अनुज कुमार सिन्हा
14 अगस्त, 1984 का दिन. यह वह दिन है जिस दिन प्रभात खबर का प्रकाशन रांची से आरंभ हुआ था. 34 साल देखते-देखते बीत गये. तब झारखंड न ताे राज्य बना था आैर न ही रांची इतना बड़ा शहर था. 34 सालाें में बहुत बदलाव दिखा. सिर्फ रांची से निकलनेवाला प्रभात खबर इन 34 सालाें में रांची के बाहर जमशेदपुर, धनबाद, देवघर, पटना, भागलपुर, मुजफ्फपुर, गया, काेलकाता आैर सिलिगुड़ी से भी निकलने लगा यानी देश के तीन राज्याें से.
देश के शीर्ष 10 अखबाराें में शामिल हाेने का गर्व भी प्रभात खबर काे मिला. लेकिन इसी दाैरान रांची हाे, झारखंड हाे या देश हाे, पत्रकारिता तेज से बदलती गयी.
एक वह दाैर था जब रांची आैर आसपास के पाठकाें काे पटना से छप कर आनेवाले अखबार प्रदीप, सर्चलाइट, आर्यावर्त आैर इंडियन नेशन का इंतजार रहता था. दक्षिण बिहार के पाठकाें काे ये अखबार काफी विलंब से मिलते थे. खबरें बासी (पुरानी) हाेती थी. स्थानीय खबराें की संख्या बहुत कम हाेती थी. पटना से आनेवाले अखबाराें में इस क्षेत्र की खबराें काे प्रमुखता भी नहीं दी जाती थी. तब के अखबार आठ या बहुत हुआ ताे दस पेज के हाेते थे. ब्लैक एंड व्हाइट. कलर का जमाना नहीं था.फाेटाे भी साफ-साफ नहीं हाेते थे. इसके बावजूद पाठक बड़ी बेसब्री से उन अखबाराें का इंतजार करते थे. ऐसा इसलिए क्याेंकि पाठकाें के पास उन दिनाें अखबार के अलावा सिर्फ रेडियाेे ही समाचार का स्त्राेत हुआ करता था. तब टेलीविजन का जमाना नहीं आया था.
इस क्षेत्र में टेलीविजन का विस्तार ताे 1984 से हुआ. साेशल साइट्स, इंटरनेट ताे सपना था. अखबाराें की संख्या कम हाेती थी. सर्कुलेशन भी कम हाेता था. हॉकराें की संख्या भी कम ही हाेती थी. इसके बावजूद उन दिनाें पाठक आैर हॉकर के बीच एक अटूट संबंध दिखता था. दाेनाें एक दूसरे की समस्या काे समझते थे. अखबार में लिखे एक-एक शब्द का महत्व हाेता था.
अखबार में छपी खबराें काे ब्रह्म वाक्य मान लिया जाता था. प्रशासन हाे या सरकार, अखबाराें में छपी खबराें पर संज्ञान लेते थे. खबर की बात ताे छाेड़ दीजिए, संपादक के नाम पत्र में अगर कुछ छपा ताे उस पर भी सरकार ध्यान देती थी, प्रशासन ध्यान देता था. ऐसा इसलिए क्याेंकि जाे खबरें छपती थीं, उन्हें ठाेक-बजा कर छापा जाता था. जांच-परख कर छापा जाता था. साख सबसे बड़ी पूंजी रही है. अब ये सब दांव पर लग गये हैं.
समय बदल चुका है. एक-एक बड़े शहर से सात-आठ या उससे भी ज्यादा दैनिक अखबार निकल रहे हैं. स्वरूप भी बदल चुका है. अाठ पेज की जगह 24-28 पेज के कलर अखबार निकल रहे हैं. अब नयी दिल्ली के अखबार सुबह में रांची में मिल जाते हैं. तकनीक पूरे ताैर पर बदल चुकी है. अखबार लाेगाें के हाथ में पहुंचे, उसके पहले माेबाइल पर पाठक पूरा अखबार देख लेते हैं,पढ़ लेते हैं. उन्हें विकल्प मिल चुकी है.
खबरें ताे उन्हें तुरंत टेलीविजन आैर माेबाइल से मिलते रहती है. यानी अब पाठकाें काे खबराें के लिए दूसरे दिन सुबह का इंतजार नहीं करना पड़ता है. अखबाराें के लिए सबसे बड़ी चुनाैती यही है कि कैसे पाठकाें काे बांध कर रखा जाये.
इन बदलावाें आैर समाचार के कई विकल्प (स्त्राेत) रहने के बावजूद भारत में हिंदी या भाषाई अखबाराें का अभी तक वजूद बना हुआ है. उसका बड़ा कारण है विश्वास (ट्रस्ट), साख. साेशल साइट्स पर उड़नेवाली गलत खबराें ने प्रिंट के प्रति पाठकाें का भराेसा बढ़ाया है. लेकिन इसी भराेसा काे बनाये रखने की सबसे बड़ी चुनाैती अखबाराें के समक्ष है.
