कोलकाता से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका ‘लहक’ में प्रकाशित संपादकीय के कंटेंट पर फेसबुक पर जबरदस्त बहस हुई. मुक्तिबोध पर केंद्रित पत्रिका के इस अंक में उन्हीं पर संपादकीय लिखा गया है. देश के कई लेखक-कवि-आलोचकों ने इसमें प्रकाशित सामग्री पर आपत्ति की.
संपादकीय की पूरी सामग्री को सुशील कुमार ने फेसबुक पर पोस्ट कर दिया. साथ ही बेबाक राय रखने का लोगों को आमंत्रण भी दे दिया. इसके बाद साहित्य जगत से जुड़े लोगों ने अपनी-अपनी तरह से राय रखी. किसी ने संपादकीय को जायज ठहराया, तो कई लोग ऐसे भी आये, जिन्होंने संपादक की धज्जियां उड़ाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.
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सुशील कुमार के इस पोस्ट पर पहला कमेंट अमित प्रकाश सिंह का आया. वह लिखते हैं कि संपादक ने अपनी बात मुक्तिबोध के बहाने कही है. मजेदार यह है कि उनकी तमाम जिज्ञासा का जवाब मुक्तिबोध की रचनाओं में उपलब्ध है. विश्व रचना कर्म का प्रभाव और असर हिंदी कवि पर संभव है, पर यह संभव नहीं है कि दो कवि एक साथ सोचें और लिखें.
सुशील कुमार कहते हैं कि उस दौर को जरा गहराई से देखिए. एक ओर दिनकर, गोविंद प्रसाद, निराला, पंत आदि थे. वहीं अपने तरीके से जीवन संघर्ष करते हुए रचना की हिम्मत दिखा रहे थे मुक्तिबोध. आज वे अपने शतक वर्ष में हैं और आज भी अध्यापकों और संपादकों, छात्रों और नेताओं के लिए दोस्त चुनौती हैं. आलोचक बेचारे बस छद्म लेखन कर खुद को चिंतक मानते हैं. उनसे न साहित्य का भला होता है, न पाठक का.
इस पर शिव किशोर तिवारी ने लिखा, ‘इस लेख पर या किसी भी लेख पर आपत्ति करने का कोई तुक नहीं है. प्रत्युत्तर जरूर दे सकते हैं. मैं भी देना चाहता था, पर चित्त-अचित्त ने शुरू में ही चित कर दिया. जो आदमी बिना पढ़े मांडूक्योपनिषद् की रेड़ पीट सकता है, वह बिना पढ़े मुक्तिबोध की नहीं पीट सकता ?
इस पर एसके शर्मा लिखते हैं, ‘पढ़ कर रेड़ पीटना था. कहीं अधिक अच्छी पिटती.’
शिव किशोर ने फिर जवाब दिया, ‘लेख पढ़ा भाई. आप भी देखें. एक बात से दूसरी बात का कोई परस्पर संबंध ही नहीं है.’
इस पर लहक हिंदी से एक कमेंट आया, ‘बस इत्ती-सी बात आपको दिखी तिवारी शिव किशोर जी !!!’
शिव किशोर ने जवाब में लिखा,‘यह इत्ती-सी बात नहीं है. आपने चित्त और अचित्त की औपनिषदिक अवधारणा मांडूक्य उपनिषद में ढूंढ़ निकाली. फिर आपने दावा किया कि निराला चित्त के कवि हैं, इसलिए श्रेष्ठ हैं और मुक्तिबोध अचित्त के कवि होने के कारण ‘महानिराला’ होने से रह गये. चित्त- अचित्तवाली बात गप्प है. मांडूक्य में कहीं नहीं है.’
तिवारी ने लिखा कि मांडूक्य कोई पांच पन्नों का उपनिषद है? जब आप से वह नहीं पढ़ा गया, तो मुक्तिबोध की लंबी-लंबी कविताएं पढ़ने का धैर्य रहा होगा क्या – यही मेरी चिंता थी.’
