव है होने जाता/ कागज का यह नन्हा टुकड़ा, भारत माता का संबल है/ वोट नहीं यह तेरे कर में, महायज्ञ-हित तुलसी-दल है.. कुछ शब्दों का हेर-फेर हो सकता है, लेकिन मुङो याद है दूसरे […]

।। विश्वनाथ सचदेव।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

कुछ पंक्तियां देखिये- ओ मतदाता, ओ मतदाता, तुम भारत के भाग्य-विधाता/ राजसूय-सम आज राष्ट्र-हित, यह चुनाव है होने जाता/ कागज का यह नन्हा टुकड़ा, भारत माता का संबल है/ वोट नहीं यह तेरे कर में, महायज्ञ-हित तुलसी-दल है.. कुछ शब्दों का हेर-फेर हो सकता है, लेकिन मुङो याद है दूसरे आम चुनाव में यह पंक्तियां मैंने पढ़ी-सुनी थीं. उन दिनों मैं स्कूल में पढ़ता था. हमारे अध्यापक ने प्रेरणा दी थी कि ऐसी ‘राष्ट्र-प्रेम’ की कविताएं प्रभात फेरी में गायी जानी चाहिए. चुनाव-प्रचार के उस दौर में हम कुछ बच्चों की यह प्रभात-फेरी राजस्थान के उस छोटे-से कस्बे सिरोही में चरचा का विषय बन गयी थी.

आज अचानक ये पंक्तियां इसलिए याद आ गयीं कि कहीं न कहीं लग रहा है, लोकतंत्र की लंबी जय-यात्र में चुनाव और मतदान का अर्थ बदलता जा रहा है. ऐसा नहीं है कि 50-60 साल पहले के चुनावों में सब कुछ ठीक-ठाक ही होता था. तब भी उम्मीदवारों के चयन में जाति, धर्म आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी; तब भी पैसे वाला शेर चुनाव में तगड़ा माना जाता था, तब भी बाहरी उम्मीदवार थोपे जाते थे. लेकिन तब चुनावों को महायज्ञ और मतपत्र को तुलसी-दल कहनेवाली आवाजें भी थीं. राजनीतिक दलों को ऐसी आवाजों में स्वर मिलाना जरूरी लगता था. आजादी मिले कुछ ही साल हुए थे. आदर्शवाद और राष्ट्र-प्रेम आम आदमी की सोच का हिस्सा था. ऐसे नेता भी थे, जिनके लिए राजनीति सत्ता नहीं, सेवा का माध्यम थी.

फिर, धीरे-धीरे सब कुछ बदलता गया. पिछले 60-65 साल में हमारे आस-पास की दुनिया की तुलना में जनतंत्र ने हमारे देश में जड़ें जमायी हैं, लेकिन उसी जनतंत्र के मूल्यों और आदर्शो का क्षरण भी इसी दौरान हुआ है. इस दौरान देश के मतदाता ने कई बार अपने विवेक-सम्मत निर्णयों से चौंकाया भी है, पर उतना ही सही यह भी है कि तुलसी-दल जैसे मत-पत्र की पवित्रता पर अक्सर दाग ही लगा है. इसके लिए राजनेता और मतदाता दोनों दोषी रहे हैं. नेताओं ने राजनीति को धंधा बना लिया है और हमने ऐसा होने दिया है.

दावे भले ही कुछ भी किये जाते हों, लेकिन हकीकत यही है कि हमारी राजनीति कुल मिला कर सत्ता की सौदेबाजी बन कर रह गयी है. नीतियां, सिद्धांत, मूल्य, आदर्श शब्दों की तरह जिंदा तो हैं, लेकिन राजनीतिक व्यवहार में वे मात्र शोभा की वस्तु बन गये हैं. राजनीति में नैतिकता की बात करना ‘पिछड़े’ होने का सबूत देना बन चुका है. मान लिया गया है कि सत्ता के लिए सब कुछ जायज है. आदर्शो, मूल्यों की दुहाई जरूर देते हैं हमारे राजनेता, पर इन्हीं आदर्शो की धज्जियां उड़ाने में भी उन्हें कभी शर्म नहीं आती. जैसे अवसरवादिता और सिद्धांतहीनता अब दिख रही है, इससे मतदाता की आंख खुल जानी चाहिए, पर ऐसा होता नहीं दिख रहा है. चुनाव के बाद दल-बदल पर रोक लगाने के लिए तो हमने कुछ व्यवस्था की भी है, लेकिन चुनाव के पहले जिस तरह का दल-बदल हो रहा है, उसके खोखलेपन और उसके खतरों के बारे में कोई सोचना ही नहीं चाहता. न राजनेताओं को पाला बदलने में शर्म आ रही है और न ही राजनीतिक दलों को इसमें कुछ गलत दिख रहा है. मत-परिवर्तन हो सकता है, लेकिन चुनाव के ठीक पहले ही, उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया के दौरान ही, हमारे राजनेताओं को यह एहसास क्यों होने लगता है कि उनका मत-परिवर्तन हो चुका है? कल तक सांप्रदायिकता को राजनीतिक अभिशाप बतानेवाला आज सांप्रदायिकता की परिभाषा बदलने की कोशिश में लग गया है.

भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई, आर्थिक और सामाजिक विषमता, विकास के अवसरों की असमानता आदि मुद्दे निश्चित रूप से महत्वपूर्ण हैं. इन्हें मतदाता के निर्णय का आधार बनना चाहिए. पर जनतांत्रिक मूल्यों का क्षरण भी कम महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है. सांप्रदायिकता, परिवारवाद, अधिनायकवादी प्रवृत्तियों का विस्तार, जातीयता और भाषाई आधारों पर की जानेवाली राजनीति, कुल मिला कर जनतांत्रिक मूल्यों की अवहेलना और नकार ही है. दुर्भाग्य से, इन चुनावों में यही सब हो रहा है. सत्ता-लोलुप नेताओं ने जनतंत्र के महायज्ञ को एक महायुद्ध में बदल दिया है. होता होगा युद्ध में सब कुछ जायज, लेकिन यज्ञ में साध्य और साधन की पवित्रता की कसौटी की अवहेलना नहीं हो सकती. आपराधिक तत्वों को राजनीति में मान्यता मिलना गलत है, स्वार्थ की राजनीति करनेवालों का जनतंत्र में अभिनंदन होना गलत है, धर्म-जाति-वर्ग-वर्ण की राजनीति गलत है, जनतंत्र में तानाशाही प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलना गलत है, मुद्दों के बजाय व्यक्तियों को प्रमुखता देना गलत है.. इतने सारे गलत को सही करने की जिम्मेवारी जनतंत्र में सिर्फ मतदाता की होती है. चुनाव राजनेताओं की नहीं, बल्कि मतदाताओं की परीक्षा है. इस परीक्षा में मतदाता की सफलता जनतंत्र की सफलता है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें