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चुनावों के समय जेलों में जैमर की खटकती है कमी, मतदाताओं पर मोबाइल फोन के जरिये बनाया जाता है दबाव

सुरेंद्र किशोर वरिष्ठ पत्रकार यह शिकायत नयी नहीं है. दुर्दान्त अपराधी जेलों में बैठकर भी बाहर अपराध करवाते हैं. इसके अलावा वे चुनाव के दिनों में किसी खास उम्मीदवार को वोट देने के लिए मतदाताओं को धमकाते हैं. यह काम आमतौर पर मोबाइल फोन के जरिये होता है. यदि जेलों में कारगर जैमर लगे होते […]

सुरेंद्र किशोर

वरिष्ठ पत्रकार

यह शिकायत नयी नहीं है. दुर्दान्त अपराधी जेलों में बैठकर भी बाहर अपराध करवाते हैं. इसके अलावा वे चुनाव के दिनों में किसी खास उम्मीदवार को वोट देने के लिए मतदाताओं को धमकाते हैं. यह काम आमतौर पर मोबाइल फोन के जरिये होता है. यदि जेलों में कारगर जैमर लगे होते तो मोबाइल फोन काम नहीं कर पाते.

अपराधी जेलों से अपने प्रभाव क्षेत्रों के मतदाताओं को निर्देशित करे और उसके अनुसार वोट पड़े तो फिर कम से कम वहां लोकतंत्र कहां रहा? बिहार सहित देश की विभिन्न सरकारों ने जेलों में जैमर लगाने की कई बार कोशिश की. कई जेलों में जैमर लगाये भी गये. कुछ जेलों में वे काम भी कर रहे हैं. पर, अधिकतर जेलों की इस मामले में स्थिति दयनीय है. कहीं जैमर है नहीं. कहीं हैं भी तो वे ठीक से काम नहीं कर रहे हैं.

कुछ जगहों से शिकायत है कि संबंधित जैमर की तकनीकी पुरानी पड़ चुकी है. उसे अपडेट यानी अद्यतन नहीं किया जा रहा है. कुछ मामलों में तो जानबूझकर जैमर को खराब कर दिया जाता है. अनेक मामलों में जैमर की खरीद में घोटाले के कारण भी घटिया जैमर लगा दिये जाते हैं. यदि कम से कम देश के सभी केंद्रीय कारागारों में आधुनिकतम तकनीक वाले उच्च गुणवत्ता के जैमर लगा दिये जाएं तो मतदाताओं को जेलों से धमकाने का काम नहीं हो पायेगा. इसके अन्य फायदे भी हैं.

उत्तराधिकारी वही जिसकी पीठ पर सुप्रीमो का हाथ

वंशवादी दलों का उत्तराधिकार कैसे तय होता है? दरअसल, दलीय सुप्रीमो अपने जिस परिजन की पीठ पर हाथ रख दे, उसे ही उस दल के नेता व उसके वोटर स्वीकार कर लेते हैं. वंशवादी दलों का मुख्य जनाधार आमतौर पर जातीय होता है. जातीय आधार को नेता के साथ बांधे रखना आसान भी होता है.

जहां आधार जातीय नहीं भी है, वहां के खास मतदातागण दलीय सुप्रीमो के साथ बंधे रहते हैं. 1980 में संजय गांधी के निधन के बाद इंदिरा गांधी ने मेनका गांधी के बदले राजीव गांधी को चुना जबकि तब मेनका, राजीव की अपेक्षा राजनीतिक रूप से अधिक समझदार थीं. शिव सेना के सुप्रीमो बाल ठाकरे ने अपने पुत्र उद्धव ठाकरे को अपना उत्तराधिकारी बनाया, जबकि भतीजे राज ठाकरे में अधिक तेजस्विता है.

शिव सैनिकों व वोटरों ने उद्धव को ही स्वीकार कर लिया, क्योंकि बाल ठाकरे की यही इच्छा थी. करूणानिधि को अपने पुत्र अलागिरी और एम.के. स्टालिन के बीच चयन करना था. उन्होंने अपने बड़े पुत्र अलागिरी के दावे को नजरअंदाज करके छोटे पुत्र एम.के. स्टालिन को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया. करूणानिधि के निधन के बाद अलागिरी ने पार्टी पर दबाव बनाया, पर डीएमके ने स्टालिन को ही अपना नेता माना, क्योंकि करूणानिधि की यही इच्छा थी. पार्टी के अलावा डीएमके के वोट बैंक ने भी स्टालिन को ही स्वीकारा.

1952 के चुनावी दृश्य की एक झलक

रामवृक्ष बेनीपुरी ने 1952 के चुनाव पर वैसे तो विस्तार से लिखा है, पर फिलहाल उनमें से उनके कुछ वाक्य यहां प्रस्तुत हैं. ‘कांग्रेस का समर्थन दो ही तबके कर रहे हैं-हिन्दुओं में वे लोग, जो बड़े जमीन्दार हैं और अंग्रेजों के राज में अमन सभा में थे. इसी गांव को देखिए. यहां के जुल्मी जमीन्दार के तहसीलदार और अमले कांग्रेस के कार्यकर्ता बने हुए हैं और वे लाठी से हांक कर कांग्रेस को वोट दिलाना चाहते हैं.’ ‘……..भोर होते ही बाबू लोग गरीबों को घर -घर घूम कर धमकाने लगे कि तुम लोग वोट देने नहीं जाओ-यदि जाओगे तो देख लेना. धमकियां-गन्दी से गन्दी गालियां.’

और अंत में

हाल में एक नेता जी ने कैमरे पर यह फरमाया है कि ‘पिछले लोकसभा चुनाव में हमारे दल के छह उम्मीदवारों पर हमारे करीब 50 करोड़ रुपये खर्च हुए.’

कोई व्यक्ति यह अनुमान लगा सकता है कि उस अनुपात में वे विधानसभा के छत्तीस उम्मीदवारों पर भी अलग से 50 करोड़ रुपये खर्च करते रहे होंगे. मान लीजिए कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ होने लगें तो उस नेता

जी के कितने पैसे बच जायेंगे? फिर भी इस देश के बड़े नेतागण फिर से एक साथ चुनाव कराने पर एकमत क्यों नहीं होते?

Prabhat Khabar Digital Desk
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