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टीआरआइ की अध्ययन टीम ने 2009 में ही सीएनटी में बदलाव को बताया था जरूरी

रांची: जनजातीय शोध संस्थान (टीआरआइ) ने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी) की कमियों व खूबियों को जानने के लिए भूमि संबंधी प्रशासनिक व्यवस्था का शोध अध्ययन कराया था. अधिवक्ता पांडेय रवींद्रनाथ राय के नेतृत्व में 30 अधिवक्ताअों का एक अध्ययन ग्रुप बनाया गया था. यह ध्यान रखा गया था कि सभी अधिवक्ता विभिन्न क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व […]

रांची: जनजातीय शोध संस्थान (टीआरआइ) ने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी) की कमियों व खूबियों को जानने के लिए भूमि संबंधी प्रशासनिक व्यवस्था का शोध अध्ययन कराया था. अधिवक्ता पांडेय रवींद्रनाथ राय के नेतृत्व में 30 अधिवक्ताअों का एक अध्ययन ग्रुप बनाया गया था. यह ध्यान रखा गया था कि सभी अधिवक्ता विभिन्न क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले हों तथा उन्हें सीएनटी के प्रावधानों की समुचित जानकारी हो. इस अध्ययन के लिए विशेष कर अनुसूचित जनजाति बहुल जिलों रांची, गुमला, लोहरदगा, सिमडेगा, पूर्वी व पश्चिमी सिंहभूम जिलों को शामिल किया गया था.

अन्य जिले भी इसमें शामिल थे, पर वहां अध्ययन सीमित क्षेत्र में हुआ. वर्ष 2009 में प्रकाशित इस अध्ययन रिपोर्ट से साफ है कि सीएनटी में कुछ जरूरी बदलाव के अलावा सरकारी अधिकारियों के रवैये तथा भूमि संबंधी प्रशासनिक व्यवस्था में भी त्वरित सुधार की जरूरत है. यहां सीएनटी से जुड़ी समस्या, राजस्व व प्रशासनिक समस्या तथा अभिलेख संबंधी समस्या के आधार पर तीन खंडों वाला विश्लेषण दिया जा रहा है. अाज भी प्रासंगिक यह विश्लेषण अध्ययन रिपोर्ट का ही हिस्सा है.

