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उत्तराखंड : राजनीतिक संकट में फंसी कांग्रेस, चुनाव मोर्चे पर भाजपा के सामने अकेले हरीश

!!जगमोहन रौतेला!! देहरादून : उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव की घोषणा से पहले ही सत्ता पर कब्जा करने के लिए भाजपा ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी. वहीं कांग्रेस में मुख्यमंत्री हरीश रावत अभी ‘एकला चलो’ की राह पर ही हैं. वह प्रदेश सरकार व संगठन के स्तर पर अकेले ही चुनावी मोर्चे पर दिखाई […]

!!जगमोहन रौतेला!!

देहरादून : उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव की घोषणा से पहले ही सत्ता पर कब्जा करने के लिए भाजपा ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी. वहीं कांग्रेस में मुख्यमंत्री हरीश रावत अभी ‘एकला चलो’ की राह पर ही हैं. वह प्रदेश सरकार व संगठन के स्तर पर अकेले ही चुनावी मोर्चे पर दिखाई दे रहे हैं. इस मोर्चे में गत 23 दिसंबर, 2016 को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अल्मोड़ा में जनसभा को संबोधित करने के बाद शामिल होने की शुरुआत अवश्य की है. पर इसके बाद भी विधानसभा चुनाव में प्रचार के लिहाज से हरीश रावत को अकेले ही भाजपा की लंबी- चौड़ी टीम से जूझना होगा, यह पूरी तरह से स्पष्ट होता जा रहा है.

दरअसल , प्रदेश कांग्रेस के पास हरीश रावत के अलावा एक भी ऐसा नेता नहीं है, जो चुनावी सभाओं में लोगों को अपने भाषणों से प्रभावित करने की क्षमता रखता हो. कांग्रेस के पास पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी व पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी के अलावा और कोई तीसरा नेता लोगों को आकर्षित करने लायक नहीं है. इसमें भी सोनिया गांधी के स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण राहुल गांधी ही कांग्रेस के पास एकमात्र स्टार प्रचारक रह गये हैं. अब राहुल गांधी अकेले ही कितनी जनसभाओं को चुनाव के दौरान उत्तराखंड में संबोधित कर पायेंगे, यह एक बड़ा सवाल है.

कांग्रेस में इस समय हरीश रावत के अलावा और जो भी दूसरे क्षत्रप हैं, वे भले ही पार्टी के अंदर राजनैतिक समीकरणों के हिसाब से मजबूत नेता हों, पर इसके बाद भी उनमें कोई भी ऐसा नहीं है, जिसका अपने चुनाव क्षेत्र से बाहर जनाधार हो. सतपाल महाराज, विजय बहुगुणा और हरक सिंह रावत जैसे जो दो-चार नेता उसके पास थे, वे सब अब भाजपा के नेता हैं. प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष किशोर उपाध्याय भी संगठन के अलावा आम जनता में अपनी स्थिति राजनैतिक तौर पर मजबूत नहीं कर पाये. यह कांग्रेस का एक सबसे बड़ा राजनैतिक संकट भी है.

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के मुकाबले भाजपा उत्तराखंड में कोई बहुत मजबूत स्थिति में हो. उसकी कमजोरी का इशारा इस बात से ही हो जाता है कि पार्टी नेतृत्व ने अभी से अपने स्तर से चुनाव प्रचार शुरू कर दिया है. और वह इसके लिए राज्य के क्षत्रपों पर भी विश्वास करने को तैयार नहीं है कि वह पार्टी का बेड़ा पार लगा ही लेंगे. इसी वजह से मई, 2016 के बाद से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह किसी न किसी बहाने से उत्तराखंड में अब तक आधा दर्जन जनसभाओं को संबोधित कर चुके हैं. केंद्रीय मंत्री तो लगातार राज्य के दौरे पर हैं ही. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी विकास योजनाओं के शिलान्यास के बहाने 27 दिसंबर, 2016 को देहरादून में एक जनसभा को संबोधित कर चुके हैं. भाजपा भी भले ही सत्ता में आने का दावा कर रही हो, लेकिन वह किसी भी स्थिति में चुनाव प्रचार में कांग्रेस व मुख्यमंत्री हरीश रावत के मुकाबले कमजोर नहीं पड़ना चाहती है.

भाजपा की इसी चुनावी रणनीति का मुकाबला मुख्यमंत्री हरीश रावत को न केवल अकेले ही करना पड़ रहा है, बल्कि उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती दमदार प्रत्याशियों की कमी के साथ ही टिकट के दावेदारी की लंबी-चौड़ी फौज भी है. दावेदारों को साधने के लिए चुनाव की घोषणा होने से पहले उन्होंने पार्टी नेताओं को लालबत्ती थोक के भाव बांटी. इन्हीं लालबत्तियों ने 2007 में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. मुख्यमंत्री हरीश रावत व प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष किशोेर उपाध्याय में से दोनों के बारे में अभी तक यह नहीं पता कि वे चुनाव कौन-कौन सी विधानसभा सीटों से लड़ेंगे ? यही अनिश्चितता चुनाव में कांग्रेस को भारी पड़ सकती है.

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