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Jharkhand News : हो भाषा की लिपि खोजनेवाले ओत गुरु लाको बोदरा की आज 101वीं जयंती, पांचवीं कक्षा में ही खोजने का किया था निश्चय

खरसावां (शचिंद्र कुमार दाश) : अंग्रेजी कैलेंडर के मुताबिक ओत गुरु कोल लाको बोदरा की आज 101 वीं जयंती है. इस मौके पर विभिन्न संगठनों की ओर से अलग-अलग स्थानों पर कार्यक्रम का आयोजन किया जायेगा. गुरु लाको बोदरा ने वारंग क्षिति लिपि का अनुसंधान किया. खूंटपानी प्रखंड के पासेया गांव में 19 सितंबर 1919 को जन्मे लाको बोदरा ने अपना पूरा जीवन भाषा, संस्कृति, लिपि, धर्म-दोस्तुर, साहित्य व परंपरा को बचाने व जन जन तक पहुंचाने में लगा दिया.

खरसावां (शचिंद्र कुमार दाश) : अंग्रेजी कैलेंडर के मुताबिक ओत गुरु कोल लाको बोदरा की आज 101 वीं जयंती है. इस मौके पर विभिन्न संगठनों की ओर से अलग-अलग स्थानों पर कार्यक्रम का आयोजन किया जायेगा. गुरु लाको बोदरा ने वारंग क्षिति लिपि का अनुसंधान किया. खूंटपानी प्रखंड के पासेया गांव में 19 सितंबर 1919 को जन्मे लाको बोदरा ने अपना पूरा जीवन भाषा, संस्कृति, लिपि, धर्म-दोस्तुर, साहित्य व परंपरा को बचाने व जन जन तक पहुंचाने में लगा दिया.

आज शनिवार को 101 वीं जयंती पर जमशेदपुर के सीतारामडेरा, खूंटपानी के पासेया, सरायकेला के बड़बील आदि स्थानों पर स्थापित ओत गुरु की प्रतिमा पर श्रद्धांजलि अर्पित की जायेगी. अयोध्या पीड़ के मानकी परिवार से जुड़े लोबिया बोदरा के पुत्र लाको बोदरा जन्म से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे. गुरु लाको बोदरा ने प्रारंभिक शिक्षा खूंटपानी के प्राथमिक विद्यालय बचमहातु व पुरुनिया मध्य विद्यालय से प्राप्त की.

कहा जाता है कि पांचवीं कक्षा में पढ़ाई के दौरान हिंदी विषय की पढ़ाई के दौरान महावीर प्रसाद द्विवेदी के लिखे निबंध ‘मातृभाषा की महत्ता’ ने लाको बोदरा को काफी उद्वेलित कर दिया था. इसी दौरान उन्होंने हो भाषा की अपनी लिपि का अनुसंधान कर दुनिया के समक्ष लाने की ठान ली थी. इसके बाद लाको बादरा ने चक्रधरपुर के मिडिल स्कूल व जिला स्कूल, चाईबासा में पढ़ाईं की. इसके बाद जयपाल सिंह मुंडा के सहयोग से पढ़ाई के लिए वे पंजाब के जालंधर गये. जालंधर के सिटी कॉलेज से होम्योपैथी में स्नातक की डिग्री हासिल की.

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पढ़ाई के लिए गुरु लाको बोदरा भले ही पंजाब गये थे, परंतु उनका मन व ध्यान हो भाषा की लिपि के अनुसंधान पर था. इस दौरान उन्होंने कई पुस्तकालयों में जा कर किताबों की खाक छानी. अपनी लिपि की खोज में कई जंगल-गुफाओं में गये. उन्होंने देश भ्रमण में कई प्राचीन ग्रंथों की पढ़ाई की.

मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की खुदाई स्थल का भी दौरा किया, जहां उन्हें आदिवासी संस्कृति की जीवंत रूप में झलक दिखाई दी. लाको बोदरा की मेहनत रंग आयी और उन्होंने 40 के दशक में हो भाषा की लिपि वारंग क्षिति लिपि की खोज कर ली. इस लिपि में उन्होंने कई पुस्तकें लिखी. देश की आजादी के बाद 1954 में उन्होंने एटे तुरतुंग आकड़ा का गठन कर वारंग क्षिति लिपि का विस्तृत रुप से प्रचार प्रसार किया. गुरु लाकों बोदरा की वारंग क्षिति लिपि में लिखित कई पुस्तकें आज भी उपलब्ध हैं.

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गुरु लाको बोदरा ने वारंग क्षिति को सर्वमान्य बनाने के लिए लगातार बैठकें कीं. इस कार्य का बीड़ा ओड़िशा के सिदा होरा सोसर आकड़ा नामक संस्था ने उठाया. कई बार की बैठकों के बाद तत्कालीन बिहार व ओड़िशा में सरकारी स्तर पर इस भाषा को मान्यता मिली. 1984 से रांची विश्वविद्यालय में हो भाषा विभाग के साथ वारंग क्षिति लिपि की पढ़ाई शुरु हुई तथा रांची विश्वविद्यालय के द्वारा ही सर्वप्रथम हो भाषा वारंग क्षिति लिपि की पुस्तकें लिखी गयी.

वर्तमान में कोल्हान विश्व विद्यालय के साथ साथ कोल्हान के विभिन्न विद्यालयों में भी हो भाषा वारंग क्षिति लिपि की पढ़ाई हो रही है. वारंग क्षिति एक आबूगीदा लिपि है, जिसका प्रयोग देश के झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, बिहार, छत्तीसगढ़ और असम राज्यों में बोली जाने वाली हो भाषा को लिखने के लिए किया जाता है. गुरु लाको बोदरा का देहावसान 24 जून 1986 में हुआ.

लाको बोदरा द्वारा रचित मुख्य पुस्तकों : एला ओल इतू उटा, षड़ाषूड़ा सांगेन, ब्ह बूरू-बोडंगा बूरु, षार होरा, पोम्पो, रघुवंश तथा एनी पुस्तकें हैं, जो वर्तमान में विभिन्न विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के पाठ्क्रमों में शामिल किए गए हैं.

Posted By : Guru Swarup Mishra

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