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मकर संक्रांति के मेवे बाहर से सख्त, भीतर से मुलायम

सर्दियों में हमारे गांव-देहात में अनाज से घर पर बनीं मिठाइयां बेहद लोकप्रिय हैं. यह नफीस नाजुक मिठाइयों की तुलना में कहीं अधिक टिकाऊ होती हैं और इसलिए एक जमाने में ये मिठाइयां सफर में उपयोगी समझी जाती थीं. दूध में गूंथे आटे से तैयार ये व्यंजन बाहर से सख्त, मगर भीतर से बहुत मुलायम […]

सर्दियों में हमारे गांव-देहात में अनाज से घर पर बनीं मिठाइयां बेहद लोकप्रिय हैं. यह नफीस नाजुक मिठाइयों की तुलना में कहीं अधिक टिकाऊ होती हैं और इसलिए एक जमाने में ये मिठाइयां सफर में उपयोगी समझी जाती थीं. दूध में गूंथे आटे से तैयार ये व्यंजन बाहर से सख्त, मगर भीतर से बहुत मुलायम होते हैं. ठेकुआ आज भी घरों में बनाया जाता है, परंतु खजूर और शकरपारे लुप्तप्राय हैं. ऐसे ही तरह-तरह के खस्ता और जुबान को लुभानेवाले जायकों के बारे में हम बता रहे हैं…

पुष्पेश पंत
उत्तराखंड के गावों और कस्बों में मकर संक्रांति के दिन ‘घुघुतिया’ नामक त्योहार मनाने की परंपरा है. इस दिन तरह-तरह की आकृतियों में आटे-गुड़/चीनी और घी से ‘खजूर’ बनाये जाते हैं. फिर इन्हें स्थानीय ‘नारिंग’ (संतरों) के साथ माला में पिरो बच्चों के गले में पहनाया जाता है.
वह कौवौं को पुकारते, माला से ललचाते हैं और इस मिठाई के बदले तरह-तरह के उपहारों की फरमाइश करते हैं. घुघुते भले ही मकर संक्रांति के पर्व पर ही बनाये जाते हैं, छोटे-बड़े शकरपारे/खजूर लंबे सफर में भूख मिटाने में बहुत काम आते हैं.
बुजुर्ग तीर्थयात्री और पर्वतारोही पाथेय के रूप में इन ‘खजूरों’ को साथ ले जाते थे. पहाड़ों में ताजा खजूर दुर्लभ थे और इनका सूखा छुहारे वाला रूप ही देखने और चखने को मिलता था. शायद इनके सख्त कलेवर और हल्की मिठास के कारण ही घुघुते खजूर के साथ जुड़ गये!
यह सब यादें अनायास ताजा हो गयीं, जब झारखंड से आये एक मित्र ने हमें छठ के महापर्व के प्रसाद के रूप में घर से लाया ‘ठेकुआ’ प्रसाद में खिलाया. बिल्कुल वैसा ही स्वाद- दिखने में सख्त, भीतर से मुलायम! ठेकुआ सौंफ तथा किशमिश से सुवासित था और पहाड़ी ‘घुघुतों’ को मात दे रहा था. यह पकवान-मिष्ठान बिहार, झारखंड, पड़ोसी बंगाल एवं नेपाल की तराई में समान रूप से लोकप्रिय है.
इसे कहीं-कहीं पर खजूरी नाम से भी पहचाना जाता है. आजकल अपनी प्रांतीय अस्मिता को महिमामंडित करने के प्रयास में ठेकुए का परिष्कृत खूबसूरत सांचों में ढला अवतार प्रकट हुआ है, जो सरसरी निगाह डालने पर बंगाल के नलिन गुड़ वाले ‘कडे सौंदेश’ का भ्रम पैदा करता है.
पश्चिमी भूभाग में ‘शंकरपल्ली’ नामक मिठाई की पाकविधि ऐसी ही है. पंजाब के शकरपारे जो आटे और मैदे दोनों से बनाये जाते हैं, एक तरह से ठेकुए उर्फ खजूरी के ही मौसेरे-चचेरे भाई लगते हैं.
कश्मीर की घाटी में जो मीठी रोट पंडित समुदाय में चाव से खायी-खिलायी जाती है, रंगत और जायके में फर्क नहीं होती. दक्षिण भारत का मीठा ‘अडै’ भले ही चावल के आटे से तैयार किया जाता है, मौसम के बदलाव के साथ अधिक पौष्टिक खुराक को सर्वसुलभ बनाने का ऐसा ही प्रयास जान पड़ता है.
सिंधी रसोई में जो मीठी ‘लोलो रोटी’ पकायी जाती है, उसके लिए भी आटे, चीनी की चाशनी/गुड़ और घी-दूध का इस्तेमाल किया जाता है. शिया मुसलमान मुहर्रम के अवसर पर जो ‘मीठी रोट’ तैयार करते हैं, उसके मिश्रण को और भी गरिष्ठ बनाने के लिए उसमें मावा, किशमिश तथा चिरौंजी डालते हैं. आजकल इन बड़ी मोटी रोटों की जगह इनके छोटे-छोटे टुकड़े काट कर मिल-बांटकर खाये जाते हैं, जो घुघुतों की याद दिलाते हैं.
देहात में अनाज से घर पर बनी मिठाइयां देश के सभी सूबों में लोकप्रिय रही हैं. यह नफीस नाजुक मिठाइयों की तुलना में कहीं अधिक टिकाऊ होती है और इसी कारण सफर में उपयोगी समझी जाती थीं.
दूध में गूंथे आटे से तैयार ये व्यंजन और भी खस्ता और लुभावने होते हैं. ठेकुआ आज भी घरों में बनाया जाता है, परंतु खजूर और शकरपारे लुप्तप्राय हैं. हां कुछ कस्बाती मिजाज के नमकीन-मिठाई बेचनेवाले चीनी के पाक में भीगे या गुड़ से तैयार किये गुड़पारे अपनी दूकान पर रखते हैं. इनके साथ यादों की बारात भला कैसे सज सकती है?
रोचक तथ्य
घुघुते भले ही मकर संक्रांति के पर्व पर ही बनाये जाते हैं, छोटे-बड़े शकरपारे/खजूर लंबे सफर में भूख मिटाने में बहुत काम आते हैं.
पंजाब के शकरपारे जो आटे और मैदे दोनों से बनाये जाते हैं, एक तरह से ठेकुए उर्फ खजूरी के ही मौसेरे-चचेरे भाई लगते हैं.
सिंधी रसोई में जो मीठी ‘लोलो रोटी’ पकायी जाती है, उसके लिए भी आटे, चीनी की चाशनी/गुड़ और घी-दूध का इस्तेमाल किया जाता है.सौंफ तथा किशमिश से सुवासित ठेकुआ तो अकसर पहाड़ी ‘घुघुतों’ को मात दे देता है.

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