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सिलीगुड़ी की कहानी महानंदा की जुबानी : 4 उत्तर बंगाल के एेतिहासिक घटनाक्रमों की साक्षी है महानंदा

सिलीगुड़ी: मैं महानंदा सिलीगुड़ी के अलावा उत्तर बंगाल के ऐतिहासिक घटनाक्रमों की साक्षी रही हूं. मेरे ही तट पर एक बार सिक्किम की सेना के साथ ब्रिटिश सेना का घनघोर युद्ध हुआ था. लेकिन उस युद्ध में अंग्रेजों की अनुशासित और अत्याधुनिक हथियारों से लैस सेना ने सिक्किम की सेना को कई घंटे की लड़ाई […]

सिलीगुड़ी: मैं महानंदा सिलीगुड़ी के अलावा उत्तर बंगाल के ऐतिहासिक घटनाक्रमों की साक्षी रही हूं. मेरे ही तट पर एक बार सिक्किम की सेना के साथ ब्रिटिश सेना का घनघोर युद्ध हुआ था. लेकिन उस युद्ध में अंग्रेजों की अनुशासित और अत्याधुनिक हथियारों से लैस सेना ने सिक्किम की सेना को कई घंटे की लड़ाई में ही परास्त कर दिया था. उस समय मेरा पानी वीर गति पाने वाले सैनिकों के खून से लाल हो गया था. उसी समय से सिक्किम पर ब्रिटिश सरकार का प्रभुत्व कायम हो गया. लेकिन इसके पूर्व सिक्किम राज्य भी इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण ताकत था. सिलीगुड़ी के निकट भारत-बांग्लादेश की सीमा पर स्थित फूलबाड़ी के पार है बांग्लादेश का तेंतुलिया. उसी के निकट फतेहाबाद बंदर्गाह के आसपास सिक्किम सेना की छावनी थी.

16 वीं सदी में पूर्वी मोरंग कोचबिहार रियासत के अधीन था. सिलीगुड़ी भी उसी पूर्वी मोरंग का हिस्सा थी. सन 1642 में फुन्तशोक नामग्याल के शासनकाल में इस क्षेत्र पर सिक्किम का कब्जा हुआ. 1907 तक फांसीदेवा सिक्किम के अधीन था. बाद में यह महकमा मुख्यालय बना. यही मुख्यालय 1923-24 में सिलीगुड़ी स्थानांतरित हुआ. 16वीं सदी में फांसीदेवा बेहद समृद्ध इलाका था. बालासन नदी के पश्चिम की ओर नागरी में गोरखाओं का लकड़ी का किला था. फांसीदेवा के निकट जीतपालगढ़ी में लेप्चाओं की बस्ती थी. जबकि सालूगाढ़ा में भोटिया समुदाय की बस्ती थी जो भोटगांव के नाम से जाना जाता था. यहां मचांग नामक लोहे का किला था. उस समय पूर्वी मोरंग में व्यापार वाणिज्य के प्रभाव को देखकर पटना फैक्ट्री के प्रमुख थॉमस रमबोल्ड की उत्सुकता बढ़ी. उन्होंने 1776 में कलकत्ता स्थित ब्रिटिश सरकार से अनुरोध किया कि इस क्षेत्र में ब्रिटिश सरकार अपना प्रभाव विस्तार करे. उसके बाद शुरु हुआ संन्यासी विद्रोह का दौर जिसने करीब 36 साल तक ब्रिटिश सेना को उलझाये रखा. उस समय बंगाल में गवर्नर जनरल वारेन हैस्टिंग्स थे. संन्यासी विद्रोह के दमन के लिये उन्होंने कैप्टेन जोन्स के नेतृत्व में सेना भेजी. उसी दौरान बैकुंठपुर रियासत पर गोरखा फौज के हमले बढ़े.

उल्लेखनीय है कि 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल की दीवानी हासिल की. लेकिन बैकुंठपुर के रायकत शासकों ने इस आधिपत्य को नहीं माना. उन्होंने संन्यासियों और फकीरों के साथ मिलकर ब्रिटिश सरकार को राजस्व देना बंद कर दिया. अंग्रेजों की औपनिवेशिक नीतियों के चलते देश का कुटीर वस्त्र उद्योग नष्ट हो रहा था. इसलिये वस्त्र उद्यम से जुड़े व्यापारियों ने भी संन्यासियों का साथ देना शुरु किया. कपंनी ने स्थानीय लकड़ी व्यवसाय में भी दिलचस्पी लेना शुरु किया. संन्यासियों के बढ़ते दबदबे को रोकने के लिये मुर्शिदाबाद के रेजिडेंट बेकर को उत्तर बंगाल में विद्रोहियों के दमन के लिये सेना भेजने का आदेश दिया गया. लेकिन उसी समय एक नई घटना घट गई.

