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ऑस्कर की आस में ‘2018’

अब तक केवल तीन भारतीय फिल्में ही आखिरी पांच में पहुंच पायी हैं- 1957 में महबूब खान की 'मदर इंडिया', 1988 में मीरा नायर की 'सलाम बॉम्बे' और 2001 में आशुतोष गोवारीकर की 'लगान.'

अगर 2001 में भारत से ‘लगान’ ऑस्कर के लिए न भेजी जाती और इसके निर्माता आमिर खान वहां जाकर धुआंधार प्रचार कर उसे फाइनल तक न ले गये होते, तो आज शायद ही किसी आम भारतीय को ऑस्कर पुरस्कारों में कोई खास दिलचस्पी होती. फिर 2009 में ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ के लिए संगीतकार एआर रहमान व गीतकार गुलजार को ‘जय हो’ गाने के लिए और इसी फिल्म में साउंड मिक्सिंग के लिए रसूल पूकुट्टी को ऑस्कर मिलने के बाद से हर भारतवासी की उम्मीदें बढ़ी हैं. साल 2023 में एसएस राजामौली की फिल्म ‘आरआरआर’ के गाने ‘नाटु नाटु’ और कार्तिकी गोंजाल्विस के निर्देशन में बनी निर्मात्री गुनीत मोंगा की डॉक्यूमेंट्री ‘द एलिफेंट व्हिसपर्स’ को ऑस्कर मिलने के बाद से भारतीय सिनेमा उद्योग और सिने-प्रेमियों की उम्मीदें आसमान पर हैं कि 2024 के ऑस्कर समारोह में हमारे यहां से भेजी गयी मलयालम फिल्म ‘2018’ सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फिल्म के तमगे के साथ ऑस्कर की उस सुनहरी मूरत को ले आयेगी, जिसे पाने की आस में 1957 से भारत ऑस्कर की दौड़ में फिल्में भेज रहा है.

भारत से ऑस्कर के लिए फिल्म भेजने के लिए अधिकृत संस्था फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया (एफएफआई) है. नियम यह है कि पिछले एक साल के अरसे में वह फिल्म उस देश के किसी सिनेमाहॉल में कम से कम एक हफ्ते तक सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शित हुई हो और उस फिल्म की प्रमुख भाषा अंग्रेजी न हो. इस साल कन्नड़ के प्रख्यात फिल्मकार गिरीश कासरवल्ली की अध्यक्षता में एक 16 सदस्यीय समिति ने जूड एंथोनी जोसेफ की मलयालम फिल्म ‘2018’ को चुना, तो उनके फैसले के खिलाफ फिल्म इंडस्ट्री और मीडिया में कोई आवाज नहीं उठी. साल 2018 में केरल में आयी बाढ़ में फंसे लोगों को बचाने की पृष्ठभूमि पर पर बनी ‘2018: एवरीवन इज ए हीरो’ कुछ ऐसे लोगों की कहानी है, जिन्होंने अपनी परवाह किये बगैर दूसरों को बचाया था.

ऑस्कर में सिर्फ फिल्म भेज देना ही काफी नहीं होता, बल्कि ऑस्कर अकादमी के सदस्यों के बीच अपनी फिल्म का प्रचार भी करना होता है. ‘लगान’ के समय आमिर खान ने बताया था कि अकादमी के ज्यादातर सदस्य सिर्फ उन्हीं फिल्मों को देखना गवारा करते हैं, जिनके बारे में उन्होंने कहीं से कुछ सुन रखा होता है. जाहिर है कि उनके कानों में अपनी फिल्म का नाम डालने में काफी मेहनत और पैसा लगता है और हर निर्माता यह काम नहीं कर सकता. कुछ सालों से भारत सरकार ने प्रचार के लिए पैसे देने की शुरुआत की है. पिछले दिनों गोवा में हुए भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के दौरान फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया ने देसी-विदेशी मेहमानों व मीडिया के सामने ‘2018’ के पक्ष में हवा बनाने के लिए एक पार्टी भी रखी थी. अब तक केवल तीन भारतीय फिल्में ही आखिरी पांच में पहुंच पायी हैं- 1957 में महबूब खान की ‘मदर इंडिया’, 1988 में मीरा नायर की ‘सलाम बॉम्बे’ और 2001 में आशुतोष गोवारीकर की ‘लगान.’ अब निगाहें ‘2018’ पर हैं. इस साल वहां 92 देशों से फिल्में आयी हैं, जिनमें से 89 को उपयुक्त पाकर उन पर पहले राउंड की वोटिंग की जा रही है. फिर 21 दिसंबर को 15 फिल्मों की सूची घोषित होगी.

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