अभय कुमार दुबे ‘हिंदू-एकता बनाम ज्ञान की राजनीति’ में कहते हैं कि उनकी शैली विमर्श-नवीसी की है, और उनका अंदाज विवादात्मक है. उनका मकसद उन मुद्दों पर बहस को दोबारा खोलना है, जिनके बारे में निकाले जा चुके निष्कर्षो को प्रश्नांकित करना लोगों ने कई दशकों से छोड़ रखा है.
उनका स्वर लगभग निष्कर्षात्मक है कि वर्तमान समय में मध्यमार्गी विमर्श अपनी प्रभुत्वशाली स्थिति से वंचित होकर एक कोने में सिमट गया है. लेकिन यह भी सच है कि जिस मध्यमार्गी विमर्श को वर्षों-वर्षों की मेहनत कर हाशिये पर ला पटका गया था, वहां से वह विमर्श फिर एक बार वैचारिक विमर्श के मुख्यधारा में वापस लौट आया है. इसका सबसे बड़ा कारण है दक्षिणपंथी-विमर्श का भारतीय परंपरा, विस्मरण और स्मृति-निर्माण को लेकर चल रहे अब तक के तमाम विमर्शों को अपने में समाहित न कर पाना है. साथ ही उस विमर्श का फलितार्थ राजनीतिक स्थिरता के अनुकूल नहीं है.
अपने प्राक्कथन में ही राजनीतिक सहीपन पर विचार करते हुए दुबे कहते हैं– ‘मेरे विचार से राजनीतिक सहीपन एक ऐसा वर्चस्वी आग्रह है जिसके तहत सार्वजनिक और बौद्धिक जीवन में सक्रिय लोग स्वयं को पहलकदमी पर सेंसर करते हैं.
इस खास तरह के सेंसर के तहत लोग ऐसे सभी विचारों और तर्कों को ग्रहण करने से स्वयं को रोकते हैं, जो उस राजनीतिक सहीपन के दायरे में फिट न होते हों.’ वह आगे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इसी विमर्श के जरिये ज्ञान की यह राजनीति अपने ही उद्देश्यों के विपरीत चली जाती हैं, जिन्हें साधना उसका मकसद होता है.
और, छह आस्थाओं पर टिकी बहुसंख्यकवादी विमर्श के राजनीतिक सहीपन की संरचना का जिक्र करते हुए उनकी नजर वहां भी जाती है, जहां मध्यमार्गी विमर्श एक छद्म तैयार करने लगता है. वे इस छद्म के बारे साफ कहते हैं कि हिंदुत्व के मुखर आलोचक यह मानने में बिल्कुल देर नहीं लगायेंगे कि भारत के सभी समुदाय आंतरिक बहुलता और विविधता से संपन्न है. लेकिन सार्वजनिक जीवन में होनेवाली बहस कुछ इस तरह से विन्यस्त होती है कि भारतीय बहुलतावाद का आईना हमेशा केवल हिंदू बहुलतावाद की छवियां ही दिखाता रह जाता है.
अल्पसंख्यक समुदाय इस चर्चा में हमेशा एकाश्म रूप से ही उभरते हैं. पूरी किताब एक दीर्घ निबंध है, जिसके पांच हिस्से हैं. दुबे ने अपनी इस विमर्श-नवीसी में किसी भी पक्ष को बचाने की कोशिश नहीं की है.
कहना न होगा कि इसी मध्यमार्गी विमर्श इसी साहस की कमी के कारण हाशिये से जा लगा है. इस संदर्भ में दार्शनिक प्रद्योत कुमार मुखोपाध्याय के इस सूत्रीकरण पर भी विचार किया जाना चाहिए कि ‘हमारी जड़ें अपनी संस्कृति में होनी चाहिए और उसके बाद ही हमें विचार-विमर्श करना चाहिए.’ यह किताब पाठकों को लंबी बहस और तर्क-वितर्क का निमंत्रण देती है.
हिंदू-एकता बनाम ज्ञान की राजनीति / अभय कुमार दुबे / वाणी प्रकाशन : दरियागंज, नयी दिल्ली 2019 / ₹ 550