संन्यासीकाटा में दी गयी विद्रोहियों को फांसी: उल्लेखनीय है कि सन 1789 में इसी जगह ब्रिटिश सेना और संन्यासी विद्रोहियों के बीच घनघोर युद्ध हुआ था. हालांकि उस युद्ध में संन्यासियों की पराजय हुई और सैकड़ों योद्धाओं ने वीर गति पाई लेकिन उस युद्ध का प्रभाव ऐतिहासिक रहा. संन्यासी विद्रोहियों को वहीं पर फांसी पर चढ़ा दिया गया. इसीलिये उस जगह का नामकरण संन्यासीकाटा पड़ा.
भूटानी सेना का कालिम्पोंग और रेनॉक पर कब्जा: उस दौरान भूटानी सेना ने कालिम्पोंग और रिनॉक (अब सिक्किम में) पर कब्जा कर लिया. इसके बाद इसी मसले को लेकर 1774 में कोचबिहार और भूटान के बीच युद्ध छिड़ गया. उस युद्ध में कोचबिहार की मदद के लिये ब्रिटिश सेना ने हस्तक्षेप किया. फलस्वरुप भूटान और ब्रिटिश सरकार के बीच सिंचुला की संधि हुई जिसके अनुसार पूरा डुवार्स क्षेत्र पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया. (शिव चटर्जी के अनुसार) 1780 में ही गोरखाओं ने सिक्किम के नियंत्रण में रही मेरे वक्षस्थल (महानंदा) से लेकर नेपाली की मेची नदी के पूर्वी मोरंग अंचल पर अधिकार कर लिया. उसके बाद उन्होंने मेरे दक्षिणी हिस्से में ब्रिटिश कंपनी के अंतर्गत रंगपुर सीमा क्षेत्र में लूट, वसूली व अपहरण जैसे क्रियाकलाप शुरु किये. 1788 की जुलाई में जब गोरखाओं ने सिक्किम और तिब्बत पर हमला किया तब तिब्बत ने ब्रिटिश सरकार से मदद मांगी. लेकिन लॉर्ड कॉर्नवालिस ने मदद देने से मना कर दिया. उस समय तिब्बत ने ब्रिटिश सरकार को तटस्थ रहने का अनुरोध किया. 1791 में चीनी फौज की उपस्थिति में युद्ध के हालात जटिल हो गये. नेपाल के इस संकट का सदुपयोग करते हुए ब्रिटिश सरकार ने नेपाल के साथ एक वाणिज्य समझौता किया. लेकिन जब इस समझौते की दुहाई देकर नेपाल ने ब्रिटिश सरकार से आधुनिक हथियार देने का अनुरोध किया तो उन्होंने मना कर दिया. उसी साल सितंबर में नेपाल तिब्बत के साथ असम्मानजनक संधि करने के लिये बाध्य हुआ. उसके बाद से ही नेपाल ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हो गया. नेपाल के साथ संबंध खराब होने के बाद वॉरेन हैस्टिंग्स ने 1814 के नवंबर में नेपाल के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी. कोचबिहार रियासत ने इसी मौके का लाभ उठाते हुए डुवार्स के माराघाट (आजकल मोराघाट) अंचल भूटान को दे दिया और बदले में भूटान से सैन्य सहायता मांगी.
1788 में दार्जिलिंग तक हुआ गोरखाओं का विस्तार
1788 में गोरखाओं का प्रभाव विस्तार दार्जिलिंग तक हो गया था. 1788-1814 तक पूर्व मोरंग पर गोरखा फौज का कब्जा हो गया. उस समय राजस्व संग्रह के लिये सिलीगुड़ी में कचहरी लगती थी. इसका उल्लेख 1831 में लिखित शाही दस्तावेज में मिलता है. 1717 में तेंतुलिया की संधि ब्रिटिश सरकार और नेपाल के बीच हुई. इसके पूर्व 1814 में ब्रिटिश नेपाल युद्ध हुआ. 1815 में कैप्टेन एलेक्जेंडर की कमान में 200 सिपाहियों के साथ ब्रिटिश सेना ने पूर्व मोरंग में प्रवेश किया. इस तरह से पूर्व मोरंग को गोरखाओं के कब्जे से मुक्त करा लिया गया. इसके बाद 1816 में सुगौली की संधि के जरिये ब्रिटिश सरकार और नेपाल के बीच शांति कायम हुई. 10 फरवरी 1817 को तेंतुलिया में ब्रिटिश-नेपाली के बीच संधि के तहत नेपाल द्वारा अधिकार किये गये मेची नदी से महानंदा नदी होकर तीस्ता नदी तक के तराई अंचल को ब्रिटिश शासन के अधीन कर लिया गया. ब्रिटिश सरकार ने सिक्किम के प्रति अपनी दोस्ती की दुहाई देकर इस अंचल को उसे सौंप दिया. इससे ब्रिटिश सरकार का सिक्किम के साथ मैत्री संबंध मजबूत हुआ. ब्रिटिश सरकार ने सिक्किम की सुरक्षा सुनिश्चित की. 1850 तक पूर्व मोरंग में 5000 की आबादी थी जिनमें आदिवासी, लेप्चा, भूटिया, धीमाल, मेच, राजवंशी और नेपाली मूल के लोग थे.
