।।कन्हैया झा नयी दिल्ली।।
इसरो ने गत पांच जनवरी को जीएसएलवी डी-5 का सफल प्रक्षेपण किया. इसमें भारत में निर्मित क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल किया गया है. इस कामयाबी से उत्साहित इसरो के चेयरमैन ने अब ‘चंद्रयान-2’ को भी वर्ष 2016-17 तक प्रक्षेपित किये जाने की उम्मीद जतायी है. भारत पिछले कई वर्षो से रूस के सहयोग से इस अभियान को अंजाम तक पहुंचाने में जुटा था, लेकिन रूस से समय सीमा के अंदर तकनीकी सहयोग नहीं मिल पाने के कारण अब इस अभियान में स्वदेशी तकनीक पर जोर दिया जा रहा है. आज के नॉलेज में नजर डालते हैं ‘चंद्रयान-2’ के लिए अब तक हुई तैयारियों पर.
चंद्रयान-1 की सफलता से उत्साहित भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) अब ‘चंद्रयान-2’ की तैयारी में जुट गया है. अंतरिक्ष विभाग के सचिव के राधाकृष्णन ने पिछले दिनों कहा कि ‘चंद्रयान-2’ एक ऐसा मिशन है, जिसे चंद्रमा की सतह पर प्रयोगों के लिए उतारा जायेगा. उन्होंने उम्मीद जतायी कि जीएसएलवी का इस्तेमाल करते हुए स्वदेशी रोवर और लैंडर के साथ ‘चंद्रयान-2’ को वर्ष 2016 या 2017 तक अंतरिक्ष में भेजने में कामयाबी मिल सकती है. इसरो ‘चंद्रयान-2’ को स्वदेशी तकनीक से विकसित करने में जुटा है. इसे जियो-साइक्रोनस लॉन्च वेहिकल (जीएसएलवी) के माध्यम से भेजा जायेगा.
स्वदेश विकसित तकनीक
चंद्रयान-1 भारत का पहला चंद्रमा मिशन है, जिसे 22 अक्तूबर, 2008 को श्रीहरिकोटा से सफलता पूर्वक लॉन्च किया गया था. यह अंतरिक्ष यान चंद्रमा की कक्षा में उसके सतह से करीब सौ किलोमीटर की ऊंचाई से वहां के रसायनों, खनिज पदार्थो और फोटो-जियोलॉजिक मानचित्रों को हासिल करने में सक्षम रहा है.
अब चंद्रयान-2 के बारे में राधाकृष्णन का कहना है कि इस तथ्य को जांचने के लिए अध्ययन किया गया था कि क्या हम स्वदेशी लैंडर और रोवर विकसित कर पायेंगे. इस संबंध में बेहतर नतीजे प्राप्त होने के बाद इसरो ने इस परियोजना को आगे बढ़ाने का फैसला लिया. मई, 2012 में लैंडर को विकसित करने के संबंध में संभाव्यता अध्ययन कार्य किया गया, जो अब पूरा हो चुका है. राधाकृष्णन का कहना है कि हमने यह जान लिया है कि भारत स्वदेशी लैंडर विकसित करने में पूरी तरह से सक्षम हो पायेगा. इसके लिए हमें दो-तीन वर्षो के समय की जरूरत है. हालांकि, राधाकृष्णन ने यह भी कहा है कि लैंडर में लगाये जानेवाले कुछ तकनीकी उपकरणों को विकसित किया जाना अभी शेष है. इस कार्य में पेश आनेवाली कुछ प्रमुख चुनौतियों के बारे में उनका कहना है, ‘सबसे पहले तो हमें लैंडर के वेग (वेलोसिटी) को कम करने की जरूरत है, ताकि इसे आसानी से सतह पर उतारा जा सके. दूसरा, लैंडर में शामिल मेकेनिज्म को विकसित करने की जरूरत है. तीसरा, यह तय करना है कि इसे चंद्रमा की सतह पर कहां उतारा जाये, ताकि यह ज्यादा से ज्यादा महत्वपूर्ण तसवीरें लेने में सक्षम हो सके.’
