हमारे देश में बड़ी होती बच्चियों (10-12 वर्ष) को ‘पीरियड्स’ के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है. ऐसी स्थिति में अचानक जब उन्हें ‘पीरियड्स’ आने लगता है, तो वे समझ नहीं पाती कि आखिर उनके साथ यह क्या हो रहा है. घर में भी उन्हें इस बारे में कोई खास बताता नहीं है. यहां […]
हमारे देश में बड़ी होती बच्चियों (10-12 वर्ष) को ‘पीरियड्स’ के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है. ऐसी स्थिति में अचानक जब उन्हें ‘पीरियड्स’ आने लगता है, तो वे समझ नहीं पाती कि आखिर उनके साथ यह क्या हो रहा है. घर में भी उन्हें इस बारे में कोई खास बताता नहीं है. यहां तक कि मां भी सवालों को टाल जाती है. ऐसे में कई बार बच्चियां यह सोचने लगती हैं कि उन्हें कोई बीमारी हो गयी है. हमने 12-14 साल की कई लड़कियों से बात की और उनकी मन:स्थिति जानने की कोशिश की. बच्चियों का कहना था कि जब पहली बार उनके शरीर से खून आने लगा, तो उसने मां को इस बारे में बताया.
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उस वक्त उसकी मां ने उसे सिर्फ इतना ही बताया कि वह बड़ी हो रही है और अब उसे हर महीने हमेशा ही ऐसा होगा. उसकी मां ने उसे पैड लेने का तरीका बताया बस. अब हर माह उसे ‘पीरियड्स’ आता है और उस दौरान उसे कुछ अच्छा नहीं लगता. पेट और कमर में दर्द भी होता है उसे घर से बाहर जाने का बिलकुल मन नहीं करता. काश कि उसे यह सब झेलना नहीं पड़ता.
इस मन:स्थिति से भारत में हर वो लड़की गुजरती है, जिसके जीवन में ‘पीरियड्स’ की शुरुआत होती है. सामाजिक कार्यों में जुटी एक संस्था FSG के अनुसार हमारे देश में 355 मिलियन किशोरियां और महिलाएं हैं, जिन्हें ‘पीरियड्स’ आता है. जिनमें से 71 प्रतिशत बच्चियां ऐसी हैं, जिन्हें पहले ‘पीरियड्स’ से पहले इस संबंध में कोई जानकारी नहीं थी. परिणामस्वरूप 25 प्रतिशत बच्चियां सदमे की, 30 प्रतिशत डर की, 69 प्रतिशत चिंता की और 22 लड़कियां अपराधबोध और अवसाद की शिकार हो जाती हैं.
यह स्थिति बहुत ही चिंताजनक है. ऐसे में बच्चियों के स्वास्थ्य पर तो असर पड़ता ही है उनकी दिनचर्या और पढ़ाई-लिखाई भी प्रभावित होती है. FSG के आंकड़ों के अनुसार देश में लगभग 70 प्रतिशत महिलाएं अभी भी घरेलू नैपकिन का प्रयोग कर रही हैं. घरेलू नैपकीन का रखरखाव भी काफी परेशानी भरा होता है. उसे धोना, सुखाना और इस्तेमाल के लिए तैयार करना बच्चियों के लिए चुनौती भरा काम होता है. समाज में मौजूद मिथकों के कारण उन्हें नैपकिन को सबसे छुपाना भी पड़ता है. इन परिस्थितियों में बच्चियां परेशान हो जाती है.
ऐसे में जरूरी यह है कि एक बड़ी होती बच्ची के माता-पिता उसे ‘पीरियड्स’ आने से पहले ही पूरी बात समझा दें. उसे यह बतातें कि यह कोई अभिशाप नहीं बल्कि भविष्य के लिए प्रकृति का वरदान है. जिसके जरिये वह मां बन पायेगी. अगर ‘पीरियड्स’ ना हो, तो एक बच्ची जब औरत बनेगी तो वह मां नहीं बन पायेगी. संभव हो तो उसे डॉक्टर या गांव में जो सहिया या आशा होती हैं उसके पास ले जाकर पूरी बात अच्छी तरह समझा दें. जहां तक संभव हो तैयार नैपकिन इस्तेमाल करने के लिए दें और अगर संभव नहीं है, तो घर में बनाकर दें, जो साफ-सुथरा हो. जब बेटी को पीरियड्स आये, तो उसे प्यार से समझायें उसे अलग-थलग ना करें. एक अभिभावक के तौर पर यह आपका कर्तव्य है.