लहक से जवाब आया, ‘तिवारी जी, आपकी टिप्पणी से किसी को समझने में यह दिक्कत नहीं होगी कि आपके पास जो ज्ञान का भंडारा है वह गुमानयुक्त है. कुछ इसी तरह के ज्ञान गुमान में मुक्तिबोध डूबे रहे. आपकी टिप्पणी से साफ पता चलता है कि संपादकीय को ध्यान से नहीं पढ़ा है. समय रहे, तो फिर से पढ़ें. नहीं, तो कोई जरूरत नहीं है गुटका पढ़ कर टीका-टिप्पणी करने की.’
उन्होंने आगे लिखा, ‘जहां तक मांडूक्य उपनिषद का सवाल है, तो आपने पांच पेज का गुटका अध्ययन किया है. हमारे पास जो है, उसमें पेज की संख्या 82 है. यह लखनऊ के मुंशी नवल किशोर प्रकाशन की है, जिसका अनुवाद गंगादत्त जोशी और रामदत्त जोशी ने किया है….श्लोक नं-3.3.18 है. और मुंडक उपनिषद श्लोक संख्या 3.9 है. जहां तक मुक्तिबोध का सवाल है, तो जो कहना था, कह चुका हूं. आप उन्हें पूजते रहें, मुझे कोई आपत्ति नहीं है. उम्र के हिसाब से बस यही निवेदन है कि जब भी दूसरे को कमतर आंकें, अपने गिरेबान में भी झांक लें.’
इसके बाद कमेंट किया उमाशंकर सिंह परमार ने. उन्होंने लिखा, ‘शिव किशोर तिवारी को आप नहीं समझा सकते. न इसमें समझने के गुण हैं. मतलब जिज्ञासा है. मैं इन्हें कई बार विद्वता झाड़ते देख चुका हूं. जब ये अपने पंडितवाद की खोल से बाहर निकलना ही नहीं चाहते, तो इनका नजरिया व्यापक कैसे होगा? इसलीए मैं समझता हूं यह फेसबुक है. यहां भांति-भांति के जीव-जंतु घुसे रहते हैं. इन जीवों का जवाब देना ठीक नहीं. मुक्तिबोध की सीमा का रेखांकन अपराध है क्या? यही लोग जो खा-पीकर मोटिया गये हैं, इसे अपराध समझते है. जब कोई बड़ा व्यक्ति आये, तब जवाब देना उचित होता है. छुटभैय्यों का जवाब आपके स्तर को कम करता है. इन जीव-जंतुअों को इन्हीं के हालत पर छोड़ दीजिये.’
लहक ने परमार की बात से सहमति जतायी. इसके बाद शिव किशोर लिखते हैं, ‘आप श्लोक ही कोट कर दीजिये. मांडूक्य में कुल 15 श्लोक से ज्यादा नहीं, तीन अध्याय तो दूर की बात.’
इस पर बृजेश नीरज ने लिखा, ‘जब श्लोक संख्या और प्रकाशन का उल्लेख कर दिया है, तब उस पर बहस का कोई औचित्य नहीं. वैसे भी यहां विषय मुक्तिबोध हैं. उपनिषद तो यूं भी पंडितों की बपौती रही है.’
इस पर तिवारी लिखते हैं, ‘मांडूक्य सबसे छोटा उपनिषद् है. 3.3.18 श्लोक संख्या असंभव है.’ जवाब में बृजेश ने कहा कि इस उपनिषद पर बहस क्यों? मुक्तिबोध पर बात करें. साथ ही बृजेश ने मुंडकोपनिषद् का लिंक पोस्ट कर दिया.’
इस पर शिव किशोर तिवारी ने बृजेश नीरज से कहा कि मुंडक अलग उपनिषद् है, मांडूक्य अलग. बृजेश ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए लिखा, ‘जी मुझे पता है. दरअसल, मोबाइल से लिंक कॉपी करते समय मुझसे यह गलती हुई.’ और इस बार मांडूक्योपनिषद का लिंक पोस्ट किया.
फिर लिखा, ‘वैसे मुझे लगता है कि निर्भय जी मुंडक उपनिषद का ही जिक्र करना चाह रहे थे. द्वैत-अद्वैत की चर्चा वहीं है.’