‘चंद्रयान-2’ को हरी झंडी
वर्ष 2008 में भारत ने चंद्रयान-1 का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया था. उसी समय चंद्रमा के बारे में विस्तृत अध्ययन के लिए मिशन चंद्रयान-2 संचालित करने का फैसला लिया गया था. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में 18 सितंबर, 2008 को आयोजित केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में इस अभियान को स्वीकृति दी गयी थी. हालांकि इससे पहले 12 नवंबर, 2007 को ही इसरो और रूसी अंतरिक्ष एजेंसी ‘रोसकोसमोस’ के प्रतिनिधियों ने ‘चंद्रयान-2’ परियोजना पर साथ काम करने के एक समझौते पर हस्ताक्षर किये थे. इसमें तय किया गया था कि ऑर्बिटर तथा रोवर की मुख्य जिम्मेदारी इसरो की होगी, जबकि रोसकोसमोस लैंडर के लिए जिम्मेदार होगा. इस अंतरिक्ष यान के डिजाइन को अगस्त, 2009 में पूर्ण कर लिया गया, जिसमें दोनों देशों के वैज्ञानिकों ने अपना संयुक्त योगदान दिया.
रूस का असहयोग
इसरो के अध्यक्ष के राधाकृष्णन ने पूर्व में इस मिशन की तैयारी के संबंध में कुछ चिंता जताते हुए कहा था कि चंद्रयान-2 के प्रक्षेपण में अभी बहुत समय लग सकता है, क्योंकि लैंडर की उपलब्धता को लेकर संशय बना हुआ है. दरअसल, भारत को यह रूस से हासिल होना था और यह कब मिलेगा इस पर भी संशय की स्थिति बरकरार थी. भारत-रूस का साझा अभियान चंद्रयान-2 दरअसल चंद्रयान-1 का ही विस्तार है. इसके तहत चंद्रयान-1 द्वारा रिमोट सेंसिंग के जरिये भेजी गयी सूचनाओं का लैंडर व रोवर के माध्यम से चंद्रमा की सतह पर उतर कर भौतिक परीक्षण किया जाना है. इस अभियान के लिए इसरो ने रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रॉसकॉसमॉस से नवंबर, 2007 में करार किया था. उस समय तय हुआ था कि इस अभियान के लिए इसरो का जिम्मा ऑरबिटर (ग्रह की सतह पर उतरे बगैर उसकी परिक्रमा करनेवाला अंतरिक्ष यान) मुहैया कराना होगा, जबकि अभियान के लिए लैंडर उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी रूस को सौंपी गयी थी.
बाद में इसरो की ओर से बताया गया कि रूस द्वारा मंगल पर भेजे जानेवाले एक मिशन की असफलता के बाद से रूस ने चंद्रयान-2 से अपना कदम पीछे खींच लिया. इसरो की ओर से कहा गया कि मई, 2012 में रूस ने बताया कि अभियान के लिए लैंडर विकसित करने में उसे अब काफी समय लगेगा. वह इस अभियान के लिए लैंडर का प्रायोगिक परीक्षण वर्ष 2015 में करेगा. फिर उसका इस्तेमाल 2017 में अपने एक मिशन के लिए करेगा. उसके बाद ही चंद्रयान-2 का नंबर आ सकता है. साथ ही, इसकी कोई तय समयसीमा भी नहीं बतायी गयी. देसी और रूसी क्रायोजेनिक इंजन से इस यान का परीक्षण 2010 में दो बार असफल रहा था. उस समय भी इसकी समयसीमा को लेकर आशंका जतायी गयी थी.