इसी पर खतरा मंडरा रहा है. पूरी मीडिया इंडस्ट्री के समक्ष साख का संकट है. कई आैर परेशानियां हैं, खास कर अखबाराें के समक्ष. बाजार ने खबराें की चयन प्रक्रिया काे प्रभावित कर दिया है. एक दाैर था जब पाठकाें के पास सिर्फ अखबार ही (कभी-कभी रेडियाे) सूचना का स्त्राेत था. खबरें अगर गलत भी हाेती थीं, ताे पाठकाें काे गलत खबर का पता नहीं चल पाता था. अब साेशल साइट्स का जमाना है.
एक गलत खबर छपी कि पाठक छाेड़नेवाले नहीं. खबराें काे ताेड़-मराेड़ कर पेश किया गया या खबरें किसी कारणवश नहीं छप पायी ताे पाठक साेशल साइट्स (ट्यूटर, व्हाट्सएप आदि) के जरिए बखिया उधेड़ देते हैं. ऐसे में अखबाराें पर दबाव बढ़ता जा रहा है.
अखबार उद्याेग कई गंभीर संकट से गुजर रहा है. एक ताे प्रिंट काे इलेक्ट्रॉनिक-माेबाइल आैर साेशल साइट्स से चुनाैतियां मिल रही हैं, दूसरी आेर अखबाराें पर सरकाराें आैर बाजार (अब ताे प्रभावशाली गुट का भी) का दबाव बढ़ता जा रहा है. अखबार की अर्थव्यवस्था काे समझनेवाले यह जानते हैं कि अखबार वह उत्पाद है जिसकाे बनाने में जितना खर्च आता है, उससे कम दाम पर बिकता है. 20 पेज के अखबार काे तैयार करने में कम से कम आठ रूपये खर्च हाेते हैं. वह अखबार चार-पांच रूपये में (कभी-कभी ताे तीन-साढ़े तीन रुपये में भी) पाठकाें काे मिलता है.
एजेंट आैर हॉकर्स काे कमीशन देने के बाद किसी भी अखबार इंडस्ट्री काे हर अखबार पर पांच से छह रूपये का नुकसान हाेता है. इसकी भरपाई अखबार काे मिलनेवाले विज्ञापन से हाेती है. सारा खेल इसी विज्ञापन का हाेता है.अब अखबाराें के विज्ञापन का बड़ा हिस्सा सरकारी विज्ञापनाें का हाेता है. किसी-किसी राज्य में 30 से 40 फीसदी तक. अखबार बगैर सरकारी विज्ञापन के चल नहीं सकता आैर जब सरकार विज्ञापन देती है ताे घाेषित-अघाेषित तरीके से दबाव बनाती है. (कुछ राज्य अपवाद हाे सकते हैं). यहीं पर अखबाराें काे समझाैता करना पड़ता है आैर यहीं से आरंभ हाेता है साख का संकट.
सिर्फ सरकारी विज्ञापन ही क्याें, बड़े कॉरपाेरेट घरानाें से जाे विज्ञापन अखबाराें काे मिलता है, उसका भी दबाव दिखता है. ऐसे विज्ञापन जितने अधिक हाेंगे, अखबाराें काे उतना ज्यादा समझाैता करना पड़ता है. इसका असर अखबार पर पड़ता है. पाठक भी इस बात काे महसूस करते हैं. समझते हैं. जितनी तेजी से ऐसी खबराें की संख्या बढ़ती जाती है, अखबार की निष्पक्षता उतनी तेजी से प्रभावित हाेती है. पाठकाें का भराेसा उसी तरीके घटता है.
अखबार क्या करे? अखबार चलाने के लिए सरकारी विज्ञापन हर हाल में चाहिए. सरकार शर्त लगायेगी ही. मानें ताे सब ठीक, नहीं माने ताे विज्ञापन कम हाेगा या बंद हाेगा. मानें ताे पाठकाें के साथ धाेखा, नहीं मानें ताे सरकार की नाराजगी का असर. देश में अभी यही दाैर चल रहा है. ऐसी बात नहीं कि यह हाल में हुआ है. पहले भी हाेता रहा है.
आज भी हाे रहा है आैर आगे भी हाेता रहेगा. जाे भी सत्ता में हाेगा, वह इसी हथियार (.. जरा टाइट कराे) का इस्तेमाल करेगा,चाहे सरकार किसी भी दल की क्याें न हाे. अब ताे नया-नया दबाव भी अाने लगा है. छापे ताे वे नाराज, नहीं छापे ताे वे नाराज. यहां बात सत्ता आैर विपक्ष की नहीं बल्कि पाठकाें के समूह की बात हाे रही है.
खबरें सही है या नहीं, इस पर बहस नहीं हाेती. कभी सत्ता पक्ष का ज्यादा छपा ताे विपक्ष नाराज आैर कभी विपक्ष का छपा ताे सत्ता पक्ष नाराज. दाेनाें काे शिकायत. अखबार काे अपना काम करने दीजिए. बेवजह दबाव बनाने से आम पाठकाें काे निष्पक्ष खबर देने के काम में असर पड़ेगा ही. सभी काे खुश रखने के चक्कर में अखबार की साख पर बट्टा लगेगा.