अब लहक हिंदी से कमेंट हुआ, ‘उमा भाई के कहने पर मैं तिवारी शिव किशोर नामक जीव के किसी प्रश्न का जवाब देना उचित नहीं समझ रहा हूं. ये गुटकाबाज ज्ञान के अध्येता हैं. नीरज भाई आप समय जाया न करें. मैने प्रकाशक से लेकर लेखक तक का नाम बता दिया. मैं मांडूक्य की बात कर रहा हूं. श्लोक संख्या तक दे दिया- फिर भी ये गुटकाबाज महोदय ज्ञान के बदचलन तर्क करने पर आतुर हैं. दरअसल, ये पूरी मंडली मुक्तिबोध की बहस को डीरेल करने पर आमदा है. प्रमाण देने पर भी जिसकी आंख न खुले, उसे संस्कृत में अलौकिक पंडित कहा गया है. सो नीरज भाई, इन अलौकिक जीव को इनके हाल पर छोड़ दें !!!’
संपादकीय की आलोचना करनेवालों में धनंजय साव का भी नाम जुड़ गया. धनंजय लिखते हैं, ‘निश्चय ही सभी को स्वतंत्र रूप से अपनी बात कहने और रखने की आजादी है. यहां ऐसा ही कुछ मामला है. यहां एक बात का हवाला दिया गया है कि आलोचना राग-द्वेष से परे होकर करनी चाहिए. मुझे ही सवाल करना है कि क्या यह संपादकीय राग-द्वेष से परे है? एक हाथ में कुछ कवियों को एकत्र कर उनकी कसौटी बनाते हुए पूर्वाग्रह से परिपूर्ण होकर मुक्तिबोध की काव्य पंक्तियों को उनके संदर्भ से च्युत कर नयी बात कह कर खुद को महान आलोचक बनाने की ओर एक प्रयास किया गया है. पर पाठक मुक्तिबोध की कविताअों को उनके संदर्भ के साथ पढ़े हैं, पढ़ते हैं…. महान संपादक को सलाम.’
इस पर नीलोत्पल रमेश ने कहा, ‘मैं पूरा संपादकीय पढ़ गया हूं. इसमें के पूरे विचार संपादक के हैं. इससे सहमति-असहमति का कोई प्रश्न ही नहीं है. फिर बवाल क्यों? जिनको आपत्ति है, वे जवाब दें. बधाई निर्भय देवयांश जी, इतनी मेहनत से संपादकीय लिखने के लिए.’
इस बहस में एसके शर्मा एक सवाल के साथ आये. उन्होंने पूछा, ‘स्वतंत्र आलोचना और निष्पक्ष आलोचना में क्या अंतर है?’
जवाब सुशील कुमार ने दिया, ‘आलोचना जब तर्क, तथ्य और साक्षयाधारित हो, तो वह जितनी स्वतंत्र होती है, उतनी ही निष्पक्ष भी. वहां स्वतंत्रता निष्पक्षता का पर्याय बन जाती है, वरना डिस्प्यूट पैदा करती है’
शर्मा ने दूसरा सवाल दागा, ‘सुशील कुमार जी, जब और दूसरी दुनियावी बातों का निरपेक्ष होना संभव नहीं, तो तर्क-तथ्य और अवधारणाओं का भी नहीं. अतः प्रेक्षक पहले आता है, आलोचना अनुसरण में. आपकी बात सैद्धांतिक रूप से सही है. वैसे मुझे लगता है कि स्वतंत्रता और निष्पक्षता हमारा ही चुनाव/आग्रह होता है. अतः हमारी रुचिप्रभाव के सापेक्ष.’
सुशील कुमार ने कहा, ‘जब आप यह जानते ही हैं कि लेखन रुचि सापेक्ष है, तो फिर यह सवाल क्यों कि स्वतंत्र आलोचना और निष्पक्ष आलोचना में क्या अंतर है? फिर प्रश्न ही बेमानी हो जाता है.’
इस पर एसके शर्मा ने कहा, ‘सुशील कुमार जी, मेरा आशय यह था कि यदि किसी आलोचक को मुक्तिबोध की कविता पसंद न आती हो, तो क्या उससे एक निरपेक्ष आकलन की अपेक्षा की जा सकती है?’ फिर सुशील ने लिखा, ‘संपादकीय आलोचना से भिन्न होती है एसके शर्मा जी. दूसरी बात, रुचि की आलोचना से संबंध अनुलोम, विलोम दोनों हो सकता है. निगेटिव आलोचना को रुचिहीन कहना भी सही नहीं. बशर्ते यह तथ्यात्मक और शोधात्मक हो.’