स्वेदशी मिशन पर जोर
इस घटनाक्रम के बाद से भारत ने इस मिशन की कामयाबी के लिए स्वदेश आधारित तकनीक पर काम शुरू किया. साथ ही, क्रायोजेनिक इंजन को विकसित करने पर भी जोर दिया. भारत को सबसे बड़ी कामयाबी उस समय हासिल हुई, जब इसरो ने गत पांच जनवरी को जियो-साइक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च वेहिकल (भू-स्थैतिक उपग्रह प्रक्षेपण वाहन) यानी जीएसएलवी डी-5 का सफल प्रक्षेपण किया. इसमें भारत में निर्मित क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल किया गया है. यह वही इंजन है, जिसे विकसित करने में भारत को बीस वर्ष का समय लगा है. भारत यह तकनीक पहले रूस से हासिल करना चाहता था. इस तकनीक का महत्व इसलिए है, क्योंकि दो हजार किलोग्राम वजन के उपग्रहों को प्रक्षेपित करने के लिए क्रायोजेनिक इंजन की जरूरत पड़ती है. इसके बूते किसी उपग्रह को 36,000 किलोमीटर दूर स्थित कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित किया जाता है. क्रायोजेनिक इंजन भारत के संचार उपग्रहों को प्रक्षेपित करने के साथ मिशन चंद्रयान-2 के लिए बेहद उपयोगी साबित हो सकता है.
मिशन के लैंडर और रोवर
चंद्रयान-2 भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) तथा रूस की अंतरिक्ष एजेंसी रोसकोसमोस (आरकेए) का एक प्रस्तावित चंद्र अन्वेषण अभियान है, जिसकी लागत तकरीबन 426 करोड़ है. इस परियोजना से जुड़े वैज्ञानिकों के मुताबिक, पहले मिशन के लिए 386 करोड़ रुपये की लागत आयी थी. चंद्रयान-2 के लिए 40 करोड़ की ज्यादा लागत आ सकती है. जीएसएलवी प्रक्षेपण यान द्वारा प्रस्तावित इस अभियान में भारत में निर्मित एक लूनर ऑर्बिटर (चंद्रयान) तथा एक रोवर एवं रूस द्वारा निर्मित एक लैंडर शामिल होंगे. इसरो के अनुसार, यह अभियान विभिन्न नयी प्रौद्योगिकियों के इस्तेमाल तथा परीक्षण के साथ-साथ नये प्रयोगों को भी अंजाम देगा. रोवर का वजन 30 किलो से 100 किलो तक होगा, जो सेमी-हार्ड लैंडिंग या सॉफ्ट लैंडिंग पर निर्भर करेगा. बताया गया है कि रोवर के संचालन की जीवन अवधि एक माह होगी. यह सौर ऊर्जा से संचालित होगा. हालांकि, इसरो यह चाहता है कि इसकी संचालन अवधि दो से तीन माह तक की हो और इंजीनियर इस दिशा में कार्य भी कर रहे हैं. इसके लिए इसमें सौर ऊर्जा से संचालन होने के अलावा बैटरी बैक -अप के विकल्प पर कार्य किया जा रहा है, ताकि सूर्य की किरणों से ऊर्जा हासिल नहीं होने के समय इसे बैटरी से भी चलाया जा सके. इसमें ऐसे इंतजाम किये जा रहे हैं कि सौर ऊर्जा उपलब्ध होने की दशा में सोलर पावर बैटरी सेल को रिचार्ज किया जा सके, ताकि यह उपकरण बिना रुके हुए निरंतर काम कर सके. पहियेदार रोवर चंद्रमा की सतह पर चलेगा तथा ऑन-साइट विेषण के लिए मिट्टी या चट्टान के नमूनों को एकत्र करेगा. इससे प्राप्त आंकड़ों को चंद्रयान-2 ऑर्बिटर के माध्यम से पृथ्वी पर भेजा जायेगा. मायलास्वामी अन्नादुराई के नेतृत्व में चंद्रयान-1 अभियान को सफलतापूर्वक अंजाम देनेवाली टीम चंद्रयान-2 पर भी काम कर रही है. इस अभियान को श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से जीएसएलवी एमके के द्वारा भेजे जाने की योजना है. उड़ान के समय इसका वजन लगभग 2,650 किलो होगा. लैंडर तथा रोवर का वजन लगभग 1250 किलो होगा. रोवर सौर ऊर्जा द्वारा संचालित होगा.
