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हिंदुस्तानियत से है कश्मीरियत

अमरनाथ यात्रियों की जघन्य हत्या करनेवाले आतंकवादी इंसानियत पर धब्बा लगा गये. देश के हिंदू-मुसलमानों ने जिस एकता से इस हत्याकांड की निंदा की है, वह एक मिसाल है. लेकिन, सेक्युलर मीडिया का एक पक्ष, जो वस्तुत: हिंदू-विरोधी मानसिकता का द्योतक है, वह भी इस घटनाक्रम में उजागर हुआ. वह पक्ष है हिंदू समाज की […]

अमरनाथ यात्रियों की जघन्य हत्या करनेवाले आतंकवादी इंसानियत पर धब्बा लगा गये. देश के हिंदू-मुसलमानों ने जिस एकता से इस हत्याकांड की निंदा की है, वह एक मिसाल है. लेकिन, सेक्युलर मीडिया का एक पक्ष, जो वस्तुत: हिंदू-विरोधी मानसिकता का द्योतक है, वह भी इस घटनाक्रम में उजागर हुआ. वह पक्ष है हिंदू समाज की वेदना को हिंदू के नाते न प्रकट करना और न ही उसका हिंदू पहलू उजागर होने देना.

यदि किसी भारतीय मुसलिम पर अत्याचार या हमला होता है, तो न केवल पीड़ित का मजहब सुर्खियों मेंआता है, बल्कि हमलावरों को हिंदू कट्टरपंथी वगैरह, त्रिशूलधारी खूंखार और सिर पर केसरिया पट्टी बांधे लोगों को सारे हिंदू समाज का प्रतिनिधि बता कर दिखाया जाता है. पर यदि पीड़ित हिंदू है और हमलावर मुसलिम, तो न पीड़ित की आस्था का उल्लेख होगा और न उन्हें खूंखार चेहरे वाला दिखाया जायेगा. क्या हिंदू की वेदना वेदना नहीं और वेदना का भी हम संप्रदायीकरण करेंगे, वह भी सेक्युलरवाद के नाम पर?

जो कश्मीरी मुसलिम नेता अमरनाथ यात्रियों के लिए एक इंच जमीन भी न देने का दंभ भरते रहे और हिंदुओं को कश्मीर से निकाले जाते समय चुप रहे, वे किस मुंह से कश्मीरियत की बात करते हैं? केवल और केवल हिंदुस्तानियत से ही कश्मीरियत जिंदा है. हिंदुस्तान के अलावा किसी कश्मीरियत का कोई मायने ही नहीं है.

जब तक जिहादी दरिंदों द्वारा इसलामियत के नाम पर निकाले गये पांच लाख हिंदू सुरक्षा और सम्मान के साथ वापस नहीं लौटते, तब तक कैसा गणतंत्र और कैसी संसद. सब अधूरा ही है. कश्मीर से सीधे केरल आ जाइये. हर दिन हम उन हिंदुओं की हत्याओं के आंकड़े जोड़ते चले जाते हैं, जिन्हें केवल आग्रही एवं निष्ठावान हिंदू होने के नाते मारा जा रहा है. पश्चिम बंगाल में हिंदू बस्तियों को उजाड़ा जाना बदस्तूर जारी है, क्योंकि ममता बनर्जी को मुसलिम वोट चाहिए. पाकिस्तान से हिंदू बच्चियों के अपहरण, जबरन धर्म परिवर्तन और निकाह की खबरें आती हैं. कौन इस पर दर्द महसूस करता है. बांग्लादेश में हिंदू आज भी तमाम राजकीय आत्मीय संबंधों से अरक्षित एवं आक्रांत हैं.

रामनाथ कोविंद का राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन होना तो प्राय: सभी को अच्छा लगा. लेकिन, कतिपय मुसलिम व कम्युनिस्ट, जो सोशल मीडिया के जेहादी हैं, भाजपा के इस लोकप्रिय निर्णय से बौखला उठे और उन्होंने गाली-गलौज की भाषा में ट्वीट किया. केरल में मारे जा रहे स्वयंसेवकों का दर्द दर्द नहीं, कश्मीर के हिंदुओं का दर्द दर्द नहीं. इनके लिए अभिव्यक्ति की आजादी का एक ही अर्थ है- राष्ट्रीयता समर्थक केसरिया विचार वर्ग पर एकतरफा आक्रमण तथा हिंदुत्व को एक गाली का रूप देना.

दार्जीलिंग में गोरखा समाज पर भाषा के नाम पर ममता का अत्याचार, वस्तुत: मुसलिम तुष्टीकरण के लिए हिंदू समाज पर आघात ही है. गोरखा समाज पराक्रमी और देशभक्त है. अत्यंत धर्मनिष्ठ है. गोरखा शब्द का जन्म ही गोरक्षा से हुआ. जो गोरक्षक था, उसे गोरखा कहा गया. उन्हें अपनी भाषा, संस्कृति की रक्षा का हक क्यों नहीं होना चाहिए. यदि दार्जीलिंग मुसलिम बहुल होता, तो ममता दीदी का ऐसा रवैया कभी नहीं होता. उनका बस चले, तो वह मुसलिम वोटों के लिए उर्दू को सब पर लाद दें. पर, हिंदू गोरखा समाज की भाषा उन्हें स्वीकार नहीं है.

कश्मीर में पिछले देनों शहीद हुए लेफ्टिनेंट उमर फैयाज और सब-इंस्पेक्टर फिरोज डार से जेहादी दुश्मनी का कारण सिर्फ यही था कि वे भारत के तिरंगे और संविधान के लिए वफादार थे. सही बात यह है कि 99 प्रतिशत कश्मीरी मुसलिम आज भी एक भारतीय के नाते सम्मान की जिंदगी बिताना चाहता है. जो थोड़े-बहुत गद्दार हैं, उन्हें दिल्ली की मीडिया का सहारा मिलता है. हमने गद्दारों के साक्षात्कार सेक्युलर समाचारपत्रों में पढ़े हैं. क्या कभी किसी ऐसे पत्र-पत्रिका अथवा चैनल ने उन कश्मीरी मुसलमानों के साक्षात्कार भी छापे हैं, जो राष्ट्रीयता की बात कहते हैं? दिल्ली का मीडिया यह दिखाना चाहता है कि कश्मीर के पत्थरबाज और हुर्रियत के गद्दार ही घाटी के प्रतिनिधि हैं. जबकि यह गलत है.

लगातार विदेशी आक्रमणकारियों से निबटते-निबटते हम इस मुकाम पर आ पहुंचे हैं कि राम-कृष्ण और शिव के ध्वस्त किये हुए मंदिर के पुनर्निर्मित करने की बात करना भी सेक्युलर आक्रमण आमंत्रित करता है. कश्मीर में सात सौ से ज्यादा ऐसे सुंदर और बड़े मंदिर जेहादियों ने ध्वस्त कर दिये, जिनका पूरा विवरण दस्तावेजों में दर्ज है, लेकिन आज भी आत्मरक्षा की मुद्रा में खड़ा हिंदू उन ध्वस्त किये गये मंदिरों के पुनर्निर्माण की बात तक करने से हिचकता ही रहता है. अगल-बगल में पहले देख लेता है, फिर धीरे से कहता है- सर वो जो कश्मीर में मंदिर ढाये गये थे, उनके पुनर्निर्माण की तो बात कीजिये न सर.

सदियों का दर्द है. संभाले नहीं संभलता. थमते-थमते थमेंगे आंसू- ये रोना है कोई हंसी तो नहीं.

तरुण विजय

सांसद, राज्यसभा

tarunvijay55555@gmail.com

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