<p>80 साल की बालोना आजकल सो नहीं पातीं. हर आहट उन्हें चिंतित कर देती है. उन्हें डर है कि सरकार उनकी ज़मीन छीन लेगी.</p><p>उन्हें अपना गांव खाली करना होगा क्योंकि यहां आदमी नहीं, बाघ रहेंगे. मगर वह अपना गांव नहीं छोड़ना चाहतीं. गांव छोड़ने पर उन्हें सरकार से 10 लाख रुपये मिलते मगर उन्होंने विरोध का मन बनाया है. भले ही उन्होंने पूरी ज़िंदगी 10 लाख रुपये एकसाथ नहीं देखे मगर वह कहती हैं कि पुरखों की यादें सरकार के 10 लाख रुपयों से ज़्यादा क़ीमती हैं. </p><p>जंगलों के बीच बसे विजयपुर गांव में रहने वाली बालोना को हिंदी नहीं आती, सिर्फ़ कुड़ुख (आदिवासियों की भाषा) बोलती हैं.</p><p>उन्होंने बीबीसी से कहा, "बताइए कि जानवर के लिए आदमी को हटा देंगे! यह कहां का इंसाफ़ है? यहां हमारे पुरखों की कब्र है. गाय-गोरु हैं, कुकुर-सूअर और मुर्गा-मुर्गी हैं. हमने किसी का खेत नहीं जोता, चहारदीवारी नहीं की. अफ़सरों को मुफ़्त में मुर्गा दिया, सरसों दी, मक्का दिया. रेंजर, सिपाही, बीडीओ, एसडीओ… सबकी मांग पूरी की. अब हमसे क्या ग़लती हो गई जो सरकार हमें हटने को कह रही है? हम अब कहां जाएंगे और क्या-क्या ढोकर ले जाएंगे?"</p><h1>आठ गांवों को हटाने का प्रस्ताव</h1><p>बालोना का गांव विजयपुर, झारखंड के लातेहार ज़िले के उन आठ गांवों में शामिल है जिन्हें सरकार ने कहीं और बसाने का प्रस्ताव दिया है. ऐसा इसलिए किया जा रहा है ताकि पलामू व्याघ्र परियोजना में रह रहे बाघों और दूसरे जानवरों का संरक्षण किया जा सके.</p><p>विजयपुर समेत सात गांव गारु प्रखंड में आते हैं तो एक गांव बरवाडीह प्रखंड में पड़ता है. ये आठों गांव 1129 वर्ग किलोमीटर में फैले पलामू व्याघ्र परियोजना के बफ़र क्षेत्र में हैं.</p><p>इस परियोजना के तहत संरक्षित जंगल का 414 वर्ग किलोमीटर कोर एरिया (सघन जंगल) में है और बाक़ी का 715 वर्ग किलोमीटर बफ़र एरिया (आंशिक सघनता वाले जंगल) में.</p><p>सरकार बफ़र एरिया के अधीन गारु प्रखंड के लाटू, कोजरोम, विजयपुर, पंडरा, हेनार, गुटुवा, गोपखार और बरवाडीह प्रखंड के रमनदाग गांवों को ख़ाली कराना चाहती है.</p><p>इसके लिए ग्रामीणों को कहीं और बस जाने का प्रस्ताव दिया गया है. इन गांवों में रहने वाले आदिवासी इसका कड़ा विरोध कर रहे हैं. सिर्फ़ कोजरोम की ग्रामसभा ने इस पर अपनी सहमति दी थी, लेकिन अब वहां भी विरोध शुरू हो गया है. </p><h1>’आज आठ गांव, कल कई और की बारी'</h1><p>पलामू टाइगर रिज़र्व के इन गांवों में घूमने के क्रम में पंडरा गांव के जोनसेट टोप्पो, रंजीत टोप्पो, राजेश कुजूर और विजयपुर के ब्यातुर कुजूर, फ्रांसिसा खलखो, कोजरोम के जेवियर, इग्निश और अन्य ने बीबीसी के समक्ष अपना विरोध दर्ज कराया.</p><p>इन लोगों ने बताया कि सरकार ने ईको विकास समिति के माध्यम से यह प्रस्ताव भेजा था. </p><p>ईको विकास समिति विजयपुर के अध्यक्ष डेनियल तिर्की ने सरकार के नोटिस और अपनी असहमति के पत्रों की छायाप्रति दिखाते हुए कहा कि इसके ख़िलाफ़ गांव में मीटिंग हुई और हम लोगों ने गारु जाकर बीडीओ के दफ़्तर पर प्रदर्शन भी किया, लेकिन सरकार की तरफ़ से हमें कोई जवाबी संदेश नहीं मिला है.</p><p>सरकारी प्रस्ताव के विरोध की अगुवाई कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता और जन संघर्ष समिति के केंद्रीय सचिव जेरोम जेराल्ड कुजूर ने बीबीसी से कहा, "बात सिर्फ़ इन आठ गांवों या यहां रहने वाली क़रीब 3100 आदिवासी आबादी की नहीं है. सरकार टाइगर रिज़र्व के कोर एरिया में कई और गांवों को शामिल कराना चाहती है. यह आदिवासियों के ख़िलाफ़ एक साज़िश है. हम ऐसा नहीं होने देंगे." </p> <ul> <li><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-44322173">आदिवासी महिलाओं की ज़िदगी महकाने वाली अगरबत्ती</a></li> <li><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-43860546">आदिवासी क्यों बनना चाह रहे हैं झारखंड के कुर्मी</a></li> </ul><h1>क्या कहती है सरकार?