मून रोवर की खासियत
चंद्रयान-2 मून रोवर को रूस के वैज्ञानिकों की मदद से तैयार किया गया है. इसके विकास में आइआइटी कानपुर का भी योगदान रहा है. यहां इसके कुछ उपकरणों का डिजाइन तैयार किया गया है.
इसमें मुख्यत: तीन उपकरण लगाये जा रहे हैं.
1. स्टेरोफोनिक कैमरा आधारित 3डी विजन
स्टीरिया विजन कैमरा पृथ्वी से इसे नियंत्रित कर रहे विशेषज्ञों को चंद्रमा की सतह से 3डी चित्र मुहैया करायेगा.
2. काइनेमेटिक ट्रैक्शन कंट्रोल
काइनेमेटिक ट्रैक्शन कंट्रोल रोवर को चंद्रमा के उखड़े हुए सतह पर स्थापित करने यानी वहां चलने में सक्षम होने के लिए इनमें चार पहिये मुहैया करायेगा, ताकि यह स्वतंत्र रूप से इधर-उधर घूम सके.
3. कंट्रोल एंड मोटर डाइनामिक्स ऑफ द रोवर्स सिक्स व्हील
रोवर में छह पहिये हो सकते हैं. प्रत्येक पहिया एक स्वंतत्र इलेक्ट्रिकल मोटर से संचालित होगा. साथ ही, इसमें चार पहिये और भी अलग से लगे होंगे, जिनका नियंत्रण स्वतंत्र स्टियरिंग से होगा. इसे चलाने के लिए दस इलेक्ट्रिकल मोटर्स का इस्तेमाल किया जा सकता है. आइआइटी कानपुर ने इस परियोजना को मार्च, 2009 में ही पूरा कर लिया था और अंतिम परीक्षण के लिए इसरो को सौंप दिया था.
ऑर्बिटर में होंगे पांच पेलोड
ऑर्बिटर को इसरो द्वारा डिजाइन किया जायेगा और यह 200 किलोमीटर की ऊंचाई पर चंद्रमा की परिक्रमा करेगा. इस अभियान में ऑर्बिटर को पांच पेलोड के साथ भेजे जाने का निर्णय लिया गया है. तीन पेलोड नये हैं, जबकि दो अन्य चंद्रयान-1 ऑर्बिटर पर भेजे जानेवाले पेलोड के उन्नत संस्करण हैं. चंद्रमा की सतह से टकरानेवाले चंद्रयान-1 के लूनर प्रोब के विपरीत, लैंडर धीरे-धीरे नीचे उतरेगा.
चंद्रयान-2 ऑर्बिटर के पांच पेलोड इस प्रकार हो सकते हैं:
1. लार्ज एरिया सॉफ्ट एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (क्लास):
इसे इसरो सेटेलाइट सेंटर, बेंगलुरु और एक्स-रे मॉनीटर को फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी, अहमदाबाद में डिजाइन किया गया है.
2. एल एंड एस बैंड सिंथेटिक एपर्चर राडार:
इसे स्पेस एप्लीकेशन सेंटर, अहमदाबाद में डिजाइन किया गया है.
3. इमेजिंग आइआर स्पेक्ट्रोमीटर
इसे स्पेस एप्लीकेशन सेंटर, अहमदाबाद में डिजाइन किया गया है. इस उपकरण से चंद्रमा पर खनिज पदार्थो, पानी के अणुओं और हाइड्रोक्सिल की मौजूदगी से संबंधित अध्ययन में सहायता मिलेगी.
4. न्यूट्रल मास स्पेक्ट्रोमीटर :
इसे स्पेस फिजिक्स लेबोरेटरी, तिरुअनंतपुरम में विकसित किया गया है. इससे चंद्रमा के बाहरी मंडल का अध्ययन किया जा सकेगा.
