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ईश्वर पर आस्था क्यों नहीं रखते थे भगत सिंह ?

आजाद भारत में क्रांति के पर्याय माने जाने वाले भगत सिंह मात्र 23 साल की उम्र में शहीद हो गये. उनके लिखे पत्रों से उनके विद्रोही विचारों की झलक मिलती है. भगत सिंह के घर में क्रांतिकारी माहौल था. दादा आर्य समाज से जुड़े थे तो पिता और चाचा गदर पार्टी से. ऐसे परिवार में […]

आजाद भारत में क्रांति के पर्याय माने जाने वाले भगत सिंह मात्र 23 साल की उम्र में शहीद हो गये. उनके लिखे पत्रों से उनके विद्रोही विचारों की झलक मिलती है. भगत सिंह के घर में क्रांतिकारी माहौल था. दादा आर्य समाज से जुड़े थे तो पिता और चाचा गदर पार्टी से. ऐसे परिवार में पल रहे बच्चे के मन में बचपन से ही अंग्रेजों के प्रति बगावत की भावना पनप रही थी. जब जालियांवाला कांड हुआ, तब उनकी उम्र 12 साल की थी. मन में आजादी की इतनी प्रबल भावना थी कि उन्होंने शादी से इनकार कर दिया. भगत सिंह ईश्वर पर आस्था नहीं रखते थे. जब उनके नास्तिकता को लेकर सवाल खड़े किये गये, तो उन्होंने इसका जवाब एक पत्र के जरिये दिया. इस पत्र के कुछ चुनिंदा अंश

जब विज्ञान विकसित होने लगता है और जब पीड़ित व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने लगते हैं, जब मनुष्य अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयत्न करता है तथा यथार्थवादी बन जाता है. ऐसे में तो ईश्वररूपी कृत्रिम बैसाखी और काल्पनिक रक्षक की आवश्यकता समाप्त हो जाती है. आत्म-मुक्ति के इस संघर्ष में ‘धर्म के संकीर्ण सिद्धांत’ तथा ईश्वर में विश्वास के विरुद्ध लड़ाई अनिवार्य हो जाती है. ‘‘किसी भी प्रगतिशील व्यक्ति को प्राचीन आस्थाओं को चुनौती देनी पड़ती है, उनकी आलोचना करनी पड़ती है तथा उनमें अविश्वास भी प्रदर्शित करना पड़ता है, एक के बाद एक, वह प्रचलित विश्वास के सभी पक्षों का तार्किक विश्लेषण करता है….एक व्यक्ति, जो यथार्थवादी होने का दावा करता है, उसे सम्पूर्ण प्राचीन विश्वास को चुनौती देनी पड़ती है…उसके लिए सबसे प्रथम तथा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह प्राचीन ढांचे को गिरा दे तथा नए दर्शन के लिए स्थान साफ कर दे.’’
एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है. क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता हूँ? मेरे कुछ दोस्त – शायद ऐसा कहकर मैं उन पर बहुत अधिकार नहीं जमा रहा हूँ – मेरे साथ अपने थोड़े से सम्पर्क में इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ ज़रूरत से ज़्यादा आगे जा रहा हूँ और मेरे घमण्ड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिये उकसाया है. मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमज़ोरियों से बहुत ऊपर हूँ. मैं एक मनुष्य हूँ, और इससे अधिक कुछ नहीं. कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता. यह कमज़ोरी मेरे अन्दर भी है. अहंकार भी मेरे स्वभाव का अंग है अपने साथियों के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था. यहाँ तक कि मेरे दोस्त श्री बटुकेश्वर कुमार दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे. कई मौकों पर स्वेच्छाचारी कह मेरी निन्दा भी की गयी. कुछ दोस्तों को शिकायत है, और गम्भीर रूप से है कि मैं अनचाहे ही अपने विचार, उन पर थोपता हूँ और अपने प्रस्तावों को मनवा लेता हूँ.
यह बात कुछ हद तक सही है. इससे मैं इनकार नहीं करता. इसे अहंकार कहा जा सकता है. जहाँ तक अन्य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है. मुझे निश्चय ही अपने मत पर गर्व है. लेकिन यह व्यक्तिगत नहीं है. ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्वास के प्रति न्यायोचित गर्व हो और इसको घमण्ड नहीं कहा जा सकता. घमण्ड तो स्वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है. क्या यह अनुचित गर्व है, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया? अथवा इस विषय का खूब सावधानी से अध्ययन करने और उस पर खूब विचार करने के बाद मैंने ईश्वर पर अविश्वास किया?
मेरा नास्तिकतावाद कोई अभी हाल की उत्पत्ति नहीं है. मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था, जब मैं एक अप्रसिद्ध नौजवान था. कम – से – कम एक कालेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अहंकार को नहीं पाल-पोस सकता, जो उसे नास्तिकता की ओर ले जाये. यद्यपि मैं कुछ अध्यापकों का चहेता था तथा कुछ अन्य को मैं अच्छा नहीं लगता था. पर मैं कभी भी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा. अहंकार जैसी भावना में फँसने का कोई मौका ही न मिल सका। मैं तो एक बहुत लज्जालु स्वभाव का लड़का था, जिसकी भविष्य के बारे में कुछ निराशावादी प्रकृति थी. मेरे बाबा, जिनके प्रभाव में मैं बड़ा हुआ, एक रूढ़िवादी आर्य समाजी हैं. एक आर्य समाजी और कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता.
अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डी0 ए0 वी0 स्कूल, लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहा. वहाँ सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्त में घण्टों गायत्री मंत्र जपा करता था. उन दिनों मैं पूरा भक्त था. बाद में मैंने अपने पिता के साथ रहना शुरू किया. जहाँ तक धार्मिक रूढ़िवादिता का प्रश्न है, वह एक उदारवादी व्यक्ति हैं. उन्हीं की शिक्षा से मुझे स्वतन्त्रता के ध्येय के लिये अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली. किन्तु वे नास्तिक नहीं हैं. उनका ईश्वर में दृढ़ विश्वास है. वे मुझे प्रतिदिन पूजा-प्रार्थना के लिये प्रोत्साहित करते रहते थे.
इस प्रकार से मेरा पालन-पोषण हुआ. असहयोग आन्दोलन के दिनों में राष्ट्रीय कालेज में प्रवेश लिया. यहाँ आकर ही मैंने सारी धार्मिक समस्याओं – यहाँ तक कि ईश्वर के अस्तित्व के बारे में उदारतापूर्वक सोचना, विचारना तथा उसकी आलोचना करना शुरू किया. पर अभी भी मैं पक्का आस्तिक था. उस समय तक मैं अपने लम्बे बाल रखता था. यद्यपि मुझे कभी-भी सिक्ख या अन्य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धान्तों में विश्वास न हो सका था. किन्तु मेरी ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ निष्ठा थी.
बाद में मैं क्रान्तिकारी पार्टी से जुड़ा. वहाँ जिस पहले नेता से मेरा सम्पर्क हुआ वे तो पक्का विश्वास न होते हुए भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस ही नहीं कर सकते थे. ईश्वर के बारे में मेरे हठ पूर्वक पूछते रहने पर वे कहते, ‘’जब इच्छा हो, तब पूजा कर लिया करो.’’ यह नास्तिकता है, जिसमें साहस का अभाव है. दूसरे नेता, जिनके मैं सम्पर्क में आया, पक्के श्रद्धालु आदरणीय शचीन्द्र नाथ सान्याल आजकल काकोरी षडयन्त्र केस के सिलसिले में आजीवन कारवास भोग रहे हैं

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