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इमरान मुखौटा, बयान की नहीं कोई अहमियत

अजय साहनी रक्षा विशेषज्ञ पाकिस्तान शुरू से ही यह कहता आ रहा है कि वह खुद आतंकवाद का शिकार है. लेकिन, पाकिस्तान की इस बात पर कोई एतबार करने को तैयार नहीं है, क्योंकि पूरी दुनिया ने देख लिया है कि पाकिस्तान की तरफ से किस हद तक आतंकवाद को समर्थन मिलता रहा है. इसलिए […]

अजय साहनी

रक्षा विशेषज्ञ

पाकिस्तान शुरू से ही यह कहता आ रहा है कि वह खुद आतंकवाद का शिकार है. लेकिन, पाकिस्तान की इस बात पर कोई एतबार करने को तैयार नहीं है, क्योंकि पूरी दुनिया ने देख लिया है कि पाकिस्तान की तरफ से किस हद तक आतंकवाद को समर्थन मिलता रहा है. इसलिए मैं समझता हूं कि ऐसे बयानों से कोई फर्क नहीं पड़ता है, जब तक आतंकवाद पर कोई ठोस कार्रवाई न हो.
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान जो कह रहे हैं, उसको कोई अहमियत नहीं देनी चाहिए. इमरान खान के पास कोई ताकत नहीं है, वह एक मुखौटा मात्र हैं. पाकिस्तान की सरकार को वहां की सेना चलाती है. लोगों की यह गलतफहमी है कि अमेरिका का वहां की सरकार में दखल है. अमेरिका उसको पैसा भले देता है, लेकिन वह वहां कुछ नहीं कर सकता.
अफगानिस्तान में अमेरिका ने सालों तक एड़ी-चोटी का जोर लगाये रहा कि तालिबान को खत्म कर दिया जाये, लेकिन वहां पर अपने सैनिक गंवाने के अलावा अमेरिका को कुछ भी हासिल नहीं हुआ. जाहिर है, अफगानिस्तान में अमेरिका की कोशिशों पर हमेशा पाकिस्तान कुंडली मारकर बैठ जाता है, इसलिए अमेरिका को कुछ भी हासिल नहीं होता.
अमेरिका दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जो यह बर्दाश्त नहीं करता कि उसका एक भी आदमी मरे, जबकि दुनियाभर में हजारों-लाखों को मरवा देने में अमेरिका जरा भी नहीं हिचकता. अगर अमेरिका सचमुच पाकिस्तान की सरकार में दखल रखता, तो पाकिस्तान में आज एक भी आतंकी जिंदा नहीं रहता.
पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आया कभी. वह यही चाहता रहा है कि उसकी हकरतें बरकरार रहें और दुनिया उसको पैसा देती रहे. मजे की बात यह है कि दुनिया के कई देशों से उसको यह सब करने के लिए पैसे भी मिलते रहे हैं.
पाकिस्तान एक तरह से ब्लैकमेल भी करता रहा है कि अगर उसे पैसा नहीं मिलेगा, तो वह अफगानिस्तान में हालात सुधरने नहीं देगा. दुनिया मदद करेगी तो वह तालिबान से बात करा देगा, लेकिन तालिबान पर उसका कोई अंकुश नहीं होगा.
यही उसका दोहरा रवैया है. वह तालिबान को शह भी देता है और यह भी कहता है कि उस पर उसका अंकुश नहीं है. इसलिए दुनिया को इसका कोई हल नहीं मिल रहा है. और सीधी बात यह भी है कि दुनिया में उसके खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत भी नहीं है. क्योंकि, कोई भी देश यह जोखिम नहीं उठाना चाहता है.
इमरान खान ने आतंकवाद के प्रशिक्षण के लिए कश्मीर और अफगानिस्तान पर जो दोष मढ़ा है, वह निहायत ही गलत और बेबुनियाद आरोप है. इमरान पाकिस्तान की गलती को इन दो जगहाें पर डाल रहे हैं.
इन दोनों जगहों की समस्या का मूल कारण पाकिस्तान है. अफगानिस्तान में हजारों निर्दोष लोग मार दिये गये, जबकि वहां अफगानिस्तान की समस्या ही नहीं थी. समस्या तो पाकिस्तान में थी, लेकिन अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपने सैनिक भेज दिये. अफगानिस्तान के मसले का हल निकालने के लिए पहले पाकिस्तान का हल निकालना पड़ेगा.
अफगानिस्तान में तालिबान तो पूरी तरह से पाकिस्तानी समर्थन की बुनियाद पर टिका हुआ है. तो फिर यह अफगानिस्तान का मसला कैसे हुआ? ठीक इसी तरह से कश्मीर की समस्या कश्मीर में नहीं है, उसकी समस्या पाकिस्तान है. कश्मीर से पाकिस्तान निकल जाये तो यह मुद्दा तुरंत खत्म हो जायेगा.
मुंबई हमला हो, उरी हो या पठानकोट हो, न तो इमरान के बयान से ये रुकेंगे, न ही भारत के किसी नेता के बयान से. ये सब सैन्य क्षमता और राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही रुकेंगे. हमारी क्षमता बस इतनी ही रह गयी है कि हम कश्मीर में ही जवाब दे सकते हैं, सरहद पार नहीं कर सकते.
बालाकोट में हमने जो किया उसकी प्रतिक्रिया भी वहां से आ गयी, क्या कर लिया हमने? एक सीधी सी बात है, जब किसी के पास हार-जीत की क्षमता नहीं होती, तो वह बयानबाजी से काम चलाता है. इस मामले में पाकिस्तान से कुछ कम हम भी नहीं हैं.
इसलिए इमरान के बयान का कोई अर्थ नहीं है. अगर भारत यह सोचता है कि पाकिस्तान उससे डरता है, तो यह भारत की गलतफहमी भी हो सकती है. क्योंकि पाकिस्तान तो अमेरिका से भी नहीं डरता. इसलिए अमेरिका को कोई फर्क नहीं पड़ता कि कश्मीर मसला हल हो या न हो. हमारे पास सिवाय बयानबाजी के रक्षा क्षेत्र को लेकर जब कोई तैयारी ही नहीं है, तब हम क्या किसी से लड़ेंगे.
हमारी संसद में हुई चर्चा को जरा देख लीजिये, आतंकवाद को लेकर जो भी बात कही गयी है, उसका क्या असर होगा? उसका यही होगा कि मुझे किसी से खुंदक है, तो मैं उसको पकड़ कर आतंकवादी घोषित करके जेल में डाल दूंगा. इसके अलावा आतंकवाद से लड़ने की हमने कोई क्षमता विकसित नहीं की है, जिससे कि देश में धार्मिक उन्माद भी न बढ़े और आतंकवाद भी खत्म हो जाये. क्या हमारे नेताओं में ऐसी राजनीतिक इच्छाशक्ति है?

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