कभी शादी को सात जन्मों का रिश्ता कहा जाता था, लेकिन आज सात दिन, सात महीने या सात साल भी रिश्ता चल सके, कहना मश्किल है. कारण जो भी हो, लेकिन भुगतना तो बच्चों को ही पड़ता है.
सुजाता की शादी को 16 साल हो गये. लेकिन कभी भी दोनों एक-दूसरे की पसंद न बन सकें. 15 साल का बेटा है. तलाक की अर्जी कोर्ट में पड़ी है. हिस्सा, जायदाद के लिए कई सालों से सुनवाई चल रही है, लेकिन तलाक का फैसला नही हो पाया है. बेटे को उसकी दादी और पापा रखते हैं एवं मां (सुजाता) से मिलने नहीं देते. बेटा डरा-डरा रहता है. उसे मां की कमी महसूस होती है. इस बात को कोई समझना नहीं चाहता. स्कूल में भी मां के मिलने पर प्रतिबंध है. स्कूल से पिता को शिकायत आती है कि वह काफी गुमशुम रहता है, पढ़ाई भी ठीक से नहीं करता. लेकिन पिता ने उसकी जिम्मेदारी अपनी मां-बहनों पर छोड़ रखी है. माता-पिता के अलगाव ने बच्चे को डिप्रेशन में ला दिया है.
वह अपनी पीड़ा किसी को बता नहीं पाता. ऐसे कई केसेज आते है, जहां तलाक के बाद जो पक्ष मजबूत होता है बच्चा उसके हिस्से में चला जाता है. मानो वह कोई वस्तु हो. कभी-कभी किसी केस में बच्चे को कुछ दिन मां, तो कुछ दिन पिता के पास रहने की इजाजत मिलती है. बच्चा जिसके पास जाता है, वे बच्चे को खुश करने के लिए खूब घुमाते-फिराते है. ढेरों खिलौने एवं खाने की चीजें देते हैं एवं प्यार-दुलार कर बच्चे को अपनी तरफ खींचने की कोशिश करते हैं. वहीं बच्चा उनकी कमजोरी का फायदा उठाने लगता है. बचपन से चापलूसी एवं झूठ बोलने की आदत विकसित कर लेता है.
रिश्तों में गुंजाइश को तलाशें
पति-पत्नी के बीच अनबन, मतभेद रहना या गृहस्थ जीवन का न निभना कोई बड़ी बात नहीं. पहले जहां लोग ऐसे हालात में समझौता कर जीवन भर साथ निभा लेते थे, आज के युवाओं में वह बात नहीं. वे तुरंत आवेश में अलग हो जाने तक का फैसला ले लेते हैं. इससे यह बात समझ आती है कि जिसे हम व्यक्तिगत आजादी कहने लगे हैं, वह खुदगर्जी है, जो रिश्तों की अहमियत भी नहीं पहचानता.
अगर विवाह जैसे संस्थान में रिश्ते का मोल ही खत्म हो जाये, भावनाएं मर जायें, तो अलग हो जाना ही बेहतर है. मगर यह फैसला लेना तब ज्यादा कठिन हो जाता है जब पति-पत्नी के बीच उनका बच्चा भी हो. ऐसे में उनका फैसला सिर्फ उनका नहीं होता, वह बच्चे के जीवन को भी प्रभावित करता है. इसलिए अगर आपको अपने बच्चे से प्यार है, उसके भविष्य की तनिक भी चिंता है, तो रिश्ते को निभाने पर जोर देना चाहिए. इसके लिए अपने अहंकार, निजी स्वार्थ का त्याग करना पड़े तो करिए.
खुद से करें एक सवाल
सबसे पहली बात कि विवाह दो लोगों, दो परिवारों को जोड़नेवाला अटूट बंधन होता है. इसका फैसला बेहद सोच-समझदारी से लेना चाहिए. ज्यादातर ऐसे मामलों के पीछे कोई अनचाही बात छिपी होती है, जिसे नजरअंदाज कर विवाह किया गया हो.
चाहे बात पसंद-नापसंद की हो, घरवालों का दबाव या फिर जब बिना समझे-जाने यह फैसला लेते हैं, तो ऐसे नतीजे सामने आते हैं. यह तो हुई एहतियात की बात, मगर इन सबके बावजूद हालात ऐसे बन जायें कि अलग होना ही जीवन के लिए सही निर्णय है, तो आपसी समझ-बूझ से ऐसे रास्ते बनाएं, जिससे बच्चे का जीवन कम-से-कम प्रभावित हो. उसकी पढ़ाई-लिखाई व परवरिश की जिम्मेवारियों को ईमानदारी से निभाने की योजना बनाएं. ऐसे फैसले में घर के बड़े-बुजुर्गों को शामिल करें. कोई भी फैसला लेते समय यह हमेशा याद रखें कि बच्चे के मानसिक व शारीरिक विकास के लिए माता-पिता दोनों का साथ उसके लिए जरूरी है. खुद से सवाल करें कि आप जो फैसला लेने जा रहे हैं उसमें किसका हित ज्यादा बड़ा है- आपका या आपके बच्चे का? जो जवाब मिले, उसे अपने जीवन के लिए सही मानें.
सुमन (42) की शादी के 10 साल हो गये. 9 साल की बेटी एवं सात साल का बेटा है. वह नौकरी करती है. प्रेम विवाह किया था, साथ जीने-मरने की कसमें खायी थीं, लेकिन शादी के कुछ ही महीने बाद से दोनों के बीच अनबन शुरू हो गयी. कभी घर की जिम्मेदारी, कभी एक-दूजे के प्रति बेरुखी. नौबत ऐसी आयी कि पति-पत्नी ने अलग होने का फैसला ले लिया. तलाक के ज्यादातर मामलों में बच्चों की कस्टडी मां को मिलती है, सो सुमन को भी मिली. कोर्ट के अनुसार बच्चे कभी-कभार पिता से मिल सकते हैं. बेटी अपने पिता को बहुत प्यार करती है, लेकिन पिता उसके लिए अब पराये हो चुके. दोनों बच्चे पिता के प्यार से वंचित हो गये. अगर वे मां से पिता की बात करते, तो मां उन्हें डांट देती. बच्चे सहम जाते. बच्चे गुमशुम रहने लगे हैं.