5. टेरेन मैपिंग कैमरा 2 : इसे स्पेस एप्लीकेशन सेंटर, अहमदाबाद में तैयार किया गया है. यह चंद्रमा की खनिज और भू-विज्ञान संबंधी अध्ययन के लिए जरूरी थ्री-डी नक्शा तैयार करने में सहायता करेगा.
इसके अलावा, दो वैज्ञानिक पेलोड भी चंद्रयान-2 रोवर में होंगे, जो इस प्रकार हैं:
1. लेजर इन्ड्यूस्ड ब्रेकडाउन स्पेक्ट्रोस्कोप :
इसे इलेक्ट्रोऑप्टिक सिस्टम, बेंगलुरु में बनाया जायेगा.
2. अल्फा पार्टिकल इन्ड्यूस्ड एक्स-रे स्पेक्ट्रोस्कोप : इसे स्पेस एप्लीकेशन सेंटर, अहमदाबाद में डिजाइन किया जायेगा. इसरो की ओर से बताया गया है कि उम्मीद की जा रही है कि ये दोनों ही उपकरण चंद्रमा के सतह पर रोवर के उतरने की जगह पर मौजूद तत्वों का विश्लेषण करते हुए उसे भेजने में सक्षम होंगे.
क्या है क्रायोजेनिक इंजन
क्रायोजेनिक तकनीक को ‘निम्नतापकी’ कहा जाता है. इसका ताप ‘माइनस जीरो’ डिग्री से ‘माइनस 150’ डिग्री सेल्सियस होता है. दरअसल, ‘क्रायो’ यूनानी शब्द ‘क्रायोस’ से बना है, जिसका अर्थ ‘बर्फ जैसा ठंडा’ है. क्रायोजेनिक तकनीक का मुख्य प्रयोग रॉकेट में किया जाता है. इसमें ईंधन को क्रायोजेनिक तकनीक से तरल अवस्था में प्राप्त कर लिया जाता है. इस तकनीक में द्रव हाइड्रोजन एवं द्रव ऑक्सीजन का प्रयोग किया जाता है.
दरअसल, किसी रॉकेट को अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करने के दौरान उसका ईंधन भी साथ में ले जाना पड़ता है. ऐसे में सबसे हल्का ईंधन तरल हाइड्रोजन और तरल ऑक्सीजन है और उसे जलाने पर सबसे अधिक ऊर्जा मिलती है.
इसमें मुख्य बात यह है कि रॉकेट कितनी तेजी से जा रहा है और रॉकेट के साथ जितना कम वजन होगा वह उतनी अधिक दूरी तक जा सकेगा. क्रायोजेनिक इंजन शून्य से बहुत नीचे यानी क्रायोजेनिक तापमान पर काम करते हैं. माइनस 238 डिग्री फॉरेनहाइट को क्रायोजेनिक तापमान कहा जाता है. इस तापमान पर क्रायोजेनिक इंजन का ईंधन ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैसें तरल यानी द्रव बन जाती हैं.
द्रव ऑक्सीजन और द्रव हाइड्रोजन को क्रायोजेनिक इंजन में जलाया जाता है. द्रव ईंधन जलने से इतनी ऊर्जा पैदा होती है, जिससे यह क्रायोजेनिक इंजन को 414 किलोमीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार देने में कामयाब होता है. क्रायोजेनिक इंजन के प्रणोद में तापमान बहुत ऊंचा (2000 डिग्री सेल्सियस से अधिक) होता है. ऐसे में सर्वाधिक प्राथमिक कार्य अत्यंत विपरीत तापमान पर इंजन की व्यवस्था को सुचारु बनाये रखने की क्षमता अर्जित करना होता है.
क्रायोजेनिक इंजनों में तापमान में काफी उतार-चढ़ाव होता है, इसलिए प्रणोद (थ्रस्ट) चैंबरों, टर्बाइनों और ईंधन के सिलेंडरों के लिए कुछ विशेष प्रकार की मिश्रित धातु की जरूरत होती है. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) ने बहुत कम तापमान को आसानी से झेल सकनेवाली मिश्रित धातु को विकसित किया है.