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भगत सिंह: अंतिम समय तक पढ़ रहे थे अपने हीरो लेनिन की जीवनी, आज ही हुआ था इस महान क्रांतिकारी का जन्म

भगत सिंह की फांसी का दिन मुकर्रर हो गया था. तय तिथि को जब उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गयी तो उन्होंने कहा कि लेनिन की जीवनी पढ़ रहा हूं. मुझे इतना वक्त चाहिए कि मैं इसे पूरा पढ़ लूं. जब अधिकारी उन्हें ये बताने आया कि वक्त हो गया तो भगत सिंह ने कहा […]

भगत सिंह की फांसी का दिन मुकर्रर हो गया था. तय तिथि को जब उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गयी तो उन्होंने कहा कि लेनिन की जीवनी पढ़ रहा हूं. मुझे इतना वक्त चाहिए कि मैं इसे पूरा पढ़ लूं. जब अधिकारी उन्हें ये बताने आया कि वक्त हो गया तो भगत सिंह ने कहा कि रुको जरा, एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है. फिर उन्होंने लेनिन की जीवनी वाली वो किताब हवा में उछाली और कहा, चलो…….

नयी दिल्ली: मुल्क ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता का गुलाम था. ईस्ट इंडिया कंपनी नाम की एक ब्र्रिटिश व्यापारिक कंपनी ने अपने छल, कूटनीति और सैन्य ताकत के बूते हिन्दुस्तान को आर्थिक और राजनीतिक तौर पर गुलाम बना लिया था. 1905 में लार्ड कर्जन ने क्रूरतम ढंग से बंगाल को दो भागों में विभाजित कर दिया था. चारों तरफ हाहाकार था. अकाल, भुखमरी और अंग्रेजी सत्ता के उत्पीड़न ने देश के नागरिकों की कमर तोड़ दी थी.

28 सितंबर 1907 को हुआ था भगत सिंह का जन्म

इसी समय लायलापुर जिला (अब फैसलाबाद, पाकिस्तान) के एक गांव में सरदार किशन सिंह और विद्यापति के घर बालक का जन्म हुआ. समय था 28 सितंबर 1907. माता-पिता ने प्यार से नाम रखा भगत सिंह, जिसे प्यार से लोग भगत्या कहते थे. भगत सिंह थोड़े बड़े हुए तो शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था की गयी. भगत सिंह स्कूली दिनों में ही विश्व के अलग-अलग देशों में तानाशाही राजशाही के तख्तापलट और क्रांतिकारी आंदोलनों की कहानियां पढ़ा करते थे. इसकी वजह से उन पर क्रांतिकारी विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा था.

जलियांवाला बाग हत्याकांड ने बदली जिंदगी

भगत सिंह की जिंदगी का टर्निंग प्वॉइंट वो था जब वे केवल 12 साल के थे. वो सन् 1919 का समय था. अंग्रेजी सत्ता बिना वकील और बिना दलील वाली एक कानून लेकर आई थी जिसे कहा गया रौलेट एक्ट. इस कानून के तहत ब्रिटिश सत्ता किसी भी भारतीय को केवल संदेह के आधार पर गिरफ्तार कर सकती थी. जाहिर है, देशभर में इसका विरोध शुरू हो गया. इसी कड़ी में 13 अप्रैल को 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में लोग बैशाखी के मेले के लिए इकट्ठा हुए.

यहां रौलेट एक्ट के विरोध में एक सभा भी होनी थी. इसकी भनक अंग्रेज अधिकारी जनरल डायर को लग गयी. उसने बाग में जाकर निहत्थी भीड़ पर गोलियां चला दीं. बच्चे, बूढ़े, औरतें सहित हजारों लोग इस गोलीकांड में मारे गए. भगत सिंह को इस घटना ने बहुत व्यथित कर दिया. उन्होंने अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ जंग की ठान ली.

असहयोग अंदोलन वापस लेने से व्यथित हुये

इस समय तक महात्मा गांधी चंपारण, खेड़ा और अहमदाबाद में सत्याग्रह और इसमें मिली सफलता के बाद काफी मशहूर हो चुके थे और कांग्रेस पार्टी में बड़ी भूमिका निभा रहे थे. उन्होंने रौलेट एक्ट और फिर जालियांवाला बाग हत्याकांड के बाद 1921 में असहयोग आंदोलन छेड़ दिया. हिन्दुस्तान के लाखों लोग महात्मा गांधी के साथ हो लिये. लोगों ने अपनी नौकरियां छोड़ीं और युवाओं ने अपना स्कूल और कॉलेज. औरतों ने भी घरों से निकलकर बड़ी संख्या में इसमें भाग लिया.

महात्मा गांधी और उनके आंदोलन से प्रभावित होने वालों में एक प्रमुख नाम बालक भगत सिंह भी थे. उन्होंने इस छोटी से उम्र में ही आंदोलन में काफी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. उन्होंने समझा था कि गांधीजी के इस आंदोलन से अंग्रेजी सरकार की हालत खराब हो जाएगी. ऐसा हुआ भी था लेकिन तभी आंदोलन के दौरान चौरी-चौरी नामक स्थान पर एक भीड़ के हाथों 22 पुलिकर्मियों की हत्या हो गयी.

अहिंसा को अपना परम हथियार मानने वाले गांधीजी इससे नाराज हुये और उन्होंने आंदोलन वापस लेने की घोषणा कर दी. इस घटना ने भगत सिंह को निराशा से भर दिया. उनके बालमन में इसका काफी नकारात्मक असर पड़ा. उनका विश्वास गांधीजी और उनके तरीकों, दोनों से उठ गया और वे सशस्त्र क्रांति की तरफ मुड़ गये.

हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का हिस्सा बने

दूसरी तरफ रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, शचीन्द्रनाथ सान्याल और योगेशचंद्र चटर्जी ने मिलकर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की थी. इस संगठन का उद्देश्य देश भर के युवाओं को ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष के लिए तैयार करना था. क्रांति की राह तलाश के लिए भगत सिंह को यहां ठौर मिला. यहीं उन्होंने संगठन और देश के प्रति अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के लिए मोमबत्ती की लौ में हथेली जलाकर शपथ ली थी.

संगठन ने छुपकर अपनी क्रांतिकारी गतिविधियां संचालित करनी आरंभ कर दी. संगठन ने फैसला किया कि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए धन का इंतजाम सरकारी खजाना लूटकर किया जाये. इसलिए उन्होंने सरकारी खजाने से भरी एक ट्रैन को काकोरी स्टेशन के पास से लूट लिया. हालांकि कुछ ही दिनों बाद संगठन के चार अहम सदस्यों रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेंद्र लाहिड़ी औ रौशन सिंह को फांसी दे दी गयी.

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन बनाई

इस घटना के बाद चंद्रशेखर आजाद कुछ दिनों के लिए अंडरग्राइउंड हो गये. क्योंकि उनका पकड़ा जाना संगठन के लिए अच्छा नहीं होता. अब क्रांतिकारी गतिविधियों की सारी जिम्मेदारी भगत सिंह और राजगुरू सरीखे नौजवानों के हाथों में आ गयी. एक दिन सभी लोग दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में इकट्ठा हुए. यहीं भगत सिंह ने अपना एतिहासिक व्यक्तव्य दिया.

उन्होंने तात्कालीन कांग्रेस पार्टी पर निशाना साधते हुए कहा कि वे लोग केवल सत्ता हस्तांतरण के लिए लड़ रहे हैं ना कि आजादी के लिए. उन्होंने कहा कि जब तक देश में इतनी अधिक मात्रा में जातिगत, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक असमानता है तो फिर आजादी कैसी होगी. उनका मानना था कि हमें अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के साथ-साथ देश में व्याप्त भयानक असमानता के खिलाफ भी लड़ना चाहिए.

उन्होंने अपने पुराने संगठन नौजवान सभा का हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में विलय कर दिया और संगठन का नया नाम दिया. ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’. ये साल 1928 की बात है.

दो घटनाएं जिसने बदली भगत सिंह की जिंदगी

साल 1928 में दो बातों ने भगत सिंह की जिंदगी पर गहरा प्रभाव डाला. बता दें कि 1919 के भारत शासन अधिनियम का रिव्यू करने के लिए साइमन कमीशन को भेजा गया. देशभर में इसका विरोध शुरू हो गया. भगत सिंह और उनके साथी लाहौर में लाला लाजपत राय के साथ कमीशन का विरोध कर रहे थे. तभी लाहौर के सहायक पुलिस अधीक्षक सांडर्स ने भीड़ पर लाठीचार्ज का हुक्म दे दिया.

इस घटना में लाला लाजपत राय को जानलेवा चोट लगी और दो दिन बाद इलाज के दौरान उनकी मौत हो गयी. इस घटना से भगत सिंह और उनके साथी आक्रोशित हो गये. उन्होंने सांडर्स की हत्या करने का प्लान बनाया.

17 दिसंबर 1928 को भगत सिंह और राजगुरू ने मिलकर सांडर्स की हत्या कर दी. अंग्रेज इस हत्याकांड से बौखला गए. युद्धस्तर पर क्रांतिकारियों को पकड़ने का अभियान चलाया जाने लगा. हालांकि भगत सिंह उनके हाथ नहीं आए. लेकिन इस घटना ने देशवासियों में गलत संदेश दिया. कुछ भारतीय नेताओं ने भी इसकी आलोचना की.

देशवासियों तक बात पहुंचाने के लिए दी गिरफ्तारी

भगत सिंह को लगा कि देशवासियों को अपने उद्देश्यों से अवगत कराना जरूरी है नहीं तो उनका सारा प्रयास बेकार चला जाएगा. इसलिए इन्होंने दिल्ली स्थित सेंट्रल एसेंबली के सभागार भवन में बम फेंकने का प्लान बनाया. भगत सिंह ने कहा कि हम किसी को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे. हमारा उद्देश्य केवल बहरी ब्रिटिश सत्ता तक अपनी आवाज पहुंचाना है.

तय तिथि को यानी 08 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने सेंट्रल एसेंबली में बम और पर्चे फेंके. बम खाली जगह पर फेंका गया. बम फेंकने के बाद दोनों भागे नहीं बल्कि अपनी गिरफ्तारियां दीं.

23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी दी गयी

भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर बम फेंकने का केस तो चला ही, साथ ही उन पर काकोरी लूटकांड सहित सांडर्स हत्याकांड का भी केस चला. बाद में उनके कई साथी पकड़े गये जिनमें सुखदेव और राजगुरू भी शामिल थे. लंबे मुकदमें के बाद तीनों को फांसी की सजा सुनायी गयी. 23 मार्च 1931 को तीनों को लाहौर के सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गयी. फांसी से पहले जब भगत सिंह ने उनकी आखिरी इच्छा पूछी गयी तो उन्होंने लेनिन की जीवनी को पूरा पढ़ लेने का समय मांगा.

आज भगत सिंह की जयंती है. भगत सिंह ने अपनी फांसी से पहले कहा था कि यदि मैं कुर्बान हो गया तो देश की हजारों माताएं अपने बच्चों को भगत सिंह बनने के लिए प्रेरित करेंगी. ऐसा होगा तो क्रांति के इतने मतवाले सामने आएंगे कि ब्रिटिश सत्ता के लिए इनको रोक पाना आसान नहीं रह जायेगा.

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