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हिंदी की पहली आदिवासी कथाकार एलिस एक्का

सावित्री बड़ाईक आदिवासी साहित्यकारों द्वारा हिंदी कथा लेखन का प्रारंभ एलिस पूर्ति (एक्का) से माना जाता है. आदिवासी भाषाओं में कथा लेखन का श्रेय मुंडारी लेखक मेनस ओड़अ: को है. एलिस एक्का ने पचास के दशक में कथा लेखन का प्रारंभ किया. प्रसिद्ध कथाकार राधाकृष्ण के संपादन में 3 फरवरी 1947 ई. को ‘आदिवासी’ नामक […]

सावित्री बड़ाईक
आदिवासी साहित्यकारों द्वारा हिंदी कथा लेखन का प्रारंभ एलिस पूर्ति (एक्का) से माना जाता है. आदिवासी भाषाओं में कथा लेखन का श्रेय मुंडारी लेखक मेनस ओड़अ: को है. एलिस एक्का ने पचास के दशक में कथा लेखन का प्रारंभ किया. प्रसिद्ध कथाकार राधाकृष्ण के संपादन में 3 फरवरी 1947 ई. को ‘आदिवासी’ नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ था. जगदीश त्रिगुणायत, प्यारा केरकेट्टा, पीटर शांति नवरंगी, जस्टिन एक्का, रामदयाल मुंडा, बीपी केसरी, एलिस एक्का, दिनेश्वर प्रसाद, फादर कामिलबुल्के, नलिन विलोचन शर्मा आदि इसपत्रिका से जुड़े.
एलिस की ‘वनकन्या’ कहानी आदिवासी पत्रिका के स्वतंत्रता दिवस विशेषांक 17 अगस्त 1961 के अंक में प्रकाशित हुई थी. आदिवासियों के अर्थव्यवस्था का केंद्रीय तत्व श्रम है पूंजी नहीं. ‘वनकन्या’ कहानी में फेचो बूटी, लुंदरी प्रकृति के नैसर्गिक वातावरण में श्रमशील हैं. इनका श्रम थकाने वाला नहीं आनंद उमंग का सृजन करने वाला है. ‘सूखी लकड़ियां चुनती हैं’ का आशय यह है कि आदिवासी समुदायों में प्रकृति यानि जंगल, जल, जमीन, जैवविविधता से जुड़ाव होता है.
‘आदिवासी’ पत्रिका में ‘दुर्गी के बच्चे और एल्मा की कल्पनाएं’ 26 जनवरी 1962 के अंक में छपी थी. दुर्गी दलित महिला है और एल्मा आदिवासी है. कथाकार-संपादक वंदना टेटे हती हैं कि “प्रकाशन के लिहाज से प्रेमचंद के बाद दलित विषय पर लिखी गई यह हिंदी की पहली दलित कहानी है. वर्णगत आधार पर भेदभाव करना आदिवासियों के स्वभाव और संस्कार में नहीं है.”
‘सलगी जुगनू और अंबा गाछ’ कहानी ‘आदिवासी’ पत्रिका में 15 अगस्त 1964 ई. को प्रकाशित हुई थी. इस कहानी के पात्र राजू और सलगी दोनों छोटे बच्चे हैं. उन दोनों का प्रेम जुगनू के समान है जो चमकता तो है परंतु पकड़ में आने पर अपनी चमक खो देता है.
आदिवासी समाज में धान की रोपनी, कटनी, मिसनी, आदि होते हैं. चावल उनका प्रिय आहार है और चावल से बने, धुसका, पीठा, अइरसा पूआ, छिलका, खपरा रोटियां प्रिय पकवान है.
रोपनी के समय जो उत्साह ग्रामीणों में होता है. उसकी बानगी देखिए- “खेतों में धान रोपे जा रहे थे. खेत पानी और कादो से सने हुए थे. स्त्रियां गीत गा-गाकर रोपनी कर रही थी. बीड़ा छींट रहे थे. कहीं कहीं खेतों में पाटा मारा जा रहा था. कही कहीं आड़ों में कुमनी रोपी गयी थी, और कहीं-कहीं नंगधड़ंग छोटे बच्चे और बच्चियां मछली, केंकड़े और घोंघे पकड़ने में लीन थीं.” प्रसिद्ध सांस्कृतिक नेता रामदयाल मुंडा का विचार है कि आदिवासी के लिए वन उसकी शांति है. तो कृषि उसकी सांस है.
