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मंदिर में सामूहिक पशु बलि को बढ़ावा न दिया जाये : हाइकोर्ट

कोर्ट ने राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए निर्देश दिया कि मंदिर में सामूहिक पशु बलि को बढ़ावा न दिया जाये.

सामूहिक पशु बलि पर प्रतिबंध की मांग की याचिका पर कोर्ट का परामर्श

संवाददाता, कोलकाताकलकत्ता हाइकोर्ट ने गुरुवार को बोल्ला रक्षा काली मंदिर में सामूहिक पशु बलि पर प्रतिबंध लगाने की मांग वाली एक जनहित याचिका पर सुनवाई की, जिस पर कोर्ट ने राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए निर्देश दिया कि मंदिर में सामूहिक पशु बलि को बढ़ावा न दिया जाये. मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट को बताया गया कि मंदिर की पूजा समिति ने सामूहिक पशु बलि की प्राचीन प्रथा को रोकने का निर्णय पहले ही ले लिया है. इस संबंध में छह नवंबर 2024 को हुई बैठक का विवरण भी कोर्ट के सामने दिया गया. पूजा समिति ने दी थी सूचनाइससे पहले मंदिर में त्योहार का सीजन शुरू होने से एक दिन पहले पूजा समिति ने सूचित किया था कि इस वर्ष मंदिर में सामूहिक बलि अनुष्ठान नहीं किये जायेंगे. समिति ने कहा था कि इसकी जगह बकरों की बलि केवल मंदिर में निर्दिष्ट क्षेत्र में दी जायेगी, जिसके लिए पहले ही लाइसेंस प्राप्त किया जा चुका है. न्यायालय ने अपनी टिप्पणी में कहा कि समिति के सदस्य बिना किसी विचलन के इस निर्णय का पालन करने के लिए बाध्य हैं और यदि वे इसका उल्लंघन करते हैं, तो उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है. न्यायालय ने आदेश दिया : चूंकि यह उत्सव 22 नवंबर को शुरू हो चुका है, इसलिए हम पूजा समिति को निर्देश देते हैं कि वे छह नवंबर की बैठक में हुई सहमति का सख्ती से पालन करें. साथ ही कोर्ट ने कहा कि राज्य के अधिकारी यह भी सुनिश्चित करेंगे कि पूजा समिति सामूहिक बलि को प्रोत्साहित न करे और लोगों को इस तरह की सामूहिक बलि से दूर रहने के लिए मनाये. मुख्य न्यायाधीश टीएस शिवगणनम और न्यायमूर्ति हिरण्मय भट्टाचार्य की पीठ ने काली मंदिर में सामूहिक पशु बलि पर प्रतिबंध लगाने की मांग वाली एक जनहित याचिका (पीआइएल) पर सुनवाई करते हुए यह आदेश पारित किया.

याचिकाकर्ता के वकील ने पहले न्यायालय को बताया था कि रास पूर्णिमा उत्सव के बाद, बोल्ला रक्षा काली मंदिर में प्रत्येक शुक्रवार को 10,000 से अधिक पशुओं, मुख्य रूप से बकरियों और भैंसों की बलि दी जाती है. अक्तूबर की सुनवाई के दौरान, वकील ने कहा कि इस तरह की प्रथा संविधान के अनुच्छेद 25 द्वारा संरक्षित एक आवश्यक धार्मिक प्रथा नहीं है. हालांकि, न्यायालय ने कहा कि पश्चिम बंगाल में धार्मिक प्रथाएं अनूठी हो सकती हैं और सवाल किया कि क्या याचिकाकर्ता निश्चित रूप से यह कह सकता है कि जिस प्रथा की शिकायत की गयी है, वह आवश्यक धार्मिक प्रथा नहीं है.

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