19.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

छऊ मुखौटा के पीछे तंगहाल जिंदगी

छऊ मुखौटा के पीछे तंगहाल जिंदगीअब खानदानी पेशे से तौबा करना चाहते हैं सरायकेला के दिलीप कुमार आचार्या (फ्लैग) -न कोई मान-सम्मान मिला, न सरकार ने ही सुधि ली-मुखौटे के बदले उचित मेहनताना मिलना भी मुश्किलवरीय संवाददाता, जमशेदपुर राज घराने सेे निकल कर छऊ नृत्य ने आज अपनी अंतरराष्ट्रीय पहचान बना ली है. छऊ से […]

छऊ मुखौटा के पीछे तंगहाल जिंदगीअब खानदानी पेशे से तौबा करना चाहते हैं सरायकेला के दिलीप कुमार आचार्या (फ्लैग) -न कोई मान-सम्मान मिला, न सरकार ने ही सुधि ली-मुखौटे के बदले उचित मेहनताना मिलना भी मुश्किलवरीय संवाददाता, जमशेदपुर राज घराने सेे निकल कर छऊ नृत्य ने आज अपनी अंतरराष्ट्रीय पहचान बना ली है. छऊ से जुड़े कुछ कलाकारों को जहां मान-सम्मान मिला है, वहीं उनसे प्रेरित होकर कई नये कलाकार छऊ की ओर आकर्षित हो रहे हैं. लेकिन छऊ नृत्य में उपयोग किये जाने वाले मुखौटे और पोशाक तैयार करने वाले कारीगर (कलाकार) आज भी पूरी तरह से उपेक्षित हैं. परदे के पीछे रह कर इस कला की सेवा करने वाले इन कलाकारों की न तो कोई व्यक्तिगत पहचान बन सकी है न ही ये अपनी इस कला के जरिये अपनी आजीविका ही चला पा रहे हैं. ऐसे कलाकारों की कलाकृतियों को तो सभी सराहते हैं लेकिन इनके व्यक्तिगत व पारिवारिक जिंदगी के बारे में कोई जानने की कोशिश भी नहीं करता. उपेक्षा और तंगहाली की जिंदगी जी रहे ऐसे कलाकार अब इस परंपरागत पेशे को छोड़ दूसरे पेशे की ओर आकर्षित हो रहे हैं. ऐसे ही कलाकारों में से एक हैं सरायकेला के दिलीप कुमार आचार्या. इनका पूरा खानदान छऊ का मुखौटा बना कर अब तक अपनी आजीविका चलाता रहा है तथा इस कला को जीवंत बनाये रखा है, लेकिन अब दिलीप अपने इस खानदानी पेशे को अपनी अगली पीढ़ी को सौंपना नहीं चाहते हैं. इसकी वजह सरकार की उपेक्षा, जमीनी स्तर पर कलाकारों की घटती जा रही आमदनी. सरायकेला के टेंटोपोशी गांव के रहने वाले दिलीप आचार्या बताते हैं कि अगर पूजा-पाठ की मूर्ति न बनायें तो शायद परिवार चलाना भी मुश्किल हो जाये. श्री आचार्या कई अकादमी से जुड़े हुए हैं. उनकी कलाकृतियां और मुखौटे यहां से व्यापारी 150 रुपये में खरीदते हैं और दिल्ली या दूसरे शहरों में ले जाकर 1500 से अधिक कीमत में बेचते हैं. दिलीप आचार्या ने कहा कि उन्होंने अपना पूरा जीवन इस विधा को संरक्षित और संवर्धित करने में खपा दिया, लेकिन अगली पीढ़ी को इस विधा में ज्यादा रुचि नहीं है. उनके इकलौते पुत्र दीपक कुमार आचार्या बताते हैं कि इस कला में आखिर रखा क्या है. दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी अगर मुश्किल से हो पाता हो, ऐसी कला और विधा से जुड़ने से क्या लाभ? कुछ पढ़कर लिखकर दूसरे क्षेत्र में जायेंगे तो इससे कम मेहनत में ज्यादा कमाई करेंगे. ऐसे में फांकाकशीं वाली जिंदगी क्यों बितायें. दिलीप आचार्या का परिवार किसी तरह एक झोपड़ीनूमा घर में अपना जीवन यापन कर रहा है. दिलीप आचार्या के मुताबिक सरकार ने छऊ के लिए काफी कुछ किया है. छऊ के कई कलाकारों को पद्मभूषण, पद्मश्री समेत तमाम अवार्ड मिले हैं, लेकिन उनके जैसे (मुखौटे को तैयार करने वाले) कलाकार की कोई पूछ नहीं है. जबकि सच्चाई यह है कि मुखौटे के बिना छऊ का नृत्य पूर्ण नहीं हो सकता है. हर शैली में इस तरह के मुखौटे की जरूरत होती है. हर शैली के कलाकार उनसे ही मुखौटा बनवा कर ले जाते है, लेकिन सब को सब कुछ मिला, उनको कुछ नहीं मिला. न तो उनके द्वारा बनाये गये मुखौटों की वाजिब कीमत मिल पाती है न ही सरकारी योजनाओं का लाभ ही मिल पाता है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें