।। विद्या निवास मिश्र ।।
ऋतुराज का आगमन
तो लीजिए.. ऋतुराज वसंत का आगमन हो गया है. अब मन प्रफुल्लित है. धरती पीली सरसों के आवरण में ढक गयी है.. आम में मंजरियां आने को हैं. तो फिर आ जाओ अनचाहे पाहुन, आओ भीतर कुछ क्षण आ जाओ, इन कागदों के पत्रों के बीच आ जाओ, इन्हें ही कुछ रंग दो, सुरभी दो, गरमाहट का स्पर्श दो, स्वर दो ये पत्ते प्राणवंत हो जाएं, भले ही अपने को गला दें, जला दें कुछ नये बीजों को अंखुआने की ऊष्मा तो दे दें. हिंदी के प्रतिष्ठित विद्वान और पत्रकार (दिवंगत) डॉ विद्या निवास मिश्र को वसंत ऋतु सर्वाधिक प्रिय थी. इस मौके पर पढ़ें ऋतुराज के आगमन पर उनका यह लेख..
लोगों ने सुना, फागुन आ गया है.
फागुन आया है तो वसंत भी आया होगा, फूलों के नये पल्लवों का ऋ तु-चक्र मुड़ा होगा. पर सिवाय इसके कि कुछ पेड़ों की पत्तियां बड़ी निर्मोही हो गयी हैं अपनी डाल पर रु कती नहीं, पेड़ की छाया तक भी नहीं रु कती, भागती चली जाती है, और कोई संकेत यहां बड़े शहर में फागुन का या वसंत का मिलता नहीं.
क्या निर्मोहीपन को ही वसंत मान कर वसंत का स्वागत करें या इसे कोसें, फिर तुम आ गये. तुम आते हो कितना कुछ गंवा देना पड़ता है, पास से और कुछ भी हाथ में हासिल नहीं आता. राग की ऋ तु हो, कितना विराग दे जाती हो, अपने आप से. ब्रजभाषा के किसी कवि ने ऐसा ही प्रश्न किया था:
झूरि से कौन लये बन बाग,
कौने जु आंयन की हरि भाई.
कोयल काहें कराहित है बन,
कौन धौं, कौन ने रारि मचाई.
कौनधौं कैसी किसोर बयारि बहै,
कौन धौं कौन ने माहुर जाई.
हाय न कोऊ तलास करै,
या पलासन कौन ने आगि लगाई.
यह क्या हुआ है, किसने बन बाग झुलसा दिये सब नंगे ठाठरी-ठाठरी रह गये, किसने आमों की हरियाली हर ली. किसने यह उपद्रव किया कि ‘बन बन’ कोयल कराहती रहती है. कैसी तो जाने मारू हवा बही, किसने इसमें जहर घोल दिया. कोई तलाश करने को भी तैयार नहीं कि किसने ढाक बनों में आग लगायी?
इन अनेक उत्पातों के पीछे कोई छिपी शक्ति काम कर रही है, उसी का नाम वसंत है. लोग इसे मदन महीप का उत्पाती बालक बताते हैं, बाप से एक सौ प्रतिशत ज्यादा ही उत्पाती. पर मदन तो काम का देवता है, मन के देवता चंद्रमा का मित्र है.
वह क्यों इतना उन्मन करता है. चाह पैदा करने का मतलब यह तो नहीं तो चाहने वाला मन ही न रहे. इस वसंत से बड़ी खीझ होती है, इतना सारा दु:ख चारों ओर, दरिद्रता चारों ओर, दरिद्रता बाहर से अधिक भीतर की दरिद्रता का ऐसा पसारा है, इन सबके बीच क्यों एक अप्राप्य सुख की लालसा जगाने आता है. क्या वसंत कोई विदूषक है, पुराने विदूषकों का नाम वसंत इसीलिए हुआ करता था?
क्या वसंत कोई कापालिक है, लाल लाल गुरियों की माला पहने, हाथ में कपाल लिए आता है, कंधे पर एक लाल झोली लटकी रहती है, उसी में नये फूल, नये पल्लव, नयी प्रतिमा, नयी चाह, नयी उमंग सब बटोर कर चला जाता है. फिर साल भर बाद ही लौटता है, कुछ भी लौटता नहीं, बस बरबस सम्मोहन ऐसा फैलाता है कि सब लुटा देता है.
फूल और रस वह लाल लाल आंखें लिए अट्टहास करता चला जाता है? या वसंत यह सब कुछ नहीं, निहायत नादान-सा शरारती छोकरा है, जिसे कोई विवेक नहीं, किसी के सुख दुख की परवाह नहीं, खेल -खेल में जाने कितने घर बन और कितने बन घर करता हुआ निकल जाता है. धूलि भरी आंधियों के बगूलों के बगूलों के बीच से किधर और कब कोई नहीं जानता?
या वसंत कुछ नहीं विश्व की विश्व में आहूति जिस आग में पड़ती हैं, उसका ईंधन है सूखी लकड़ी है, तनिक भर में धधक उठती है, बस एक चिनगारी की लहक चाहिए, तनिक सी ऊष्मा कहीं से मिले, निर्धूम आग धधक उठती है, समष्टि की आकांक्षा को ग्रसने के लिए लपलपाती हुई. वसंत केवल उपकरण है, उसमें कुछ अपना कर्तृत्व नहीं. मैं तब सोचता हूं. शायद यह सब कुछ नहीं, केवल छलावा है मन का भ्रम है, कोई वास्तविकता नहीं.
पत्तों के झरने से फूलों के खिलने से वसंत का कोई सरोकार नहीं, ये सब पौधे के पेड़ के धर्म हैं वसंत कोई ऋ तु भी नहीं है, गीली है या सूखी. मौसम खुला है या बादलों से घिरा है. वसंत यह कहां से आ गया? कवियों का वहम है और कुछ नहीं. यह वहम ही लोगों के दिमाग में इतनी सहस्त्रब्दियों से चढ़ गया कि इतना बड़ा झूठसच्चाईबन गया है और हम वसंत से खीझते हैं, पर उसकी प्रतीक्षा भी करते हैं.
मानुष मन चैन के लिए मिला नहीं, अकारण किसी भी मधुर संगीत से, किसी भी आकर्षक दृश्य से खींचकर वह कहां से कहां चला जाता है, आधी रात कोयल की विहृल पुकार पर वह सेज से उठ जाता है, अमराइयों में अदृश्य के साथ अभिसार के लिए निकल पड़ता है.
जाने संस्कृतियों ने कितने मोड़ बदले, मनुष्य जाने कहां से कहां पहुंचा, मन आदिम का आदिम रह गया, वह एक साथ फुलसुंघनी चिड़िया, बिजली की कौंध, तितली की फुरकन, गुलाब की चिटक, स्मृति की चुभन, दखिनैया की विरस बयार, कोयल की आकुल कुहक, सुबह की अलसाई सिहरन, दिन का चढ़ता ताप, नये पल्लवों की कोमल लाली, पलास की दहक, सेमल के ऊपर अटके हुए सुग्मों के नरौश्मय निर्गमन, यह सब है और इसके अलावा भी अनिर्वचनीय कुछ है. वह सदा किशोर रहता है, इसीलिए वह इतना अतक्र्य बना रहता है.
यह वसंत निगोड़ा उसी मन से कुछ सांठगांठ किये हुए है. इसीलिए सारी परिस्थितियां एक तरफ और वसंत का आगमन एक तरफ वसंत से मेरा तात्पर्य एक दुर्निवार उत्कंठा से है. जो सब कुछ के बावजूद मनुष्य के मन में कहीं दुबकी रहती है, यकायक उदग्र हो उठती है, कहां से संदेश आता है, कौन बुलाता है, कोई नहीं जानता. कौन बसंती रास के लिए वेणु बजाता है, उसका भी कुछ पता नहीं.
सब कुछ तो अगम्य है. इस अगम्य अव्यक्त से यकायक एक दिन या ठीक कहें एक रात कोयल कुहक उठती है और मन सुधियों के जंगल में चला जाता है.
इस जंगल में कितनी तो अव्यक्त इच्छाओं के नये उकसे पत्र कुड्मल हैं कितने संकोच के कारण वचनों के सम्पुटित कर्ले हैं कितनी अकारण प्रतीक्षा के दूभर क्षणों की सहमी वातास है कितनी भर आंख न देख पाने वाली अधखुली आंखों की लालसा की लाल डोरियां हैं और कितना सब कुछ देने की उन्मादी चांदनी का लुटना है. हां, इस जंगल में अमराई की आधार भी है, जगह-जगह मधुमक्खियों की भिनभिनाहट भी हैं, बंसवारियों की छोर भी है, जाने कितने खुले एकांत भी हैं. इस जंगल में निकल जाएं तो फिर मन किसी को कहीं का नहीं रखता न घर का न वन का. यह मन केवल विराग का राग बन कर फैलना चाहता है, कभी फैल पाता है कभी नहीं.
