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1857 की क्रांति के नायक पांडेय गणपत राय
शहीद पांडेय गणपत राय के जन्मदिन पर विशेष कनकलता सहाय अंगरेजों के अत्याचार के खिलाफ भारत में सन 1857 की प्रथम क्रांति में कई वीर सिर पर कफन बांध उठ खड़े हुए और अंगरेजों से लोहा लिया. उनमें झांसी की रानी, वीर कुंवर सिंह, मंगल पांडे, पांडेय गणपत राय, विश्वनाथ शाही जैसे शहीदों का नाम […]
शहीद पांडेय गणपत राय के जन्मदिन पर विशेष
कनकलता सहाय
अंगरेजों के अत्याचार के खिलाफ भारत में सन 1857 की प्रथम क्रांति में कई वीर सिर पर कफन बांध उठ खड़े हुए और अंगरेजों से लोहा लिया. उनमें झांसी की रानी, वीर कुंवर सिंह, मंगल पांडे, पांडेय गणपत राय, विश्वनाथ शाही जैसे शहीदों का नाम इतिहास भुला नहीं सकता. पांडेय गणपत राय का जन्म 17 जनवरी 1809 को झारखंड के भौरों गांव में एक जमींदार कायस्थ परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम रामकिशुन राय अौर माता का नाम सुमित्रा देवी था.
उनके चाचा का नाम सदाशिव राय था, जो छोटानागपुर प्रदेश के नागवंशी महाराजा जगन्नाथ शाहदेव के दीवान थे. गणपत राय की शिक्षा-दीक्षा, परवरिश शानोशौकत के साथ शाही महल में चाचा के पास ही हुई थी. राजमहल में रहते हुए उन्होंने उर्दू, फारसी, हिंदी भाषाएं सीखी. घुड़सवारी, तीर, भाला, बंदूक चलाना तथा अन्य वीरता के गुण उन्होंने वहीं पर सीखा. महाराजा के उदासीन कार्यकलापों अौर अंगरेजों द्वारा आम नागिरकों पर होते हुए अत्याचारों को वे प्रतिदिन देखा करते थे अौर यहीं से उनका बाल मन विद्रोह कर उठता था.
गांवों के छोटे जमींदार अंगरेजों के पिट्ठू बन कर ऐशो आराम की जिंदगी जीने की ललक में अंगरेजों के हर उल्टे सीधे हुक्म का पालन करने में गर्व महसूस करते थे. रैयतों को हंटरों से पिटवाते, बंधुआ मजदूर बना कर बेगारी करवाते. गणपत राय को इससे बहुत पीड़ा होती थी़ देशप्रेम का जज्बा उन्में बचपन से ही आ गया था. चाचा की मृत्यु के बाद महाराजा ने योग्य समझ कर गणपत राय को दीवान पद की जिम्मेदारी सौंप दी अौर स्वयं मौज मस्ती में डूबे रहे.
उन्होंने अंगरेजों की कठपुतली बने जगन्नाथ शाह को अंगरेजों के विरुद्ध करने की बहुत कोशिश की पर कामयाब नहीं हुए. इस पर क्रुद्ध होकर दीवान पद छोड़ कर भौरों लौट गये अौर अंगरेजों से लोहा लेने के लिए अपनी खुद की सेना तैयार करने में जुट गये. एक अगस्त 1857 को डोरंडा छावनी में सिपाहियों ने बगावत कर दी अौर दो अगस्त को रांची विद्रोहियों के कब्जे में आ गया. गणपत राय को बहुत खुशी हुई क्योंकि सिपाहियों के विद्रोह के प्रेरणास्रोत वे स्वयं भी थे. गणपत राय ने ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव के साथ मिल कर अंगरेजों के प्रति वफादार जमींदारों अौर अफसरों को लूटने अौर दंड देने का काम किया़
सर्वसम्मति से गणपत राय को सेनापति बना दिये जाने केबाद जो स्थिति विद्रोह के रूप में उभरी थी वह क्रांति में बदल गयी. गणपत राय के सामने मातृभूमि की रक्षा सर्वोपरि थी़ उनकी तलवार के वार से सैकड़ों अंगरेजों की जानें गयीं. परेशान अंगरेज कमिश्नर डाल्टन ने अंत में एलान किया कि गणपत राय को जिंदा या मुर्दा पकड़वाने पर 500 रु का इनाम दिया जायेगा.
एक अंधेरी रात में वह रास्ता भटक गये अौर अपने ही संबंधी के घर रात में रुक गये़ उन्हें क्या पता था कि वही उनके कमरे को बाहर से ताला लगा कर लोहरदगा थाने में खबर दे आयेगा़ थानेदार ने पूरी फौज के साथ आकर उनको गिरफ्तार किया़ नियम के विरुद्ध उनका मामला कोर्ट में न ले जाकर वहीं थाने में ही कोर्ट लगी और दूसरे दिन उन्हें फांसी की सजा सुना दी गयी. गणपत राय को आनन-फानन में 21 अप्रैल 1958 को तड़के फांसी दे दी गयी.
जब उनकी अंतिम इच्छा पूछी गयी तो उन्होंने कहा कि फांसी पर झूलना स्वीकार है पर तुम विदेशी बंदरों का गुलाम बन कर जीना स्वीकार नहीं. अंगरेजी सरकार अौर अंगरेजों का नाश हो. कई पुस्तकालयों, दस्तावेजों, संबंधित व्यक्तियों से सहायता लेकर ‘शहीद पांडेय गणपत राय’ नामक किताब में उनकी जीवनी लिखी है ताकि अानेवाली पीढ़ी झारखंड के इस वीर पुरुष की कुर्बानियों को याद करें.
लेखिका गणपत राय की प्रपौत्री हैं .
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