।।रवीश कुमार।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
मेरा ब्लॉग (कस्बा) पढ.नेवाली रश्मि ने लिखा है कि मुङो गाय की दुर्दशा पर लिखना चाहिए, क्योंकि हम गाय को लेकर पाखंडी हैं. रश्मि ने किसी अमेरिकी राजदूत के हवाले से टिप्पणी की है कि हम पूजा करने का ढोंग करते हैं और दूसरी ओर गायों को सड.कों पर मारा-मारा फिरने के लिए छोड. देते हैं. रश्मि की बात सही है. गाय के बारे में ज्यादातर लोग बातें क्यों नहीं करते, जबकि उसका दूध सब पीते हैं.
मैं खुद दो संयोगों की वजह से गाय के बारे में सोच रहा था. सब्जी का जूस निकालने में पल्प ज्यादा निकल आता है. जाड.े में साग और गोभी के डंठल निकल कर बरबाद हो जाते हैं. ये कचरे में डाल दिये जाते हैं, जहां चारा ढूंढते-ढूंढते गाय पॉलिथिन खा लेती है. जब तक बाबूजी जिंदा थे, तब तक घर में गाय रही. चारा खिलाने से लेकर उसकी चमड.ी से अठईं निकालना कुछ न कुछ तो किया है. बछड.ा देने पर बांस का कोंपल खिलाना और सर्दी में बोरे की चट्टी ओढ.ाना. साग-सब्जी की कतरनें और पहली रोटी गाय को देना. गाय हमारी जिंदगी का हिस्सा रही है. दुख होता है कि इस तादाद में हरा चारा बरबाद होता है. रोज सोचता हूं कि इसे किसी गाय को खिला आऊं, तो वह दूध ज्यादा देगी.
हम अंधाधुंध शहरी होने के क्रम में भूल गये हैं कि कभी गाय घर-घर चौखट से बंधी रहती थी. उससे हमारी सामाजिक-पारिवारिक यात्र में संपत्ति का सृजन होता है. गाय से गोत्र बना है और गाय को हड.पने के लिए खूब युद्ध हुए हैं. उन युद्धों में गायों का कत्ल भी हुआ है. गाय लूट ली जाती थी. आज जब हम उसी गाय को सड.कों पर देखते हैं, तो हॉर्न बजा कर आतंकित करते हैं. वह हमारी अर्थव्यवस्था का हिस्सा है, मगर हम उसे ट्रैफिक की समस्या के रूप में देखते हैं. गोबर का मजाक उड.ाते हैं. यह यह सोचते हैं कि शहर इतना विशाल हो ही गया है, तो यहां गायें क्यों हैं. लेकिन यह नहीं सोचते कि आखिर क्यों नहीं शहरों में गायों के लिए चारागाह हो. ऐसा लगता है कि हम गाय के प्रति बेहद क्रूर लोग हैं.
दरअसल, गाय को लेकर हमारा नजरिया काफी समस्याग्रस्त है. नेता दूध के उत्पादन में अपने-अपने राज्य को नंबर वन बताते हैं, लेकिन गाय का नाम नहीं लेते. डेरी उद्योग का नाम देकर बिजनेस मॉडल बताते हैं, मगर गाय से दूध लेने के लिए उसके साथ क्रूरता बरतते हैं. इंजेक्शन लगाते हैं. हाल ही में हमारी एक दोस्त ने बताया कि डेरी वाले गाय को कैल्शियम फास्फेट नहीं देते, जिससे गाय दूध कम देने लगती है और वह जल्दी ही अनुपयोगी हो जाती है. जो पालता है, वही उसे पॉलिथिन खाने के लिए छोड. देता है. गायों के लिए चलना-चरना बेहद जरूरी है, लेकिन वे कहां चलने-चरने जायें. गाय के साथ जो बर्ताव हो रहा है, उसके लिए माता-माता कहनेवाले लोग ही जिम्मेवार हैं.
गाय हमारी सहचर है. लेकिन हमने गाय को कभी जीव माना ही नहीं. परीक्षाओं में ‘काऊ इज अ फोर फुटेज एनिमल’ लिख कर भूल जाते हैं. धार्मिक और सांप्रदायिक राजनीति ने गाय के प्रति हमारे नजरिये को और भी कुंद किया है. कुछ ही धार्मिक संगठन हैं, जो वाकई गाय की सेवा करते हैं. घर-घर से चारा जमा कर खिलाते हैं, पर यह काफी नहीं है. लेकिन कुछ धार्मिक संगठनों ने गौ-रक्षा का विषय बना कर इसे हिंदू बनाम मुसिलम राजनीति के द्वंद में फिट कर दिया है. इनके लिए गाय का होना सांप्रदायिक द्वेष के मुद्दे से ज्यादा कुछ नहीं. इससे सामान्य लोग भी गाय के बारे में बात नहीं करते. इनके ढकोसलों ने गाय को एक चश्मे में बंद कर दिया है. गाय पूजनीय है, मगर उसकी पूजनीयता को खास राजनीतिक रंग देकर उसे पत्थर के जीव में बदल दिया गया है.
वाकई हमें गायों को धार्मिक सांप्रदायिक नजरिये से मुक्त कराना चाहिए. सारे संगठनों को गाय के बारे में बात करनी चाहिए. सिर्फ धार्मिक और दक्षिणपंथी संगठनों के भरोसे गायों को नहीं छोड. सकते. शहर हो या गांव किसी का भी गाय के बिना काम नहीं चल सकता. इसलिए गाय रहेगी, क्योंकि गाय माता से पहले या माता होने के नाते ही सही शहर की नागरिक है. महाराष्ट्र के बारामती में गांव पर्यटन का मॉडल देख रहा था. किसान ने कहा कि शहरी पर्यटकों के लिए गाय भी है. मैंने पूछा क्यों, तो उसने जवाब दिया- साहब बहुत बच्चों को मालूम नहीं कि दूध गाय देती है. वे समझते हैं कि दूध अमूल देता है, मदर डेयरी देती है. हम सचमुच गाय की चिंता करते हैं, तो उसे गौ-रक्षा के नाम पर हिंदू-मुसिलम राजनीति की खुराक बनने से बचाना होगा. हमें बस उसके स्वस्थ भोजन और परिवेश की चिंता करनी चाहिए. गाय को लेकर भावुकता छोड. कर उसके साथ एक सह नागरिक जैसा बर्ताव करना चाहिए. तभी हम उसके अधिकारों के प्रति सचेत हो सकेंगे और बच्चों को स्वस्थ दूध दे सकेंगे.
(कस्बा ब्लॉग से साभार)