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वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय की नजर में सोनिया गांधी का कैसा रहा कार्यकाल, जरूर पढ़ें

दो दशक पहले जब सोनिया गांधी ने देश के सबसे पुराने सियासी दल कांग्रेस की कमान संभाली, तो सबसे बड़ी चुनौती बिखर रही कांग्रेस को संभालने की थी. आज जब वह अपनी सियासी पारी को विराम देने की घोषणा कर रही हैं, तो एक बार फिर पार्टी को नये सिरे से खड़ी करने की चुनौती […]

दो दशक पहले जब सोनिया गांधी ने देश के सबसे पुराने सियासी दल कांग्रेस की कमान संभाली, तो सबसे बड़ी चुनौती बिखर रही कांग्रेस को संभालने की थी. आज जब वह अपनी सियासी पारी को विराम देने की घोषणा कर रही हैं, तो एक बार फिर पार्टी को नये सिरे से खड़ी करने की चुनौती आ खड़ी हुई है. सोनिया गांधी नेतृत्व संभालने के बाद पार्टी के भीतर और बाहर फैले तमाम भ्रमों को न केवल तोड़ने में सफल हुईं, बल्कि उनकी शख्सीयत और करिश्माई अगुवाई का ही नतीजा था कि यूपीए लगातार दो कार्यकाल पूरा करने में सफल रहा.
हालांकि, भ्रष्टाचार समेत विभिन्न मुद्दों पर यूपीए के दूसरे कार्यकाल में जो गिरावट दर्ज हुई, उसे संभालने और पार्टी को फिर से खड़ी करने की जिम्मेदारी राहुल गांधी पर छोड़ने का उनका फैसला कितना सही होगा, इसके मूल्यांकन के लिए फिलहाल इंतजार करना होगा. सोनिया गांधी के दो दशक के सियासी सफर से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर विशेषज्ञों की राय के साथ प्रस्तुत है आज का विशेष पेज…
रामबहादुर राय
वरिष्ठ पत्रकार
सोनिया गांधी ने राजनीति से संन्यास लेने का फैसला कर ही लिया है. सोनिया ने 1997-98 में राजनीति में और कांग्रेस की जिम्मेदारी संभालने में रुचि ले ली. 1998 में ही चुनाव होनेवाले थे.
अब 1991 से लेकर 1997 तक के बीच का छह साल का समय सोनिया गांधी के लिए सोच-विचार और दुविधा का रहा होगा और कुछ हद तक राजीव के जाने के शोक का भी प्रभाव रहा होगा. तब सोनिया गांधी कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं थीं और भारत में सोनिया गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने की मन:स्थिति भी नहीं थी. सोनिया गांधी इस बात को जानती थीं. इसके बावजूद 1998 में उन्होंने कांग्रेस की कमान इसलिए संभाली, क्योंकि वे राहुल को अपनी जगह सौंपकर ही जाना चाहती थीं. सोनिया गांधी की अपनी सीमाएं हैं.
कांग्रेस ने कल भी और आज भी यह मान लिया है कि नेहरू वंश नेतृत्व में रहेगा, तभी उसका उद्धार हो सकता है और तभी वह सत्ता में आ सकती है. यही वजह है कि कांग्रेस ने तब सोनिया गांधी को स्वीकार किया और अब राहुल गांधी को भी स्वीकार कर लिया है.
लेकिन, मेरा ख्याल है कि सोनिया ने यह सब आपद धर्म के रूप में स्वीकार किया. यानी राजनीतिक जीवन, राजनीतिक आकांक्षा या महत्वाकांक्षा उनमें न थी, न ही उनको कोई स्वीकार ही करता. लेकिन, चूंकि इंदिरा गांधी की हत्या हुई और फिर राजीव गांधी भी मार दिये गये, तो फिर नेहरू परिवार की बहू सोनिया ने (जिसकी रुचि पारिवारिक जीवन में थी न कि राजनीतिक जीवन में) आपद धर्म के तहत कांग्रेस को नेतृत्व देना स्वीकार कर लिया.
राजीव को राजनीति में आने से रोका!