</h1><p>पलामू व्याघ्र परियोजना के डिप्टी डायरेक्टर महालिंग ने बताया कि यह दरअसल भारत सरकार का प्रस्ताव था. वह कहते हैं कि इसी प्रस्ताव को ध्यान में रखते हुए इन आठ गांवों को खाली कराने की योजना बनाई गई है.</p><p>उन्होंने बताया कि इसके लिए ग्रामसभा को सहमति या असहमति का पत्र देना था. सहमति का पत्र सौंपने वाले गांव के लोगों के पुनर्वास के लिए भी दो फ़ार्मूले सुझाए गए थे. </p><p>महालिंग ने बीबीसी से कहा, "इस प्रस्ताव के तहत गांव छोड़ने वाले हर परिवार को 10 लाख रुपये का एकमुश्त भुगतान किया जाना था ताकि वे कहीं और जाकर बस जाएं. जो ऐसा नहीं चाहते, उन्हें कहीं और पांच एकड़ जमीन देने का प्रस्ताव भी था. लेकिन, झारखंड सरकार के पास इतना लैंड बैंक नहीं है कि हम हर परिवार को पांच एकड़ ज़मीन दे सकें. लिहाज़ा, हमने फ़ॉर्मूला वन (10 लाख रुपये का मुआवज़ा) का प्रस्ताव दिया."</p><p>वह बताते हैं, "अब अधिकतर गांवों ने इस प्रस्ताव के खिलाफ अपनी असहमति का पत्र हमें दिया है. ऐसे में उन्हें जबरन नहीं हटाया जा सकता. उनका पुनर्वास तभी होगा, जब वे सहमत होंगे."</p> <ul> <li><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-43279692">तीर-धनुष के साथ ‘स्वशासन’ मांगते आदिवासी</a></li> </ul> <ul> <li><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-44163609">अपने गांव में गर्व के साथ बनीं ‘रानी मिस्त्री'</a></li> </ul><h1>कहां से आया यह प्रस्ताव</h1><p>दरअसल, यह मामला सिर्फ़ झारखंड का नहीं है. राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकार (एनटीसीए) ने 28 मार्च 2017 को भारत सरकार को सुझाव दिया था कि देश के 18 राज्यों के 50 टाइगर प्रोजेक्ट के कोर एरिया में कुछ और नए इलाक़े शामिल किए जाएं.</p><p>इसके तहत बफ़र एरिया के गांवों को भी खाली कराने और वहां रहने वाले ग्रामीणों को वन अधिकार कानून-2006 के तहत मिले अधिकारों को निलंबित करने का प्रस्ताव है.</p><p>एनटीसीए के तत्कालीन असिस्टेंट इंस्पेक्टर जनरल आफ फ़ॉरेस्ट डॉक्टर वैभव सी. माथुर ने वाइल्ड लाइफ़ प्रोटेक्शन एक्ट-1972 का हवाला देते हुए यह सिफ़ारिश की थी.</p><p>उस समय माकपा नेता वृंदा करात ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर अपना विरोध दर्ज कराया था.</p><p><strong>ये भी पढ़ें- </strong></p> <ul> <li><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-45132391">झारखंडः कहाँ खड़ा है राज्य का आदिवासी नेतृत्व?</a></li> <li><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-45129957">आदिवासियों के लिए मुख्यधारा की मीडिया की ऐसी बेरुख़ी</a></li> <li><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-39645253">एक नई जंग लड़ रही हैं ये आदिवासी लड़कियां</a></li> </ul><p><strong>(</strong><strong>बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां </strong><a href="https://play.google.com/store/apps/details?id=uk.co.bbc.hindi">क्लिक</a><strong> कर सकते हैं. आप हमें </strong><a href="https://www.facebook.com/BBCnewsHindi">फ़ेसबुक</a><strong>, </strong><a href="https://twitter.com/BBCHindi">ट्विटर</a><strong>, </strong><a href="https://www.instagram.com/bbchindi/">इंस्टाग्राम</a><strong> और </strong><a 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बाघ रहेंगे या आदिवासी…वजूद के लिए जंग जारी
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