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लजीज कोफ्ते की गर्म कैफियत

शौकीनों को सर्दियों में कोफ्ते न मिलें, तो उन्हें बड़ी कोफ्त होती है. शाकाहारी हों या मांसाहारी, लजीज खाने के शौकीन तो नर्म कोफ्ते की गर्म तासीर में खुद को बिंधे हुए ही अच्छा महसूस करते हैं. जाहिर है, कड़ाके की ठंड में अगर गर्म कोफ्ते खाने को मिल जाएं, तो उनका मजा दोगुना हो […]

शौकीनों को सर्दियों में कोफ्ते न मिलें, तो उन्हें बड़ी कोफ्त होती है. शाकाहारी हों या मांसाहारी, लजीज खाने के शौकीन तो नर्म कोफ्ते की गर्म तासीर में खुद को बिंधे हुए ही अच्छा महसूस करते हैं. जाहिर है, कड़ाके की ठंड में अगर गर्म कोफ्ते खाने को मिल जाएं, तो उनका मजा दोगुना हो जाता है. विभिन्न प्रकार के कोफ्तों के बारे में बता रहे हैं व्यंजनों के माहिर प्रोफेसर पुष्पेश पंत
जाड़े के मौसम में खाने-पीने की तरह-तरह की सौगातें भारत के विभिन्न प्रदेशों में हमें ललचाती हैं, खासकर वहां, जहां छह ऋतुएं होती हैं. कहीं हलुवों की बहारें हैं, तो कहीं कोरमे और सालन की नुमाइश. खाना न केवल गर्मा-गर्म अच्छा लगता है, बल्कि अगर खाये जानेवाले व्यंजन की तासीर भी गर्म हो, तब उसका मजा ही दोगुना हो जाता है.
ठंड चाहे कितने भी कड़ाके की क्यों न हो, वह परेशान नहीं कर सकती. खाना पकानेवाले को भी इन दिनों रसोई की ऊष्मा सुखद लगती है और चूल्हे की आंच सेंकते घरवालों की फरमाइशों को पूरा करने का मन भी करता है. बहरहाल!
हमारी एक दोस्त नेे अभी हाल में अपने घर की दावत में हमारी खातिर नर्गिसी कोफ्तों से की. इन्हें बनाने के लिए खासे कौशल की दरकार होती है. कीमे को मुलायम पीसकर उसकी चादर में उबले अंडे पकाये जाते हैं. जब गाढ़े शोरबे में लपेटकर हमें पेश किया गया, तो अनायास वह शेर याद आ गया- हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा!
बदकिस्मती यह है कि न केवल नर्गिसी कोफ्ते, बल्कि सभी सामिष कोफ्ते शक के दायरे में फंसकर चलन के बाहर होते जा रहे हैं. खानेवालों को लगता है कि जब तक कीमा अपनी आंखों के सामने न बनवाया गया हो, मिलावट के कारण मुंह में डालने लायक नहीं होता. खैर, हमें जो नर्गिसी कोफ्ते खिलवाये गये, उन्होंने कई और कोफ्तों की याद ताजा कर दी.
नन्हें-नन्हें सींक कबाब जैसी शक्ल वाले कश्मीरी कोफ्ते, जो पंडित परिवारों में दामाद की खातिरदारी में तर-ब-तर पराठे के साथ परोसे जाते थे. इनमें शोरबा नाम मात्र का रहता है और रंगत सुर्ख रोगन जोश वाली होती है.
मनमोहक महक सौंफ की और स्वादिष्ट पुट हींग का. यह उन मुगलिया कोफ्तों से जुदा है, जो रामपुर, दिल्ली, भोपाल और हैदराबाद में पकाये जाते हैं. अकसर इन्हें बारीक पिसे कच्चे कीमे की गोलियों को मसालेदार शोरबे में उबालकर पकाया जाता है. असली कलाकारी इसमें है कि बिना बेसन या फेंटा अंडा मिलाये ही धीमी आंच में खौलते वक्त इन्हें टूटने न दिया जाये.
राजा साहब सैलाना ने अपनी बहुचर्चित पाक पुस्तक में छुई-मुई के कोफ्तों का बखान किया है, जो हाथ लगाते ही भुरभरा जाते हैं. अवधी बावर्ची इन्हें ही नजाकत के कोफ्ते का नाम देते हैं. सभी कोफ्तों में एक कठिन चुनौती रहती है कोफ्तों और शोरबे के जायकों की जुगलबंदी साधने की. यह काम आसान नहीं है.
शाकाहारी भोजन के शौकीन कोफ्तों का आनंद लेते रहे हैं लौकी या कच्चे केले के कोफ्तों से, जिन्हें आजकल मलाई यानी पनीर के कोफ्तों ने विस्थापित कर दिया है. कटहल के या खुंब के कोफ्ते तो और भी दुर्लभ होते जा रहे हैं. आलू बुखारा और बादाम भरे कोफ्ते शाकाहारी कोफ्तों में नायाब माने जाते हैं. पश्चिमी खान-पान में जो फिश क्यूनैल हैं, एक तरह से मछली के कोफ्ते ही तो हैं.
सेलिब्रिटी शेफ संजय कपूर ने ‘श्याम सवेरा’ नामक अनूठा कोफ्ता ईजाद कर सभी को दंग कर दिया है. इसमें पालक पनीर के कोफ्ते को टमाटर के शोरबे में रख दोरंगा माहौल तैयार किया गया है.
अवध के परंपरा-प्रेमी बावर्ची न जाने क्यों टमाटर से कतराते हैं. इसलिए वे खटास के लिए पानी निथारे दही का इस्तेमाल करते हैं. पकाते वक्त दही फट न जाये, इस बात का खास ध्यान रखना पड़ता है. रोहिलखंड हो या अवध, फैजाबाद हो या हैदराबाद, हर जगह स्थानीय जबान पर चढ़े मसालों की वजह से कोफ्तों की पहचान भी बदलती रहती है.
खान-पान के जानकारों के अनुसार, कोफ्ते का आविष्कार तुर्की में हुआ और वहीं से यह व्यंजन भारत पहुंचा. बर्तानवी राज के दौर में एंग्लो-इंडियन समुदाय ने मसालेदार मीट बॉल्स के रूप में देसी कोफ्तों को अपनाया था.
किसी भी कोफ्ते की तासीर गर्म की जा सकती है जावित्री, जायफल, लौंग, दालचीनी और केसर का पुट देकर. हमारी सलाह है कि रेडीमेड बाजारू गरम मसाला बरतने से परहेज करें! चिकनाई पर हाथ न रोकें और सर्दियों में मनचाहे कोफ्ते का मजा लें!
रोचक तथ्य
खान-पान के जानकारों के अनुसार कोफ्ते का आविष्कार तुर्की में हुआ और वहीं से यह व्यंजन भारत पहुंचा. बर्तानवी राज के दौर में एंग्लो इंडियन समुदाय ने मसालेदार मीट बौल्स के रूप में देसी कोफ्तों को अपनाया था. सींक कबाब जैसी शक्ल वाले कश्मीरी कोफ्ते तो पंडित परिवारों में दामाद की खातिरदारी में तर-बतर पराठे के साथ परोसे जाते थे.शाकाहारी भोजन के शौकीन कोफ्तों का आनंद लेते रहे हैं लौकी या कच्चे केले के कोफ्तों से, जिन्हें आजकल मलाई यानी पनीर के कोफ्तों ने विस्थापित कर दिया है.

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