‘कोयल की लाडली सुमरी’ कहानी 28 जनवरी 1965 में प्रकाशित हुई थी. सुमरी अपने बीमार पिता के लिए डॉक्टर को बुलाने जाती है जो वन के उस पार ब्लॉक में रहते हैं. रास्ते में कुकर्म की शिकार होती है. इधर उसके पिता भी चल बसते हैं. तब सुमरी अकेले ही उस घर में रहने लगती है. बस्ती के लोग उसका सहारा बनते हैं.
‘15 अगस्त, विलचो और रामू’ कहानी ‘आदिवासी’ पत्रिका में 12 अगस्त 1965 को छपी थी. विलचो की मां, सुमरी विलचो, फेचो आदि एलिस की कथा नायिकाएं अनवरत श्रम करती हैं. जंगल उनको जीवन देता प्रतीतहोता है.
एलिस एक्का की कहानियों में झारखंडी संस्कृति के कई रंग दिखते हैं. यहां आदिवासी भाषाओं के साथ नागपुरी, खोरठा, मगही क्षेत्रीय भाषाएं भी मौजूद हैं. कथाकार ने इन भाषाओं के प्रयोग जीवंतता: से किया है.
एलिस एक्का की कहानियों की भाषा से हिंदी समृद्ध हुई है. उन्होंने दक्षता से ऐसी शैल्ी का उपयोग किया है कि झारखंड के आंचलिक शब्द परिनिष्ठित भाषा में घुल-मिल गये हैं. इन शब्दों पर गौर किया जा सकता है- तुंबा, पाटा, डहर, नगाड़ा, डलिया, चुआं, कुमनी, बिंडा, दतवन, टोकी, छीपा मांंदर, डुभा, पडि़या, तरपत, भूती, रूगड़ा, खुखड़ी, पटिया, आहर.
‘धरती लहरायेगी… झालो नाचेगी.. गायेगी’ कहानी आदिवासी पत्रिका में 17 अगस्त 1967 को छपी थी. कुआं, चुवां, नदी, नाले, झरने में पानी नहीं था. पशुओं के लिए भी चारा पानी की समस्या उत्पन्न हो गई थी. भुखमरी के कारण मनुष्य और गरू, छगरी सभी पीड़ित थे. झालो सरकार की नीतियों से आश्वत है लाल कार्ड, मुफ्त अनाज का प्रबंध, जो काम करने लायक है उनको काम दे रही है. बांध-पोखर, आहर, सड़क सबका काम हो रहा है. परंतु वह उदाहरण भी है.
ननकू जानता है “झालो कब गायेगी और नाचेगी, जिस दिन भूख मिट जायेगी- जिस दिन हमारी धरती धान के पके बालों से लहरायेगी- उस दिन झालो नाचेगी और गायेगी.” इस कहानी में झालो सिर्फ अपनी चिंता नहीं करती सबके लिए चिंतित है. आदिवासी सांस्कृतिक वैशिष्ट्य में व्यक्तिवादिता के लिए कोई स्थान नहीं है. मनुष्य, जीव, जंतु प्रकृति की चिंता आदिवासी जीवन दर्शन में समाहित है.एलिस एक्का की कहानियों में कृत्रिमता, नाटकीयता का अभाव है साथ ही जादुई यथार्थ का भी.
कहानियों में सरलता, सहजता है जो आदिवासी समाज की विशेषता है. ये कहानियां यथार्थ पर आधारित होने के कारण नीरस नहीं लगती. एलिस एक्का की कहानियों के पात्र छोटे तीर के कन्नी की तरह ही हैं जो चोट पहुंचाये बिना सहजता और मधुरता से हमारे मानस में स्थान बनाते हैं. नि:संदेह एलिस एक्का की कहानियां आदिवासियों के बारे में सही समझ विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं.

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