ताे रास्ते क्या हैं? अखबाराें काे खबराें के लिए जाना जाता है. हां, खबराें में पक्षपात नहीं हाे. अखबार निष्पक्ष रहे. पाठकाें काे खबर जानने का अधिकार है (राष्ट्रीय हित के मामले अलग हैं). इसलिए अगर तेवर वाला अखबार चाहिए ताे मीडिया इंडस्ट्री काे वैकल्पिक मॉडल तलाशना चाहिए.
पाठकाें काे भी तैयार रहना चाहिए. दाे-तीन रुपये में अखबार खाेजेंगे (साथ में गिफ्ट भी), ताे इसका खामियाजा भी पाठकाें काे भुगतना पड़ेगा. अखबार तभी निष्पक्ष (यहां पूरे देश की बात हाे रही है) रह पायेगा या चल पायेगा, जब उसकी निर्भरता सरकारी विज्ञापनाें पर कम से कम हाे. यानी अखबार लागत से अधिक दाम पर बिके. यह काम अब आसान नहीं हाेगा. दूसरे देश इसके उदाहरण हैं. पाकिस्तान में पांच रूपये से 15 रूपये तक में अखबार बिकते हैं. बांग्लादेश में आठ से 10, श्रीलंका में दस रूपये, अमेरिका में 65 से 150 रुपये तक में अखबार बिकते हैं. इसलिए उन देशाें में मामला लागत का नहीं है. भारत में मामला लागत का है.
दूसरा बड़ा संकट है न्यूज प्रिंट का दाम बढ़ना. पिछले एक साल में न्यूज प्रिंट के दामाें में 75 फीसदी की बढ़ाेत्तरी हुई है. लेकिन अखबार का दाम नहीं के बराबर बढ़ा. एेसा इसलिए हुअा क्याेंकि चीन की नीति बदली है. अब वह रिसाइकिल्ड पेपर का प्रयाेग नहीं कर रहा है.
इससे अखबार की लागत बढ़ी है जिससे विज्ञापन पर निर्भरता भी बढ़ी है. अखबाराें के दाम उस अनुपात में नहीं बढ़ रहे हैं. पाठकाें के पास माेबाइल न्यूज एक विकल्प भी है. इतनी परेशानियाें के बावजूद हिंदी आैर भाषाई अखबाराें का सर्कुलेशन बढ़ा है, जाे उम्मीद की एक किरण है. लेकिन यहां पाठकाें काे यह भी जानना चाहिए कि अगर उसी अनुपात में विज्ञापन नहीं बढ़ा ताे जितना अखबार बढ़ेगा,घाटा उतना ही बढ़ेगा. अखबार उद्याेग के सामने अब नया संकट आया है.
वह है हॉकर्स का इस पेशे से दूर हाेना. जमाना महंगाई का है. अखबार का दाम नहीं बढ़ रहा (इसके कारण गिनाये जा चुके हैं), इसके कारण हॉकर्स का कमीशन नहीं बढ़ रहा. उनकी अपनी मजबूरी है आैर उन्हें लग रहा है कि अखबार बांटने के धंधे से उनका जीवन नहीं चलनेवाला. वे अखबार बांटना छाेड़ कर दूसरा पेशा अपना रहे हैं. यह बहुत बड़ा संकट है. अखबार प्रबंधन आैर पाठक के बीच में हॉकर्स ही वह कड़ी है जाे दाेनाें काे जाेड़ता है. अगर हॉकर्स ही नहीं रहेंगे ताे अखबाराें काे काैन पाठकाें तक पहुंचायेगा. ये समस्या किसी एक अखबार या किसी एक राज्य की नहीं है.
पूरे देश में हालात लगभग एक सा है. चिंता की बात यह है कि इतने बड़े संकट काे सुलझाने के लिए काेई संयुक्त प्रयास नहीं हाे रहा है. माना कि काम आसान नहीं है लेकिन इसके पहले कि संकट आैर गहराये, इसका निदान खाेजा जाना चाहिए.
इतनी बहस के बीच यह ताे कहा ही जा सकता है कि वही अखबार भविष्ट में टिक पायेगा जाे बेहतर कंटेंट देगा, जिस पर पाठकाें काे भराेसा हाेगा, जिसकी साख अच्छी रहेगी आैर जिसे खरीदने के लिए पाठक कुछ ज्यादा पैसा देने काे भी तैयार रहेंगे ताकि अखबार दबाव मुक्त हाे कर बगैर काेई समझाैता किये पाठकाें तक पहुंचता रहे. साख ही वह ताकत है जिसके बल पर अखबार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (कुछ अपवाद) आैर साेशल साइट्स पर भारी पड़ते हैं. साख ही अखबाराें काे बचाये रख सकती है आैर अब उसी साख काे मिटाने के लिए तैयारी चल रही है.
अगर अखबार इन दबावाें से मुक्त नहीं हो पायेगा ताे जनहित की पत्रकारिता खत्म हाे जायेगी. उन बेजुबानाें की आवाज अखबाराें में नहीं दिखेगी, जिसे सबसे ज्यादा मीडिया की जरूरत है.