sooryagadha vidhaanasabha: इतिहास की किताबों में जब भी वीरता के पन्ने पलटते हैं, तो बिहार के लखीसराय जिले का सूर्यगढ़ा जरूर सामने आता है. यही वह धरती है, जहाँ 16वीं सदी में शेरशाह सूरी ने तलवार की धार से सत्ता का नक्शा बदल दिया था और 20वीं सदी में यही मिट्टी आज़ादी के रंग में रंगी थी.
यहाँ कभी घोड़ों की टापों से धरती कांपी, तो कभी ‘भारत छोड़ो’ के नारों से आसमान गूंज उठा. सूर्यगढ़ा सिर्फ एक जगह नहीं, बल्कि दो अलग-अलग युगों की क्रांति का मंच है—एक, जिसने साम्राज्यों की सीमाएं तय कीं, और दूसरा, जिसने गुलामी की जंजीरें तोड़ीं.
तलवार का इतिहास: सूरजगढ़ का युद्ध, 1534
साल था 1534. बिहार के सूरजगढ़ में हवा में धूल उड़ी हुई थी और मैदान में दो सेनाएं आमने-सामने थीं. एक तरफ थे सूझ-बूझ और रणनीति के धनी शेरशाह सूरी, दूसरी तरफ बिहार के लोहानी सरदार और बंगाल के सुल्तान महमूद शाह की संयुक्त सेना. यह सिर्फ एक युद्ध नहीं था, बल्कि सत्ता के भविष्य का फैसला करने वाला टकराव था.
शेरशाह के लिए यह निर्णायक क्षण था. वर्षों की तैयारी, राजनीतिक गठजोड़ और चतुराई—सब इस एक दिन पर टिकी थी. युद्ध शुरू हुआ, भाले टकराए, तलवारें चमकीं और ढालों पर चोटों की गूंज फैल गई।.अंततः जीत शेरशाह की हुई. इस विजय ने उन्हें बिहार का असली मालिक बना दिया.
यही सूरजगढ़ की जीत थी जिसने शेरशाह को मुगल साम्राज्य से लोहा लेने का आत्मविश्वास दिया. आगे चलकर 1539 में चौसा के युद्ध में उन्होंने हुमायूं को हराया और मुगलों को बंगाल से खदेड़ दिया. सूर्यगढ़ा का मैदान उनके सैन्य जीवन का शुरुआती मंच था, जहाँ से उनकी साम्राज्य यात्रा शुरू हुई.
नारों का इतिहास: सूर्यगढ़ा और 1942 की क्रांति
सदियां बीत गईं. तलवारों की जगह अब आज़ादी के नारे और अंग्रेजी हुकूमत से टकराने का जोश था. 1942 का साल आते-आते भारत ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की आग में जल रहा था. गांधी जी की गिरफ्तारी ने पूरे देश को आंदोलित कर दिया.
सूर्यगढ़ा भी पीछे नहीं था. कांग्रेस कार्यालय में क्रांतिकारियों की बैठक हुई और फैसला लिया गया—अब सीधी टक्कर होगी. 13 अगस्त 1942 को रूपकांत शास्त्री और तिलकधारी चौधरी के नेतृत्व में भीड़ ने थाना और सरकारी दफ्तरों पर कब्जा कर तिरंगा फहरा दिया. यह सिर्फ प्रतीकात्मक जीत नहीं थी, यह अंग्रेजों की आंख में आंख डालकर चुनौती थी.
खून और बलिदान की कहानी
अंग्रेज सरकार बौखला गई. 18 अगस्त को खेत में काम कर रहे कुशेश्वर धानुक को गोली मार दी गई. 21 अगस्त को गोरों ने बेनी सिंह की हत्या कर दी. 26 अगस्त को अंग्रेज अफसरों और सैनिकों की पूरी पलटन सूर्यगढ़ा में उतरी, कांग्रेस कार्यालय पर हमला हुआ और तिलकधारी चौधरी को बेरहमी से पीटकर हिरासत में ले लिया गया.
29 अगस्त का दिन सूर्यगढ़ा के लिए अमर हो गया. कांग्रेस कार्यालय में हो रही सभा पर डीएसपी के आदेश पर गोलियां चलाई गईं. सलेमपुर के 14 वर्षीय कार्यानंद मिश्र और निस्ता के डोमन गोप वहीं शहीद हो गए. सलेमपुर के रामकिशुन सिंह घायल होकर जीवनभर के लिए अपंग हो गए/
इतिहास की अनसुनी पुकार
आज सूर्यगढ़ा के सरकारी अस्पताल में एक अधूरा शिलालेख गवाही देता है कि यहाँ के नौजवानों ने अपनी जान की बाज़ी लगाई थी. मगर उनके नाम, उनकी कहानियां और उनके बलिदान की गूंज सरकारी फाइलों में कहीं खो गई है. वर्षों से नए शिलालेख की मांग हो रही है, लेकिन जवाब सिर्फ खामोशी है.
तलवार से तिरंगे तक का सफर
सूर्यगढ़ा की कहानी अनोखी है. एक ओर यह मैदान है जहाँ शेरशाह सूरी ने अपनी तलवार से सत्ता का नक्शा बदल दिया और दूसरी ओर वही जमीन है जहाँ आज़ादी के परवानों ने अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी. यहाँ की मिट्टी में तलवार की गूंज भी है और आज़ादी के गीतों की गूंज भी
इतिहास के पन्नों पर सूर्यगढ़ा सिर्फ एक भौगोलिक स्थान नहीं है, यह संघर्ष का प्रतीक है—सत्ता के लिए और स्वतंत्रता के लिए. चाहे वह 1534 का सूरजगढ़ का युद्ध हो या 1942 की अगस्त क्रांति, इस धरती ने हर बार यह साबित किया है कि जब समय आता है, तो इसके लोग खामोश नहीं रहते.
नोट: चुनाव आयोग के रिकॉर्ड में इस क्षेत्र का नाम ‘सूर्यगढ़ा’ दर्ज है, जबकि बिहार सरकार के दस्तावेज़ों में इसे ‘सूरजगढ़’ कहा गया है. चूंकि यह एक निर्वाचन क्षेत्र की प्रोफाइल है, अतः हम चुनाव आयोग की वर्तनी ‘सूर्यगढ़ा’ का ही प्रयोग कर रहे हैं.