सोनिया का व्यक्तित्व राजनीतिक नहीं था, लेकिन उसी घर में संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी राजनीतिक थीं. संजय गांधी के मरने के बाद जब पहली बार यह बात आयी थी कि राजीव गांधी अपनी मां के कहने से राजनीति में जा रहे हैं, तो सोनिया गांधी ने जितना वह रोक सकती थीं, उतना रोकने की कोशिश की कि राजीव राजनीति में न जायें.
संजय गांधी की मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी ने मेनका को राजनीतिक रूप से बाहर किया और सोनिया को अपना लिया. इंदिरा ने यह भांप लिया था कि सोनिया घर-परिवार संभाल सकती हैं और सोनिया ने संभाला भी. इसी तरह से आपद धर्म के रूप में कांग्रेस की कमान संभालने को लेकर सोनिया ने यह समझा होगा कि उसे भी वह परिवार की तरह ही संभाल लेंगी.
वे भारत की सबसे पुरानी पार्टी के राजनीतिक दायित्व का निर्वाह नहीं कर रही थीं, बल्कि कांग्रेस में नेहरू वंश की पारिवारिक भूमिका समाप्त न हो जाये, इसलिए उसको आगे बढ़ाने के लिए अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह कर रही थीं.
कांग्रेस की डूबती नैया लगाई पार
साल 1996 में जब पीवी नरसिम्ह राव की सरकार परास्त हो गयी, तब सोनिया गांधी के सामने यह प्रश्न आया होगा कि नेहरू वंश को आगे बढ़ाने में उनकी भूमिका क्या हो. यहां मैं मानता हूं कि सोनिया गांधी का यह साहस भरा कदम था कि उन्होंने कांग्रेस की कमान अपने हाथ में ली.
जब 1998 के चुनाव में सोनिया ने कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में चुनाव प्रचार शुरू किया, तब उनका मुकाबला अटल बिहारी वाजपेयी से था. वाजपेयी का मुकाबला सोनिया गांधी से नहीं था. वाजपेयी के रूप में 40-50 साल के राजनीतिक जीवन का विराट पुरुष सोनिया के सामने था, लेकिन मीडिया ने जितना वाजपेयी को महत्व दिया, उससे कम महत्व सोनिया को नहीं दिया, क्योंकि सबको यही लग रहा था कि सोनिया गांधी के आने से कांग्रेस केंद्र की सत्ता में आ जायेगी.
लेकिन, ऐसा नहीं हुआ. जब 1999 में लोकसभा का चुनाव हो रहा था, तब यह स्पष्ट देखा गया कि राहुल और प्रियंका गांधी में से अगर प्रियंका सामने आती हैं, तो कांग्रेस के पक्ष में हवा बह सकती है. मुझे याद है, रायबरेली की एक चुनावी सभा में (वहां सोनिया गांधी के खिलाफ अरुण नेहरू चुनाव लड़ रहे थे) हमने राहुल और प्रियंका को देखा. सबने देखा कि राहुल कुछ नहीं बोल पाये, लेकिन प्रियंका ने जादू जैसा भाषण दिया- ‘मेरे पिता की पीठ में जिसने छूरा भोंका है, क्या आप लोग उसको जितायेंगे?’
इस बात का इतना असर हुआ कि अटल बिहारी वाजपेयी की आंधी के बावजूद रायबरेली से अरुण नेहरू हार गये. फिर भी सोनिया ने अपने उत्तराधिकार के रूप में प्रियंका के बजाय राहुल को चुना. अब राहुल उसी उम्र में पहुंच गये हैं, जिस उम्र में राजीव गांधी चले गये थे.
सोनिया ने अब समझ लिया था कि उनकी भूमिका अब पूरी हो गयी है, इसलिए उन्होंने राहुल के हाथ में कमान सौंप दी है. सोनिया के इस निर्णय की मैं सराहना करता हूं, क्योंकि भारतीय राजनीति में आखिरी सांस तक सत्ता में बने रहना चाहते हैं. सोनिया गांधी ने यह बहुत अच्छा फैसला किया है कि वे अब राजनीतिक जीवन से संन्यास ले रही हैं.
