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नागपुरी साहित्य में आधुनिक चेतना प्रवाहक राधाकृष्ण

नागपुरी साहित्य में आधुनिक चेतना प्रवाहक राधाकृष्ण कोरनेलियुस मिंज झारखंड में कहावत प्रचलित है कि चलना ही नृत्य है और बोलना ही गीत है. कुड़ुख में ‘एकनादिम तोकना अरा बअनादिम पाड़ना’, मुंडारी में ‘सेनगे सुसुन काजीगे दुरंग’ और नागपुरी में ‘चलकेहें नाच आउर बोलकेहें गीत’. इस नारा को सर्वप्रथम वर्ष 1954 में राधाकृष्ण ने जनजातियों […]

नागपुरी साहित्य में आधुनिक चेतना प्रवाहक राधाकृष्ण

कोरनेलियुस मिंज

झारखंड में कहावत प्रचलित है कि चलना ही नृत्य है और बोलना ही गीत है. कुड़ुख में ‘एकनादिम तोकना अरा बअनादिम पाड़ना’, मुंडारी में ‘सेनगे सुसुन काजीगे दुरंग’ और नागपुरी में ‘चलकेहें नाच आउर बोलकेहें गीत’. इस नारा को सर्वप्रथम वर्ष 1954 में राधाकृष्ण ने जनजातियों के संदर्भ में दिया था. उन्होंने कहा था- ‘चलना ही नृत्य और बोलना ही गीत है’.

राधाकृष्ण को कथाकार, व्यंग्यकार, उपन्यासकार, बालोपयोगी रचनाकार, नाटक, रेडियो नाटक, प्रहसन, संस्मरण और संपादन के लिए जाना जाता है. झारखंडी साहित्य और संस्कृति के अच्छे जानकार थे. वे आजीवन नागपुरी की सेवा के लिए तत्पर रहे. राधाकृष्ण के कारण ही रांची और गुमला को साहित्यकारों का तीर्थस्थल के रूप में जाना जाता रहा. राधाकृष्ण का जन्म 18 अक्टूबर 1910 को रांची अपर बाजार के गोपालगंज में हुआ था.

उनका परिवार काफी संपन्न था. जब वे महज छह वर्ष के थे उसी समय 1916 में ही उनके पिताजी रामजतन लाल का निधन हो गया. वे अपनी मां सूर्यकुंवर के साथ गुमला चले गये और उनका बचपन वहीं बीता. उनके पिताजी की मृत्यु के बाद उनका परिवार बिखर गया. गुमला में रहने के कारण वे नागपुरी संस्कृति के बीच पले-बढ़े और सदानी संस्कृति को ग्रहण भी किया. कुछ समय बाद वे पढ़ाई करने के लिए रांची आ गये. पढ़ाई के दौरान ही वर्ष 1920 में असहयोग आंदोलन से जुड़ गये.

आजीविका के लिए तत्कालीन छोटानागपुर पत्रिका में वर्ष 1925 से लेखन कार्य में जुड़े. राधाकृष्ण एवं उनके सहयोगियों ने मिलकर वर्ष 1934 में ही गुमला मेंं साहित्य आश्रम की स्थापना की. इस काम में उनके मित्र पंडित अयता उरांव और बड़ाइक ईश्वरी प्रसाद सिंह ने उनका सहयोग किया. यह इस आश्रम ने हिंदी के साथ-साथ छोटानागपुुर की अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की साहित्य सृजन के लिए प्रोत्साहित किया. आश्रम के मंच से छोटानागपुर में पहली बार वर्ष 1934 मेें जनजातीय एवं क्षेेत्रीय भाषाओं का कवि सम्मेलन गुमला में कराया था. नागपुरी नाटक का मंंचन भी प्रारंंभ किया गया.

नागपुरी में आधुनिक भाव बोध लाने का श्रेय राधाकृष्ण को ही जाता है. उन्होंने आधुनिक भाव-बोध की नागपुरी साहित्य रचना को जन्म दिया. इसके पहले नागपुरी में शृंगार गीत और कविता की प्रधानता थी. इसी को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से राधाकृष्ण ने बड़ाइक ईश्वरी प्रसाद सिंह के साथ मिलकर गुमला से वर्ष 1938 में ‘झारखंड’ पत्रिका की शुरूआत की.

वर्ष 1947 में बिहार सरकार की मुखपत्रिका बिहार समाचार की जिम्मेवारी राधाकृष्ण को दी गयी थी. लेकिन वे पटना में नहीं रहना चाहते थे. वे रांची में ही रहकर जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के लिए काम करना चाहते थे. सरकार ने ठेबले उरांव को राधाकृष्ण को समझाने के लिए भेजा. इस पर राधाकृष्ण ने ठेबले उरांव के समक्ष आदिवासी पत्रिका नाम से एक पत्रिका निकालने का सुझाव दिया.

इसे मान लिया गया और तीन फरवरी 1947 से ‘आदिवासी’ पत्रिका निकाला जाने लगा. इसका संपादक राधाकृष्ण को बनाया गया. पत्रिका के प्रारंभ के तीन अंक विशुद्ध नागपुरी भाषा में निकले. इसके माध्यम से जनजातियों के समृद्ध मौखिक साहित्य को लिपिबद्ध किया जाने लगा. आदिवासी पत्रिका निकलने के साथ ही प्रचलित रीझरंग और गीत नृत्य की परंपरा से लोग आधुनिक रचना की ओर लोग उन्मुख हुए. उन्होेंने पत्रिका के माध्यम से जनजातीय एवं क्षेत्रीय रचनाकारों की चार-पांच पीढ़ी तैयार कर दी.

इनमें डॉ विसेश्वर प्रसाद केशरी, सहनी उपेंद्र पाल नहन और डॉ रामदयाल मुंडा आदि प्रमुख हैं. राधाकृष्ण 1970 तक आदिवासी पत्रिका के संपादक रहे. उन्होंने 1962 में ईसा मसीह की जीवनी को नागपुरी में ‘ईसू कर जीवनी’ के नाम सेे लिखा जो अपूर्ण है. आदिवासी पत्रिका में अशिक्षितों की रचनाएं भी प्रकाशित होती थी, जिसे शिक्षक पढ़कर सुनाया करते थे.

राधाकृष्ण के प्रयास से ही 1960-1961 में रांची विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में छोटानागपुर की स्थानीय भाषा के अध्ययन की व्यवस्था की गयी. मगर अफसोस इस बात का है, झारखंडी संस्कृति के आचार्य राधाकृष्ण को अब यह समाज याद नहीं करता. उन्होंने आदिवासी पत्रिका के माध्यम से झारखंडी साहित्य के लिए जो किया, वह अविस्मरणीय है.

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