Bihar: साल 1977 का चुनाव जयप्रकाश नारायण (जेपी) के लिए संघर्ष का मोर्चा था. उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की चुनाव की चुनौती स्वीकार की थी. जेपी की बिहार में पहली चुनावी सभा दो फरवरी, 1977 को मुजफ्फरपुर में हुई. विशाल जनसमूह और जेपी बोलने वाले. अपने डेढ़ घंटे के भाषण में जेपी यही समझाते रहे कि यह साधारण चुनाव नहीं है. तानाशाही और लोकशाही के बीच की लड़ाई है. सभा खत्म हुई, लोग चलने लगे. लोगों ने कहा, इस बार जब जनता खुद खड़ी हो गयी है, तो क्या सोचना है कि किसे वोट देना है.
जानिए पूरा वाक्या
जेपी को शाम को पटना लौटना था. हम कई लोग, जो उनके साथ थे, हम सब आपस में यह बात कर रहे थे कि जेपी ने अपने लंबे भाषण में न गरीबी की चर्चा की, न बेरोजगारी की चर्चा की. न ही किसी दूसरी समस्या की. गंगा के किनारे पहुंच कर स्टीमर की प्रतीक्षा में जब जेपी एक झोंपड़ी में चाय पीने के लिए बैठे, तो हमलोगों ने अपने मन की बात जेपी के सामने रखी. उन्होंने जवाब दिया, नहीं. यह समय कोई दूसरा सवाल उठाने का नहीं है.
लोकशाही का सवाल सर्वोपरि है. लोकशाही से ही दूसरी समस्याओं का हल ढूंढ़ने की शक्ति बन सकती है. जेपी ने कहा, आप लोग काम तो करते हैं, लेकिन हाथ जनता की नब्ज पर नहीं रखते. बात समझ में आ गयी. जब चुनाव का नतीजा सामने आया, तो जेपी सही साबित हुए. पूरे चुनाव में जेपी जहां भी जाते लोकशाही व तानाशाही की ही बात समझाते. हमलोगों ने देखा कि जेपी की बात सीधे लोगों के मन में प्रवेश कर जाती थी.
20 मार्च, 1977 को मतदान का दिन था. सुबह पांच बजे वह उठे, ताकि मतदान केंद्र खुलते ही वह वोट दे सकें. उसी दिन शाम को मतगणना की प्रक्रिया शुरू हुई. रात को नौ बजे दिल्ली से फोन आया कि मतदान के रुझान से संकेत मिले हैं कि रायबरेली में इंदिरा गांधी और अमेठी में संजय गांधी पीछे चल रहे हैं. यह खबर सुन कर जेपी ने कहा, वह इसी की पात्र थीं. चुनाव पूरा हुआ.
उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया हो चुका था, लेकिन दक्षिण में जनता पार्टी को इतनी सफलता नहीं मिली थी, जितनी अपेक्षा की गयी थी. कारण, जेपी बीमारी के कारण कम जगहों पर जा सके थे और आंदोलन का प्रभाव भी दक्षिण भारत में उतना नहीं था, जितना कि उत्तर भारत में था. 23 मार्च को जेपी दिल्ली गये. नये सांसदों ने दिल्ली में गांधी समाधि पर शपथ ली. कौन प्रधानमंत्री हो, इस बात का निर्णय जेपी और जेबी कृपलानी पर छोड़ दिया गया. उन्होंने मोरारजी भाई देसाई के पक्ष में निर्णय लिया. सारे कार्यों से वक्त निकाल कर जेपी इंदिरा गांधी से भी मिले. इसके बाद जेपी पटना लौट आये.
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