यह मन चिंता नहीं करता कि हमें फल का रस मिलेगा या नहीं. वह फूल के रस का चाहक है. बाउल गीतों में मिलता है कि फल का रस लेकर हम क्या करेंगे. हमें मुक्ति नहीं चाहिए. हमें रिसकता चाहिए. रस दूसरों के लिए होता है न. हमें वह पराया अपना चाहिए. अपने का अपना होना क्यों होना है पराये का अपना होना होना है.
पराया भी कैसा जो परायों का भी पराया है, परात्पर है. उसका अपना होने के लिए सब निजत्व लुटा देना है, सब गंध रूप रस गान लुटा न्यौछावर कर देना है.बसंत आता है तो अनचाहे यह सब स्मरण आ जाता है और एक बार और बसंत को कोसता हूं. बंधु तुम क्यों आये अब तो मुझे चैन से रहने दो घरूपन, अब क्यों अपनी तरह बनजारा बनाने के लिए आ जाते हो. अब मधुबन जाकर क्या करूंगा. मधुवन है ही कहां? क्यों रेतीले ढूहों में भटकने के लिए उन्मन करते हो? मैं क्या इतना अभिशप्त हूं कि वसंत मेरे दरवाजे पर दस्तक दे देता है.
मुझे उसकी प्रतीक्षा भी तो नहीं, यह सोचता हूं तो लगता है यह मेरे उन संस्कारों का अभिशाप है, जो विनाशलीला के बीच अंधियारे सागर में बिना सूर्य के निकले सृष्टि का एक कमल नाल उकसा देता है. उसमें से स्रष्टा निकल पड़ते हैं. वसंत स्वयं भी संहार में सृष्टि है. निहंगपन में समृद्धि का आगमन है, अनमनेपन में राग का अंकुरण है, जड़ता में ऊष्मा का संचार है. इसी से उसके दो रूप हैं-मधु और माधव. फागुन मधु है, मधु तो क्या, मधु के आस्वाद की लालसा है और माधव लालसाओं का उतार है.
चैत पूरा का पूरा ऐसे माधव की बिरह व्यथा है जो माधव को मथुरा में चैन से नहीं रहने देती है. माधव व्यग्र हैं, राधा माधव के लिए व्यग्र नहीं है. राधा माधव हो गई है, माधव से भी अधिक माधव की चाह हो गई है. उन्हें माधव की अपेक्षा नहीं रही. यह वसंत राधा माधव के बीच ही ऐसा नहीं करता. समूची सृष्टि में, जो स्त्री तत्व और पुंस्तत्व से बनी है, ऐसे ही कौतुक करता है.
एक सनातन आकुलता और एक सनातन चाह में मनुष्य के मन को बांट कर फिर उन्हें मथता रहता है. मनुष्य के भीतर का मनुष्य नवनीत बन कर, नवनीत पिंड बन कर, नवनीत पिंड का चन्द्रमय रूपांतर बनकर अंधेरी रातों को कुछ प्रकाश के भ्रम में बिहंसित करता रहता है. वसंत और कुछ नहीं करता, बस कुछ को न-कुछ और न-कुछ को कुछ करता रहता है. बार- बार बरजने पर भी मानता नहीं. वसंत की ढिठाई तो वानर की ढिठाई भी पार कर जाती है. कोई हितु है जो इसे रोक सके? मैं जानता हूं, कोई नहीं होगा, क्योंकि दिन में तो हवा की सवारी करता है. रात में चांद की सवारी करता है. वह कहां रोके रुकेगा.
तो फिर आ जाओ अनचाहे पाहुन, आओ भीतर कुछ क्षण आ जाओ, इन कागदों के पत्रों के बीच आ जाओ, इन्हें ही कुछ रंग दो, सुरभी दो, गरमाहट का स्पर्श दो, स्वर दो ये पत्ते प्राणवंत हो जाएं, भले ही अपने को गला दें, जला दें कुछ नए बीजों को अंखुआने की ऊष्मा तो दे दें.