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काबिलियत से ग्लोबल बने आदिवासी, अंडमान-असम और बंगाल को झारखंड के लोगों ने संवारा

World Tribal Day 2025: झारखंड के आदिवासी अपनी काबिलियत से ग्लोबल बन गये. अंडमान-असम और बंगाल को झारखंड के आदिवासियों ने संवारा है. बावजूद इसके असम के आदिवासी नहीं चाहते कि झारखंड से आये आदिवासियों को वहां आदिवासी का दर्जा मिले. विश्व आदिवासी दिवस 2025 पर देखें किस कदर झारखंड के आदिवासियों ने देश के अलग-अलग हिस्से में जाकर वहां के विकास में योगदान दिया है.

World Tribal Day 2025| रांची, प्रवीण मुंडा : झारखंड के मेहनतकश आदिवासियों ने राज्य के बाहर कई प्रदेशों की समृद्धि को अपने श्रम से सींचा है. झारखंडी आदिवासी देश के विभिन्न राज्यों में काम कर रहे हैं. पर कुछ राज्य ऐसे हैं, जहां ये सौ साल से भी पहले गये थे और आज वहां उनकी बड़ी आबादी है. मिसाल के तौर पर अंडमान, असम और बंगाल का नाम लिया जा सकता है. अंडमान को संवारने, असम और बंगाल के चाय बागानों की हरियाली के पीछे इन मेहनतकश लोगों का हाथ है. झारखंड के आदिवासियों के लिए यह गर्व और दर्द दोनों की ही बात है. गर्व उन प्रदेशों की समृद्धि में योगदान का और दर्द यह कि उस समृद्धि में इनकी भागीदारी नहीं है.

अंडमान को संवारने वाले खुद बुनियादी सुविधाओं से महरूम

1918 में पहली बार झारखंड से 400 झारखंडी आदिवासियों का जत्था अंडमान के लिए रवाना हुआ था. इसके बाद यह सिलसिला आजादी के बाद भी चलता रहा. भारत की मुख्य भूमि से सैकड़ों किमी दूर नीले समुंदर के बीच अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह में इन लोगों ने जंगलों को काटने, रास्ते बनाने और बंदरगाह क्षेत्रों के निर्माण में अपनी भागीदारी की. इन लोगों को अंडमान के फॉरेस्ट डिपार्टमेंट, अंडमान लोक निर्माण विभाग, मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस, पोर्ट ब्लेयर हार्बर वर्क्स एंड एयरपोर्ट द्वारा काम के लिए बुलाया जाता था.

अंडमान में ‘रांचीवाला समुदाय’ की तीसरी और चौथी पीढ़ी

आज अंडमान में ‘रांची कम्युनिटी’ या ‘रांचीवाला समुदाय’ की तीसरी और चौथी पीढ़ी रह रही है. अंडमान में झारखंड के लोगों की आबादी करीब एक लाख है. झारखंड के लोग वहां पर आज भी छोटे-मोटे काम ही कर रहे हैं. वहां न इन्हें जमीन पर अधिकार मिला और न ही आदिवासी होने की पहचान. आगापीत कुजूर नामक व्यक्ति के नेतृत्व में इनलोगों ने 1970 के दशक से ही अधिकार और पहचान के लिए संघर्ष छेड़ा. आगापीत अब रांची के कदमा (कांके) में ही रहते हैं.

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असम के चाय बागानों के झारखंडियों का दर्द

असम के चाय बागानों में आज 80 लाख से अधिक आदिवासी बसे हैं. इनमें ज्यादातर झारखंड से हैं. 19वीं शताब्दी के चौथे दशक की शुरुआत में इन आदिवासियों का पलायन असम और बंगाल के तराई क्षेत्रों में हुआ. तरुणोदय के फादर फ्रांसिस मिज कहते हैं : असम जाने वाले आदिवासियों का पहला जत्था रास्ते में ही भूख, प्यास और बीमारी से खत्म हो गया था.

