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गुरु गोविंद सिंह जयंती पर विशेष: गोविंद सिंह जैसा बलिदान किसी ने नहीं दिया
जसवीर सिंह गुरु गोविंद सिंह जी के पावन जन्मोत्सव के शुभ अवसर पर आपको हार्दिक बधाई देने की खुशियां प्राप्त करते हुए, आइये आपसे उनके जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलुअों पर विचार और विवेचना करें. गुरु गोविंद सिंह जी विश्व इतिहास में अद्वितीय एवं अद्भुत बलिदानी थे. अापने देश की सेवा में अपने पिता, चारों […]
जसवीर सिंह
गुरु गोविंद सिंह जी के पावन जन्मोत्सव के शुभ अवसर पर आपको हार्दिक बधाई देने की खुशियां प्राप्त करते हुए, आइये आपसे उनके जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलुअों पर विचार और विवेचना करें. गुरु गोविंद सिंह जी विश्व इतिहास में अद्वितीय एवं अद्भुत बलिदानी थे.
अापने देश की सेवा में अपने पिता, चारों पुत्र, अपनी माता जी एवं स्वयं का बलिदान दिया, जिसका समकक्ष उदाहरण इतिहास के किसी पन्ने में ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता. आपने अन्याय एवं अत्यचार से जूझने में सर्व-वंश का बलिदान कर दिया और कभी भी हार नहीं मानी. सजे हुए दीवान में जब बच्चों को माता जी ने पूछा कि और बच्चे कहां हैं, तो आपका जवाब था –
‘‘इन पुत्रन के सीस पर, वार दिये सुत चार
चार मूए तो क्या हुआ, जीवत कई हजार.’’
अपने जीवन का उद्देश्य व्यक्त करते हुए आपने ‘वचित्र नाटक’ में कहा –
‘‘धर्म चलावन संत उबारन, दुष्ट सभन को मूल उपारन,
यही काज धराहम जनमं, समझु लेहु साधु सब मनमं.’’
धर्म रक्षा, संत पुरुषों का उद्धार और दुष्टों का सफाया करने के लिए ही मैंने जन्म लिया है. इसलिए गुरु जी के लिए यह एक सामान्य युद्ध नहीं था, अपितु यह धर्म-युद्ध था. अपनी कृति ‘जफरनामा’ जो अौरंगजेब को लिखा गया ‘विजय पत्र’ है, आपने उसकी धर्मांधता, आतंक और अत्याचार का घोर विरोध करते हुए, इस प्रकार उसको लिखा –
‘‘चूं कार अज हमा हीलते दर गुजश्त,
हलाल असत बुरदन बा शमीशीर दसत.’’
अर्थात जब सभी मार्ग, उपाय अवरुद्ध एवं विफल हो जायें, तो अत्याचार और अधर्म के विरुद्ध खड़ग धारण करना सर्वथा उचित है. कहना नहीं होगा वे अकारण युद्ध के प्रेमी नहीं थे, वरन धर्म-युद्ध के प्रेमी थे. उनका परम लक्ष्य युद्ध नहीं, युद्ध का अंत था. ये बात भी गौर करने की है कि उनके अनुयायियों में अनेक मुसलमान भी थे, जिन्होंने इस धर्म-युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभा कर उनकी सहायता की थी.
‘अकाल पुरुष’ परमात्मा की वंदना करते हुए आप सिर्फ ये वरदान मांगते हैं कि शुभ कार्यों के संपादन में मैं कभी भी पीछे नहीं हटूं और धर्म-युद्ध में शत्रुओं का नाश कर निश्चय ही विजय प्राप्त करूं. आपने कहा –
‘‘देह शिवा वर मोहि इहै शुभ करमन तो कबहूं न टरौं,
न डरों अरि सो जब जाइ लरों, निशचै कर अपनी जीत करों.’’
गुरु गोविंद सिंह जी बाहरी कर्म-कांडों की वर्जना करते थे और लोगों को अंधविश्वास की बेड़ियों से मुक्ति पाने की सलाह देते थे. आपके अनुसार ईश्वर से सच्चा प्रेम का नाता जोड़ना चाहिए और साथ ही उसकी संतान-मानवमात्र से ऊंच-नीच का भाव त्याग कर प्यार, सहृदयता, विनम्रता एवं आपसी भाईचारे का भाव होना चाहिए. आपने कहा –
‘‘साच कहों सुन लेह सभै
जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभु पाइओ’’
साथ ही अापने यह भी सलाह दी –
‘‘रे मन ऐसो कर सन्यासा
वन से सदन सबै कर समझहु मन ही माहिं उदासा
अलप अहार, सुलप सी निद्रा दया क्षमा तन प्रीति
सील संतोष सदा निरवाहिबो हवैवो त्रिगुण अतीत’’
गुरु जी प्राणी मात्र को सहज मार्ग अपनाने पर बल देते हुए कहते हैं कि तटस्थ उदासीनता का भाव रखते हुए घर को ही जंगल समझें एवं साधुत्व की अनुभूति करें. अल्प आहार एवं अल्प निद्रा के साथ दया, विनम्रता, क्षमा और संतोष को आत्मसात करें. गुरुजी ने स्पष्ट किया कि बिना धर्म-ज्ञान एवं ईश्वर की भक्ति से जुड़े, बड़ी से बड़ी फौज भी उनकी रक्षा नहीं कर सकती.
प्रसिद्ध आर्य-समाजी लाला दौलत राय ने कहा कि श्री गुरु गोविंद सिंह केवल सिख पंथ के गुरु नहीं, वरन विश्व के महान लोकनायक और युग-प्रवर्त्तक महापुरुष थे. उनका व्यक्तित्व असादारण और बहुमुखी था. वे लोकप्रिय धार्मिक गुरु थे और प्रगतिशील समाज सुधारक भी, चतुर राजनीतिज्ञ भी थे और सच्चे देशभक्त भी, कुशल सेनानी भी थे और निर्भीक योद्धा भी, दार्शनिक विद्वान भी थे और ओजस्वी महाकवि भी.
आश्चर्य है कि इतनी सदियों के बाद भी भारतीय समाज वर्ण-विभाजन के अभिशाप से पूर्ण-रूपेण मुक्त नहीं हो पाया है. कहने की आवश्यकता नहीं कि इससे समाज और देश की जड़ें कमजोर होती हैं और हम एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरने से पीछे रह जायेंगे.लेखक एसबीअाइ के सेवानिवृत्त महाप्रबंधक हैं.
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