नेपाल ने बोला था सिक्किम पर हमला
1771 में नेपाल ने सिक्किम पर हमला बोल दिया. उन्होंने उस समय सिक्किम के दखल में रहे इलामबाजार पर कब्जा कर लिया. गोरखा सेना सिक्किम की तत्कालीन राजधानी राप्तदेंची तक जा पहुंची. इसके बाद सिक्किम के छोग्याल को नेपाल के साथ 1775 में संधि करनी पड़ी. पश्चिम मोरंग के एक प्रमुख जमींदार जीतपाल मौलिक का नेपाल के फौजदार मुंशीराम के साथ राजस्व को लेकर अनबन थी. उन्होंने जमदार गंगाराम थापा के पास शरण ली. गंगाराम बेहद महत्वाकांक्षी फौजी थे जो पूर्वी मोरंग को एक स्वतंत्र रियासत बनाकर खुद को एक मजबूत शासक के रुप में स्थापित करना चाहते थे. गंगाराम थापा ने अपनी फौज के साथ 1780 में पूर्वी मोरंग पर हमला बोल दिया और उसे कब्जे में ले लिया. वहीं, जीतपाल के प्रतिद्वंदी मुंशीराम के नेतृत्व में गोरखा फौज ने रंगपुर में प्रवेश किया. उस समय कर्नल बोगेल ने गोरखा अभियान को चुनौती दी. गंगाराम थापा ने संन्यासियों के सरदार वीरबल के साथ समझौता किया. उस समय संन्यासी विद्रोह के सरदारों को विभिन्न शासक जोत देकर उन्हें अपने पक्ष में करने का प्रयास करते थे. इस तरह से वे सत्ता के संघर्ष में एक निर्णायक कड़ी की भूमिका भी निभाते थे. एक अन्य सरदार मजनू शाह को गंगाराम ने पांच जोत जमीन दान में दी. सिक्किम रियासत ने भी पांच जोत पहले ही संन्यासियों को दिये थे. सिलीगुड़ी के निकट ही संन्यासीकाटा नामक जगह है. वहीं पर ब्रिटिश कंपनी की स्थायी सेना ने डेरा जमाया.
बैकुंठपुर पर भी हुआ था हमला
सरदार भीम कुमार ने बैकुंठपुर पर हमला बोल दिया. उसके बाद 1786 में गोरखा सेना ने भी हमला बोल दिया. उस समय रंगपुर में ब्रिटिश सेना की घुड़सवार यूनिट तैनात थी. गंगाराम थापा की फौज की डब्लू डंकन्सन के नेतृत्व वाली ब्रिटिश सेना के साथ घनघोर युद्ध हुआ. युद्ध में ब्रिटिश सेना को पीछे हटना पड़ा था. उनकी सेना कासिमगंज लौट गई. उस युद्ध में गंगाराम थापा की फौज की अगुवाई प्रभुराम लिम्बू कर रहे थे. युद्ध में मिली जीत से गंगाराम थापा उत्साहित थे. उन्होंने 25 फरवरी 1786 को डंकन्सन को पत्र दिया जिसमें उन्होंने जीतराम मौलिक के शत्रु मुंशीराम और महादेव को बंदी बनाने इच्छा जताई. 26 फरवरी को भेंट का कार्यक्रम बना लेकिन वह असफल रहा. इस बीच मुर्शिदाबाद के रेजिडेंट ने डंकन्सन की मदद के लिये कैप्टेन एलेक्जेंडर की कमान में 300 सिपाहियों की सेना भेजी. ब्रिटिश फौज मेरे ही उपर से गुजरकर निदांतगुड़ी पहुंची. यह निदांतगुड़ी वर्तमान फांसीदेवा प्रखंड कार्यालय की जगह थी. एलेक्जेंडर के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने उस अभियान में निदांतगुड़ी स्थित काठ के किले को जला दिया. इस दौरान उन्होंने गोरखा फौज के सैनिकों को बंदी भी बना लिया. उस समय दो मील उत्तर में एक और काठ का किला था. एक तीसरा काठ का किला पंचनदी इलाके में था जो सिलीगुड़ी का एक हिस्सा है. इस पराजय के बाद गोरखा फौज की ओर से पश्चिम मोरंग के कर्मचारी बलवंत सिंह ने शांति का प्रस्ताव दिया. उसके बाद हुए समझौता के तहत ब्रिटिश सेना ने बंधक बनाये गये 50 महिलाओं व बच्चों को रिहा कर दिया. उल्लेखनीय है कि सन 1700 में भूटानी सेना ने पूर्व मोरंग पर हमला बोल दिया. उस समय भूटान पर देवराजा गेडुम छोफेल का शासन था.

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