(विश्लेषण संबंधी टिप्पणी : प्रशासन व प्रशासनिक पदाधिकारियों का रवैया अध्ययन दल के प्रति नकारात्मक रहा. इस कारण कई महत्वपूर्ण आंकड़े उपलब्ध नहीं हो सके. अध्ययन के दौरान जनसाधारण से जो आंकड़े उपलब्ध हुए तथा जो शिकायतें मिलीं, उन्हीं के आधार पर यह प्रतिवेदन तैयार किया गया. अध्ययन दल के अधिवक्ताअों के निजी अनुभव तथा विचार भी इसमें सम्मिलित हैं)
सीएनटी से जुड़ी समस्या
सीएनटी के वर्तमान स्वरूप में गैर कृषि कार्य में प्रयुक्त होनेवाली भूमि के संबंध में कोई प्रावधान नहीं है. यह अधिनियम सिर्फ कृषि भूमि पर लागू होता है. गैर कृषि कार्य में प्रयुक्त भूमि काश्तकारी अधिनियम के दायरे से बाहर हो जाती है.
जमींदारी उन्मूलन के बाद भूइंहरी व मुंडारी खूंटकटी जमीन को छोड़ कर सभी प्रकार की जमीन का जमींदार अब खुद सरकार है. इस स्थिति को स्वीकार किया जाये, तो खासमहाल जैसे शब्द का कोई अर्थ नहीं रह जाता है. जमींदारी उन्मूलन के बाद सभी प्रकार की भूमि तथा उसकी जमींदारी खासमहाल की जमींदारी के तहत आ गयी. वर्तमान में खासमहाल वाली भूमि के लिए अलग प्रक्रिया अपनायी जाती है, जबकि अर्जित जमींदारी के लिए अलग प्रक्रिया अपनायी जाती है.
सीएनटी की धारा 46 के प्रावधान (एसटी, एससी व बीसी सीमित दायरे में रहने वाले उसी समुदाय के व्यक्ति को जमीन बेच सकते हैं) का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन हो रहा है तथा वर्तमान में इस धारा के अौचित्य पर सवाल खड़े हो गये हैं. आवागमन, शिक्षा, शहरीकरण, अौद्योगिकरण व नौकरी के कारण अाज बड़ी संख्या में लोग स्थान परिवर्तन कर रहे हैं. एेसी स्थिति में इन समुदाय के लोगों को एक निश्चित दायरे में निवास करने वाले को ही जमीन हस्तांतरित करने के लिए बाध्य किया जाना न्यायोचित नहीं है.
(सरकारी कार्रवाई : सरकार ने कृषि व संबद्ध क्षेत्र के अलावा गैर कृषि कार्य के लिए भी भूमि के उपयोग संबंधी संशोधन पारित किया है)
राजस्व-प्रशासनिक समस्या
नीचे से लेकर ऊपर तक के पदाधिकारी काश्तकारी की शिकायतों के निबटारे में रुचि नहीं लेते. दाखिल-खारिज जैसे साधारण मामले में भी अंचलाधिकारी (सीअो) के स्तर पर छह माह से दो वर्ष तक लंबित रहते हैं. अपीलीय व रिविजनल अदालत की हालत तो इससे भी बदतर है. छोटे जिलों को छोड़ दें, तो रांची, हजारीबाग, डाल्टनगंज (मेदिनीनगर), धनबाद व जमशेदपुर में अपील व रिविजन के मामले भू-सुधार उप समाहर्ता व उपायुक्त के समक्ष तीन से लेकर 15 वर्ष तक से लंबित रहे हैं. तर्क दिया जाता है कि प्रशासनिक व्यस्तता के कारण न्यायालय का काम नहीं हो पाता है.
भू-राजस्व पदाधिकारी लगान वसूली पर न तो ध्यान देते हैं अौर न ही इनके आंकड़े विश्वसनीय हैं. आवासीय क्षेत्रों में प्रयुक्त जमीन के लगान निर्धारण के लिए वर्तमान में कोई कानून नहीं है. ऐसे में इस तरह की भूमि का लगान निर्धारण भी मनमाने ढंग से किया जा रहा है, जो न तर्क संगत है अौर न ही विधि सम्मत.
यह शिकायत भी है कि भू-राजस्व पदाधिकारियों का रवैया काश्तकारों के प्रति नकारात्मक रहता है. छोटे से लेकर बड़े अधिकारी तक इनका दोहन करते हैं. इस कारण ग्रामीण क्षेत्रों में इन पदाधिकारियों की विश्वसनीयता दिन-प्रतिदिन कम हो रही है.
अभिलेख संबंधी समस्या