पदत्याग का विवेकपूर्ण फैसला
सोनिया गांधी ने यह समझ लिया था कि उन्होंने अपने आपद धर्म का निर्वाह अच्छे से किया है. आपद धर्म से तात्पर्य यह है कि यह सोनिया का स्वधर्म नहीं है. दरअसल, मनुष्य अपने स्वधर्म से संचालित होता है, लेकिन कभी उसको ऐसा काम भी करना पड़ता है, जो उसके स्वभाव के विपरीत हो. साल 1998 से लेकर अब तक सोनिया गांधी ने अपने स्वभाव से विपरीत एक जिम्मेदारी समझते हुए उसे निभाया है. इसे ही मैं आपद धर्म कहता हूं. और आपद धर्म का पूरा निर्वाह करने के बाद जब उसे छोड़ने का मौका आया है, तब भी सोनिया ने कोई माैका नहीं गंवाया और उन्होंने अपने एक विवेकपूर्ण फैसले के तहत राहुल के हाथ में कांग्रेस की कमान देकर खुद राजनीतिक जीवन से संन्यास ले लिया है. सोनिया का यह फैसला भारतीय राजनीति में एक उदाहरण की तरह भी देखा जायेगा.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
सोनिया गांधी : सफरनामा
पारिवारिक पृष्ठभूमि
सोनिया गांधी का वास्तविक नाम एंटोनिया एडविगे अल्बिना मायनो है. उनका जन्म 9 दिसंबर, 1946 को ओर्बासानो, इटली के लुसियाना गांव में स्टीफानो व पाओला मायनो के घर हुआ था. लुसियाना सोनिया का पैतृक गांव है, जहां पीढ़ियों से उनके पूर्वज रहते आ रहे थे. उनके पिता का कंस्ट्रक्शन का बिजनेस था और वे स्वयं राजमिस्त्री का काम किया करते थे, जबकि उनकी मां एक गृहणी थीं. सोनिया की परवरिश एक रोमन कैथोलिक परिवार में हुई और उन्होंने ओर्बासानो के कैथोलिक स्कूल से अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी की. 1964 में उनके पिता ने उन्हें अंग्रेजी पढ़ने के लिए बेल एडुकेशन ट्रस्ट के लैंग्वेज स्कूल में कैंब्रिज, इंग्लैंड भेज दिया. कैंब्रिज में पढ़ने के दौरान सोनिया यहां के यूनिवर्सिटी रेस्टाेरेंट में काम भी करती थीं.
राजीव गांधी से मुलाकात
कैंब्रिज में पढ़ने के दौरान 1965 में सोनिया की मुलाकात राजीव गांधी से हुई. राजीव गांधी तब कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के ट्रिनिटी कॉलेज से मेकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे. इस मुलाकात के तीन वर्ष के बाद 1968 में सोनिया व राजीव की एक सादे समारोह में नयी दिल्ली में शादी हो गयी. भारत और इटली की संस्कृति में अंतर हाेने के कारण शुरू में सोनिया के माता-पिता इस शादी के लिए तैयार नहीं थे. खुद सोनिया इंदिरा गांधी से मिलने के दौरान काफी घबराई हुई थीं, हालांकि बाद में दोनों के बीच काफी अच्छी दोस्ती हो गयी थी. शादी के बाद राजीव व सोनिया इंदिरा गांधी के सरकारी आवास में रहने के लिए आ गयेे.
खुद में किये कई बदलाव
राजीव गांधी से शादी से पहले ही सोनिया गांधी नेे इंदिरा गांधी के साथ दोस्ताना रिश्ता कायम कर लिया था. धीरे-धीरे सास-बहू का रिश्ता बेहद गहरा और मजबूत होता चला गया. सोनिया एक आज्ञाकारी बहू थीं और घर की जिम्मेदारियों को बखूबी संभालती थीं. राजीव से शादी के बाद सोनिया ने खुद में कई बदलाव किये. उन्होंने अपने आपको भारतीय संस्कृति में ढाला. पश्चिमी पहनावे की जगह न सिर्फ भारतीय पहनावा साड़ी को प्राथमिकता दी, बल्कि हिंदी भी सीखी.