मुक्तिबोध पर चल रही चर्चा के बीच दिविक रमेश कहते हैं कि संपादकीय विचारोत्तेजक है. तारसप्तक में प्रकाशित मुक्तिबोध की कविताओं को समीक्षक शमशेर सराह नहीं सके थे. अज्ञेय ने उन्हें एक असफल कवि कहा था.
इस पर भरत प्रसाद ने कहा, ‘फिर तो शमशेर जी खुद कुछ कम असफल सिद्ध न होंगे.कवियों के कवि,कोई सम्मानजनक उपाधि नहीं थी शमशेर जी के लिए.’
इस पर शिव किशोर तिवारी ने लिखा, ‘आप मुक्तिबोध को साधारण कवि मानते हों, तो साफ कहिये. शमशेर और अज्ञेय की आड़ ज़रूरी नहीं है. इस ‘विचारोत्तेजक’ लेख से उपजे विचारों पर कुछ कहें, तो और अच्छा लगेगा. आपकी ख्याति है. इस संपादकीय के विपरीत आपकी बात को गंभीरता से लूंगा.’
उषा रानी राव ने संपादकीय की सराहना करते हुए लिखा कि स्वतंत्र वैचारिक अभिव्यक्ति काल की निजी प्रतीति को वर्तमान में रख कर पूर्व के समझ की स्थिति को सत्यता के साथ परखता है कि सृजनशीलता का आधार क्या है अौर स्त्रोत कहां है ? समाजमूलक सृजनात्मक दायित्व के प्रति खोजी अंर्तदृष्टि की लौ लिए मंथन करता है यह संपादकीय. मुक्तिबोध का रचनात्मक योगदान हिंदी साहित्य की धरोहर है.’
सिद्धार्थ वल्लभ लिखते हैं, ‘बेहद ही सधा हुआ संपादकीय. यथार्थ अपने ही रूप में… किसी को नंगा दिखे, तो नजरिये का दोष. मैं तो पूरी तरह सहमत हूं.’
डाॅ चंद्र शेखर शर्मा कहते हैं, ‘संपादकीय पढ़ा. मुक्तिबोध को नयी रोशनी में देखने की कोशिश है. लकीर से हट कर कुछ कड़वी प्रतिक्रिया आयी होगी. शेयर करें.’
राजेश कमाल भी सवाल का स्वागत करते हैं. कहते हैं, ‘सवाल तो उठने ही चाहिए. जायज हैं. यही साहित्य का स्वस्थ लोकतंत्र है.’
रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं, ‘संपादकीय पढ़ लिया है. इसे किसने लिखा है, यह अब तक पता नहीं है. इस पर 2-3 बातें कहनी हैं.
- 1. बात मुक्तिबोध व उनके समकालीन हिंदी के महत्वपूर्ण कवियों के संबंध में ही होनी थी. पर, लेखक ने बीच-बीच में जो दर्शन की बघार लगायी है, वह अप्रासंगिक है.
- 2. मुक्तिबोध पर अस्तित्ववाद का प्रभाव है. वह उनकी सभी महत्वपूर्ण कविताओं पर दिखता है.
- 3. मुक्तिबोध की कविताओं में संप्रेषणीयता का अभाव है. वे अपनी संरचना व शिल्प दोनों में ही जटिल हैं. हिंदी के पहुंचे हुए लोगों ने मुक्तिबोध की कविताओं को क्या सोच कर उच्च शिक्षा व अन्य पाठ्यक्रमों में शामिल किया है, यह समझना मुश्किल है.
- 4. कवि की तुलना में मुक्तिबोध गद्यकार के रूप में ज्यादा सुबोध हैं.
- 5. संपादकीय में मुक्तिबोध के प्रारंभिक जीवन से उनकी कविताओं को जोड़ कर जो निष्कर्ष
- निकाले गये हैं, वे सतही हैं.
- 6. इनका जीवन एक रचनाकार के रूप में बेहद संघर्षपूर्ण रहा है. ये जिन विचारों का प्रतिनिधित्व साहित्य में कर रहे थे, उससे जुड़े लोगों ने बेवफाई का परिचय दिया. हिंदी में साहित्य रचना के बल पर जीवन निर्वाह तब भी कठिन था आज भी कठिन है.