अध्ययन दल को झारखंड के लगभग सभी जिलों में भू राजस्व संबंधी प्रशासनिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त मिली. किसी भी अंचल में मौजावार भूमि की स्थिति उपलब्ध नहीं है. किसी गांव विशेष का रकबा कितना है. कितनी भूमि धनहर या दोन है. टांड़ भूमि कितनी है. बाग-बगीचा व तालाब वाली कितनी भूमि है. गैर मजरुआ आम व खास जमीन कितनी है. जमींदारी उन्मूलन के बाद कितनी जमीन रैयतों को बंदोबस्त की गयी. कितनी गैर मजरुआ भूमि की बंदोबस्ती पूर्व जमींदारों द्वारा की गयी. कितनी भूमि पहाड़ व जंगल है. इन सभी का कोई आंकड़ा किसी अंचल में उपलब्ध नहीं है. अनुसूचित जाति व जनजातियों के जोत की जमीन संबंधी आंकड़ा मांगे जाने पर भी नहीं मिला. आश्चर्य की बात है कि जो आंकड़े अंचल स्तर उपलब्ध नहीं हैं, उनमें से कुछ जिला स्तर पर उपलब्ध हैं. इससे इन आंकड़ों की विश्वसनीयता भी संदिग्ध हो जाती है.
निम्न स्तर के कर्मचारी के पास उपलब्ध पंजी-2 की विश्वसनीयता अत्यंत संदिग्ध है. ज्यादातर पंजी-2 किसी भी सक्षम पदाधिकारी द्वारा अभिप्रमाणित नहीं है. पंजी-2 में कुल कितने पृष्ठ हैं, कितने खाली हैं, यह किसी भी पदाधिकारी द्वारा आजतक प्रमाणित नहीं किया जाता है. चूंकि पंजी-2 की दूसरी प्रति कहीं उपलब्ध नहीं है, इसलिए इसकी प्रविष्टियों का सत्यापन भी संभव नहीं है. इसका लाभ उठाते हुए निचले स्तर पर निम्न कर्मचारी, अंचल निरीक्षक व कभी-कभी अंचल पदाधिकारी हेर-फेर कर देते हैं.
जिला अभिलेखागार की स्थिति भी अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है. शहरी क्षेत्र के गांवों के खतियान के पृष्ठ नष्ट कर दिये जाते हैं या उसकी प्रविष्टि के साथ छेड़छाड़ की गयी है. अध्ययन दल को कई एेसे मामले की जानकारी दी गयी, जिनमें रांची जिला अभिलेखागार में मौजा हेसल, मधुकम, पंडरा, हेहल, मोरहाबादी, हातमा, कोनका, सिरमटोली आदि शहरी क्षेत्र के गांव के खतियान के पृष्ठ फाड़ दिये गये हैं या उन्हें नष्ट करने का प्रयास किया गया है. जिला अभिलेखागार में भू-अभिलेखों के संरक्षण व इनका रखरखाव चिंताजनक है. इस संबंध में पूछने पर ज्यादातर पदाधिकारी अपने पूर्व के पदाधिकारियों पर आरोप लगाकर खुद छुटकारा पाना चाहते हैं.
भू-अभिलेख समय सीमा के अंदर तैयार किया जाता है. पर राज्य के कई जिलों में अभिलेख तैयार करने की प्रक्रिया 15-20 वर्षों से चल रही है. उदाहरण के तौर पर रांची व पलामू जिले में क्रमश: वर्ष 1976 व 1980 में भू-अभिलेख तैयार करने की अधिसूचना जारी हुई थी. पर रांची जिले के किसी भी अंचल का अभिलेख अब तक प्रकाशित नहीं किया गया है.
अध्ययन दल को ज्ञात हुआ कि भू-अभिलेख तैयार करने में भी धांधली हो रही है. ऐसे में उन्हें प्रकाशित करने पर भूमि विवाद घटने की जगह बढ़ रहे हैं. खानापूर्ति के स्तर से लेकर जांच तक में रैयतों को भारी परेशानी हो रही है. ज्यादातर कर्मचारियों व पदाधिकारियों की कार्य क्षमता व बंदोबस्त संबंधी जानकारी ठीक नहीं है. इससे अभिलेख तैयार करने में तरह-तरह की परेशानी हो रही है.
अध्ययन दल को जिन परेशानियों से अवगत कराया गया, उन सभी का तथ्यात्मक विवरण देना संभव नहीं है. पर परेशानियों के आधार पर अध्ययन दल ने पाया कि जिन कारणों से भूमि संबंधी समस्याएं निरंतर जटिल होती जा रही हैं, उनमें से राज्य में अार्थिक विकास का अभाव, ग्रामीण क्षेत्रों में शराबखोरी का प्रचलन, अौद्योगिकीकरण से उत्पन्न समस्याएं, शहरीकरण से उपजी समस्याएं, भू-अभिलेखों का उचित देखरेख न होना, प्रशासनिक अक्षमता, निर्णय पाने में विलंब, प्रशासनिक पदाधिकारियों द्वारा वादों को लंबित रखना, राजस्व न्यायालय का शिथिल होना तथा राजस्व कर्मचारी से पदाधिकारी तक का रैयतों के प्रति जमींदारी वाला रुतबा दिखाना शामिल हैं.

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