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FILM REVIEW: विषय की गंभीरता के साथ न्याय करने से चूकती है ”31 अक्टूबर”

उर्मिला कोरी फिल्म का नाम: 31 अक्टूबर निर्माता: हैरी सचदेवा निर्देशक: शिवाजी लोटन पाटिल स्टार कास्ट: वीर दास, सोहा अली खान, दीपराज राणा, लखविंदर सिंह, विनीत शर्मा और अन्य रेटिंग: 2 स्टार 1984 के सिख विरोधी दंगे, बॉलीवुड फिल्मों में अब तक कहानी की अहम धुरी कम ही बने है. इसी दंगे और उससे जुड़े […]

उर्मिला कोरी

फिल्म का नाम: 31 अक्टूबर

निर्माता: हैरी सचदेवा

निर्देशक: शिवाजी लोटन पाटिल

स्टार कास्ट: वीर दास, सोहा अली खान, दीपराज राणा, लखविंदर सिंह, विनीत शर्मा और अन्य

रेटिंग: 2 स्टार

1984 के सिख विरोधी दंगे, बॉलीवुड फिल्मों में अब तक कहानी की अहम धुरी कम ही बने है. इसी दंगे और उससे जुड़े सिखों के दर्द को फिल्म ’31 अक्टूबर’ की कहानी कहती है. यह फिल्म इस बात को सामने लाती है कि 32 साल के बाद भी अब तक दोषी पकडे नहीं गए हैं. न्याय का इंतज़ार अभी तक उन्हें है. इसी न्याय का इंतज़ार देविंदर सिंह (वीर दास) को है हालाँकि उनकी पत्नी तेजिंदर (सोहा अली खान) ने मान लिया है कि उन्हें न्याय नहीं मिलेगा.

फिल्म की कहानी की बात करें तो दिल्ली के बैकड्रॉप पर सन 1984 के 31 अक्टूबर की कहानी है. जिस दिन भारत की पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीया इंदिरा गांधी की गोली मारकर उनके ही अंगरक्षकों ने हत्या कर दी थी. जिसके बाद हर तरफ सिख विरोधी दंगे भड़क गए थे. कई सिखों की तरह देविंदर सिंह (वीर दास) और उनका परिवार भी इन दंगो के बीच अपनी जान बचाने की जदोजहद में दिखता है. किस तरह से उन्मादी भीड़ को सिखों के खिलाफ भड़काने में राजनेताओं की अहम भूमिका थी.

पुलिस और प्रशासन इस नर संहार में उन्मादी भीड़ का ही साथ दे रही थी इन पक्षों के साथ साथ फिल्म में मानवता के पक्ष को भी उजागर किया है कि किस तरह से कुछ हिन्दू परिवारों ने अपने जान की बाज़ी लगाकर सिखों की जान बचायी थी लेकिन फिल्म विषय जितना गंभीर है उसका ट्रीटमेंट उतने ही सतही तौर पर किया गया है. जिससे उस रात के खौफ और भयावहता सामने नहीं आ पाती है.

दृश्यों के संयोजन में भी कमी नज़र आती है. एक भी दृश्य आपको झकझोरते नहीं है. बार-बार परदे पर एक जैसे ही दंगे के दृश्य नज़र आते हैं फिल्म के संवेदनशील विषय के साथ संवाद भी न्याय कर पाने में असफल है. फिल्म का गीत संगीत औसत है. बैकग्राउंड संगीत इस तरह के विषय वाली फिल्मों में एक अहम किरदार की तरह होते हैं लेकिन यह किरदार भी परदे पर अपनी छाप नहीं छोड़ पाया है.

अभिनय की बात करें तो सोहा ने अपने किरदार पर मेहनत ज़रूर की है लेकिन कमज़ोर कहानी उन्हें ज़्यादा मौके नहीं देती हैं वैसे वह पंजाबी बोली को पकड़ने में नाकामयाब रही हैं. वीर दास की बात करें तो उनकी गंभीरता परदे पर बनावटी सी लगती है. दीपराज राणा सहित बाकि किरदारों का काम औसत रहा है. कुलमिलाकर इस फिल्म का विषय जितना गंभीर था उसका ट्रीटमेंट उतना ही हल्के तौर पर किया गया है. जिससे यह फिल्म पूरी तरह से निराश करती है.

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