झारखंड के आदिवसियों की वजह से बढ़ा अंग्रेजों का मुनाफा

लेखक और एक्टिविस्ट सुनील मिंज अपने एक लेख में जिक्र करते हैं कि 1834 में तीन अंग्रेज व्यापारी रॉबर्ट ब्रूस, चार्ल्स और डॉ वालिक ने चीन से चाय के पौधे मंगाये. असम के चाबुआ में पहली नर्सरी बनी. शुरुआती दौर में असमी और चीनी मजदूर नहीं टिक सके, फिर झारखंडी आदिवासियों को वहां भेजा गया. इन आदिवासियों की पीढ़ियां खप गयीं. चाय कंपनियों का मुनाफा बढ़ता रहा. पर इस मुनाफे में जिन झारखंडी आदिवासियों ने अपना खून-पसीना लगाया उन्हें आज 200-250 रुपये मजदूरी मिल रही है. इन्हें टी ट्राइब कहा गया पर आदिवासियों का दर्जा नहीं मिला.

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असम में राजनीतिक पहचान बनाने में जुटे हैं झारखंड के आदिवासी

दरअसल, असम के स्थानीय लोग भी नहीं चाहते हैं कि इन्हें आदिवासी का दर्जा मिले. पिछले कुछ समय से झारखंडी मूल के आदिवासी असम की राजनीति में पहचान बनाने में जुटे हुए हैं. इनमें सांसद स्व हरेन भूमि, पाहन सिंग घटवार, बी तांती और जोसेफ टोप्पो शामिल हैं. पृथ्वी मांझी और सेंटियस कुजूर राज्यसभा सदस्य रहे हैं. हालिया चुनाव में रोजलिन तिर्की और प्रेमलाल ने भी चुनाव लड़ा.

बंगाल के चाय बागानों में 12 लाख झारखंडी

बंगाल के तराई क्षेत्रों स्थित चाय बागानों में लगभग 12 लाख झारखंडी हैं, जिनमें ज्यादातर आदिवासी समुदाय से हैं. ये कई पीढ़ियों से चाय बागानों में काम कर रहे हैं. चाय बागानों की हरियाली के पीछे इनकी कड़ी मेहनत है. आज रोज की दिहाड़ी मजदूरी से ही इनका गुजारा हो रहा है. शिक्षा की स्थिति काफी खराब है. बहुत कम लोग ही उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं. शैक्षणिक और आर्थिक रूप से ये काफी पिछड़े हैं. न वहां की सरकारों को इनकी फिक्र है और ना ही चाय कंपनियों को. कुछ लोग हैं जिन्होंने अपनी जिद की वजह से उच्च शिक्षा पायी. कुछ लोग नौकरियों में हैं, पर ज्यादातर लोग अभी भी मुफलिसी की जिंदगी ही जी रहे हैं.

फ्रांस, मॉरीशस, गुयाना सहित कैरेबियाई देश भी भेजे गये

झारखंड के आदिवासी प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फ्रांस भी भेजे गये थे. वहां इन्हें तबाह हो गये शहरों का मलबा साफ करने और सप्लाई लाइन चालू करने का काम किया. 19वीं शताब्दी के तीसरे दशक में झारखंडी मजदूर मॉरीशस, गुयाना और कैरेबियन सागर के देशों में भेजे गये. उन देशों में उनकी रवानगी की सिर्फ एक तरफ की टिकट थी. मॉरीशस में झारखंडी आदिवासियों के भेजे जाने का प्रमाण वहां के आर्काइव में मिलते हैं, बाकी जगह वे जैसे एक विस्मृत इतिहास का हिस्सा है.

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Mithilesh Jha
Mithilesh Jha
प्रभात खबर में दो दशक से अधिक का करियर. कलकत्ता विश्वविद्यालय से कॉमर्स ग्रेजुएट. झारखंड और बंगाल में प्रिंट और डिजिटल में काम करने का अनुभव. राजनीतिक, सामाजिक, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विषयों के अलावा क्लाइमेट चेंज, नवीकरणीय ऊर्जा (RE) और ग्रामीण पत्रकारिता में विशेष रुचि. प्रभात खबर के सेंट्रल डेस्क और रूरल डेस्क के बाद प्रभात खबर डिजिटल में नेशनल, इंटरनेशनल डेस्क पर काम. वर्तमान में झारखंड हेड के पद पर कार्यरत.

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