राजनीति में आने की नहीं थीं इच्छुक
1980 में विमान दुर्घटना में संजय गांधी की मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी ने जब राजीव गांधी से सक्रिय राजनीति में आने का आग्रह किया तो सोनिया गांधी ने इसका विरोध किया. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के अमेठी से चुनाव लड़ने के दौरान पहली बार सोनिया गांधी ने राजीव के लिए चुनाव प्रचार किया. इसके बाद वे राजीव गांधी के साथ कई राज्य के दौरे पर गयीं. लेकिन1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद वे पूरी तरह से राजनीति से दूर हो गयीं. हालांकि कांग्रेस के कई नेताओं ने उनसे पार्टी अध्यक्ष बनने का निवेदन किया लेकिन उन्होंने सबकी बात अनसुनी कर दी.
राजनीतिक उपलब्धियां
वर्ष 1999 में लोकसभा चुनाव में बेल्लारी और अमेठी सीट से चुनाव लड़ीं और दोनों जगहों से जीत हासिल की.
वर्ष 1999 में चुनावों के बाद लोकसभा में विपक्ष की नेता चुनी गईं.
वर्ष 2004 में भाजपा के भारत उदय- इंडिया शाइनिंग के नारे के मुकाबले आम आदमी के नारे के साथ अभियान शुरू किया, जिसमें इन्हें कामयाबी हासिल हुई.
2004 के लोकसभा चुनावों में सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए यानी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को बहुमत हासिल हुआ. इनके प्रधानमंत्री बनने की पूरी उम्मीद थी, लेकिन विपक्षी दलों ने उनके विदेशी मूल का होने का मसला उठाया. इस कारण प्रधानमंत्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह को नियुक्त किया.
वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए सरकार फिर बहुमत में आ गयी.
सोनिया गांधी से जुड़ा बड़ा राजनीतिक विवाद
वर्ष 1997 में सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद धारण करने के बाद पार्टी के तीन बड़े नेताओं- शरद पवार, तारिक अनवर और पी ए संगमा ने मई, 1999 में प्रधानमंत्री के पद के लिए उनकी क्षमता पर सवाल उठाया. इसके बाद सोनिया गांधी ने पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर इन तीनों नेताओं से इस्तीफा देने को कहा. बाद में इन नेताओं को पार्टी से बाहर निकाल दिया गया.
सोनिया को सम्मान-प्रतिष्ठा
वर्ष 2004 में फोर्ब्स पत्रिका ने इन्हें दुनिया की सबसे ताकतवर महिला के रूप में उल्लेख किया.
2006 में ब्रसेल्स विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि हासिल.
वर्ष 2007 में फोर्ब्स पत्रिका ने इन्हें दुनिया की छठी सबसे अधिक ताकतवर महिला का दर्जा दिया था.
वर्ष 2008 में सोनिया गांधी को मद्रास विश्वविद्यालय से साहित्य में डॉक्टरेट की मान्यता हासिल हुई.
वर्ष 2009 में फोर्ब्स पत्रिका ने इन्हें दुनिया की नौवीं शक्तिशाली महिला, 2012 में 12वीं ताकतवर महिला और 2013 में 21वीं सबसे ताकतवर महिला का दर्जा दिया.
2007 और 2008 में ‘टाईम मैगजीन’ की लिस्ट में दुनिया के 100 ताकतवर शख्सियतों में भी वे जगह बना चुकी हैं.
2 अक्तूबर, 2007 को महात्मा गांधी की जयंती के मौके पर सोनिया गांधी ने संयुक्त राष्ट्र को संबोधित किया था.
आर्थिक मसले
मई, 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनने के बाद सोनिया गांधी को ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद’ का अध्यक्ष चुना गया. मई, 2006 तक वे इस पद पर रहीं.
सोनिया के नेतृत्व में ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद’ ने समय-समय पर सरकार को महत्त्वपूर्ण सामाजिक आर्थिक मुद्दों पर सुझाव दिये. परिषद के सुझावों पर आधारित विविध योजनाएं और नीतियां कार्यरूप में सामने आयीं, जिनमें से कुछ आगे चल कर अत्यंत लोकप्रिय हुईं. कुछ योजनाएं व नीतियां इस प्रकार हैं :
– मनरेगा यानी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना
– सूचना का अधिकार
-राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना
– मिड डे मील स्कीम
– जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण मिशन
– राष्ट्रीय पुनर्वास नीति.

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