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जीवन से दूर होते रस-रंग में स्वयं की खोज

इस नवयुग में व्यक्ति समय के साथ तेजी से बढ़ता जा रहा है. कहां जा रहा है? दिशा क्या है? कुछ पता नहीं. बस सब बहने में मशगूल हैं. निर्मल वर्मा अपने उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ में लिखते हैं- थोड़ा पीछे हटकर देखें, कुछ वैसे ही जैसे हम थोड़ा-सा पीछे हटकर किसी पेंटिंग को देखते हैं. […]

इस नवयुग में व्यक्ति समय के साथ तेजी से बढ़ता जा रहा है. कहां जा रहा है? दिशा क्या है? कुछ पता नहीं. बस सब बहने में मशगूल हैं. निर्मल वर्मा अपने उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ में लिखते हैं- थोड़ा पीछे हटकर देखें, कुछ वैसे ही जैसे हम थोड़ा-सा पीछे हटकर किसी पेंटिंग को देखते हैं. हमें लगेगा कि हम कितना गलत हैं. हम सुनने की कोशिश करें, देखने प्रयास करें. केवल चलते न जाएं, लेकिन हम चलते जा रहे हैं.

यह एक दुश्चक्र या मायाजाल है,
जिसमें अपनी इच्छा की पूर्ति, इसके लिए द्वंद्व, भागमभाग और अपनी दुनिया में मस्त रहना ही जीवन का लक्ष्य बनता जा रहा है. जीवन से दूर जाते बहुत-सी बातें बस अब स्मरण में रह गयी हैं. पंगत में बैठकर निवालों को तोड़ना. मां, चाची और दादी का और लेने का आग्रह बीते दिनों की बात हो गयी. अब बुफे के दौर में खाने की पूरी सामग्री टेबुल पर जा सजी है. बैठकर खाते थे, तो कम खाते थे. खड़ा होकर खाने पर पेट में अन्न ज्यादा जाता है. साथ ही रोग भी आता है.
आज स्मरण करता हूं कि वह पंगत कहां, जो रिश्तों को जोड़ते थे. खाने के आमंत्रण के लिए गांव का हजाम घर-घर में अज्ञया और खाना तैयार होने पर विजया का संदेश देता था. वो दादी कहां? जब उसकी लाठी के साथ गांव का चक्कर लगाते थे. सोते वक्त बुझवलों, लोकोक्तियों, कहानियां एवं कहावतों की शृंखला शुरू हो जाती थी. आज भी दादी और नानी तथा कहानी है. लेकिन उनकी जगह टीवी आ गया और कहानी की जगह धारावाहिक ने ले ली. अब सोने के बाद आंख खुलती है, तो बच्चों को स्कूल पहुंचाने की जल्दी रहती है. हम आंख मिचते चौराहे पर होते हैं. तब पहली नींद खुलती थी, तो मां की आरती के स्वर कान में पड़ते थे. घर ही पहला पाठशाला होता था. तब संस्कार और संस्कृति की पाठ थी, उसके बावजूद खिलखिलाकर हंस सकते थे. आज मुंह खोलकर हंसना असभ्यता की पहचान है. ज्यादा खुश हुए, तो आप मुस्कुरा सकते हैं. इंसान खुद से दूर होता चला जा रहा है.
याद आता है, तब घर में कपड़े कम होते थे, लेकिन कमी महसूस नहीं हुई. जाड़े में मां खुद ठिठुरती थीं, लेकिन हम बच्चों को ढंक कर रखती थीं. आज कपड़ा होने के बाद भी हम नंगे हो गये. फैशन में बेशर्म हो गये. पहले खाली पैर खेत में कूदते थे, अच्छा लगता था. मिट्टी लगा पैर, बारिश में भींगा शरीर, मां की डांट और तेल मालिश हमारे जीवन को सदैव साथ होने का एहसास देती थी. आज खेत में पैर रखने से डर लगता है, क्योंकि पैर में पहने जूतों का ख्याल आता है. बच्चों को मिट्टी लग जाने का डर सताता है. मिट्टी से डर लगेगा, तो हकीकत से दूर होना स्वाभाविक है. मोटा अनाज पेट की चर्बी को कम करता है. यह हमें किसी ने नहीं बताया था. यह जीवन का हिस्सा था. दरदरे आटे की रोटी, ठेकुआ खाते थे. मकई की बाली बरसात की शाम का नाश्ता होता था. कच्चा चना, ईख, अमरूद, गाजर, पपीता दिनचर्या के हिस्सा होते थे. शरीर को रोजाना व्यायाम की जरूरत नहीं थी. जब साइकिल से 10 से 15 किलोमीटर चला करता था, तो वह स्वयं व्यायाम का अंग था. जिम में शरीर का व्यायाम होता है, यह हमें कहां पता होता था!
घर में टीवी पर एक हजार चैनल हैं, घर से बाहर निकलते हैं, तो दर्जनों मॉल, मल्टीकप्लेक्स हैं. इसके बाद चौबीस घंटे हमारे पास मोबाइल है. मोबाइल पर फेसबुक, वाट्सएप्प, टि्वटर आदि हैं, जो हर पल अपनी टिक-टिक से सूचना का संदेश देते हैं. हम खुद के साथ कहां हैं?
सृजन कहां से होगा ?
स्वयं में सिमट कर रहने के कारण कब हमारे आसपास अपराध एवं आतंक का बोलबाला हो गया, हमें पता भी नहीं चला! अब अपना परिवार, अपने घर तक ही हमलोग की दुनिया सिमटती जा रही है. ऐसी दुनिया जहां 30 ईंच का बड़ा टीवी है, भरपूर भोज्य पदार्थ हैं, लक्जरी है और सब अपने में सिमटे हैं, व्यस्त हैं. किसी को किसी के लिए फुर्सत नहीं. अपने नौनिहाल की भी हमें फ्रिक कहां? जब एक बालक को संस्कार, परंपरा और आदर्श के बारे में नहीं पढ़ाया जायेगा, तो वह राष्ट्र के बारे में कहां से सोचेगा? सोचिए, हम अपने लिए कब समय बीता पाते हैं? ऐसे में सृजन कहां से होगा? स्वयं की खोज कहां से होगी? जब स्वयं को जानेंगे नहीं,
तो दुनिया को जानने की हर कोशिश असफल होगी!
​यह युग भोग का है, इंद्रिय सुख का है और स्वयं को शीर्ष पर देखने की भूख का है. हम सोचते हैं कि दूर निकल गये, लेकिन नहीं. जीवन की जड़ें और उसमें समाहित रस पीछे छूट गये या सूख गये, जो आजादी के कुछ साल बाद तक जीवित थे. ऐसे में जब एक बालक को संस्कार, परंपरा और आदर्श के बारे में नहीं पढ़ाया जायेगा, तब तक वह राष्ट्र के बारे में कहां से सोचेगा?
॥ सुवचन॥
मत बोलो, यह सुबह है और इसे कल के नाम के साथ खारिज मत करो. इसे एक जन्मजात बच्चे की तरह देखो, जिसका अभी कोई नाम नहीं है.
– रवींद्रनाथ टैगोर
जब आप संघर्ष के दौर से गुजरते हैं और जब सब आपका विरोध करने लगते है, तो आपको लगता है कि आप एक मिनट भी सहन नहीं कर सकते, मगर कभी हार न मानें, क्योंकि यही वह समय और स्थान है, जब आपका अच्छा समय शुरू होगा.– सूफी संत जलालुद्दीन रूमी

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