– डॉ आरके नीरद-
झारखंड के इस राजकीय महोत्सव का नाम आते ही मुख्यमंत्रियों के पसीने छूट जाते हैं. रघुवर दास ने भी खुद को इसका अपवाद साबित करने का मौका चौथी बार भी गंवा दिया. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जो साहस नोएडा जाकर दिखाया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिसके लिए उनकी जम कर प्रशंसा की, झारखंड के मुख्यमंत्री वह साहस नहीं कर सके.
16 फरवरी से झारखंड की उपराजधानी दुमका में राजकीय जनजातीय हिजला मेला महोत्सव शुरू हुआ है. यह 23 फरवरी तक चलेगा. इस मेले की शुरुआत 1890 में, 1855 के संताल विद्रोह के दमन से उत्पन्न जटिल परिस्थितियों को हल करने के लिए, तत्कालीन प्रशासक जेएस कास्टेयर्स द्वारा की गयी थी. इस साल यह अपनी 128वीं सालगिरह मना रहा है. 43 साल पहले इस ऐतिहासिक मेले के साथ जनजातीय शब्द जोड़ा गया था और झारखंड बनने के बाद इसे राजकीय महोत्सव का दर्जा मिला. इस मेले में बिहार, यूपी, ओड़िशा और पूर्वोत्तर के कई राज्यों के कलाकार आते रहे हैं, आ रहे हैं. पिछले साल इस मेले पर सरकार के 40 लाख रुपये खर्च हुए थे.
इस बार 60 लाख रुपये खर्च हो रहे हैं. आठ दिनों तक यह मेला चलेगा और करीब एक माह तक इसकी तैयारी में जिला प्रशासन की पूरी मशीनरी लगी रही. हिजला मेले के मौके पर स्कूलों, विश्वविद्यालय और कॉलेजों में एक दिन की छुट्टी भी रहती है. समाज का हर तबका इस मेले से किसी-न-किसी रूप से जुड़ा है. यानी समाज से सरकार तक के लिए यह मेला बेहद खास है, मगर कोई मुख्यमंत्री, मंत्री या अफसर इसका उद्घाटन करने का साहस नहीं जुटाता है.
पांच आदिवासी मुख्यमंत्री, 18 साल!
बाबूलाल मरांडी से लेकर हेमंत सोरेन तक झारखंड में पांच आदिवासी मुख्यमंत्री हुए. इन आदिवासी मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में 12 बार यह मेला लगा. दो बार राष्ट्रपति शासन में. रघुवर सरकार के समय यह मेला चौथी बार लगा है. इन अठारह अवसरों (सालों) में एक बार भी किसी मुख्यमंत्री-राज्यपाल ने न तो इसका उद्घाटन किया, न समापन समारोह में शामिल हुए. हिजला मेला वैसे तो झारखंड का राजकीय महोत्सव है, लेकिन संताल परगना की यह सांस्कृतिक परंपरा का विशिष्ट आयोजन है. झारखंड बनने के बाद संताल परगना से दो मुख्यमंत्री (पहले स्थानीय सांसद व दूसरे स्थानीय विधायक), दो उपमुख्यमंत्री, 10 मंत्री और दो विधानसभा अध्यक्ष हुए. 10 में से पांच मंत्री आदिवासी समाज के थे/हैं. दोनों उपमुख्यमंत्री दुमका के विधायक और संताल समाज के थे. विधानसभा अध्यक्षों में एक गैर आदिवासी और दूसरे मुस्लिम समुदाय के थे. मंत्रियों-उपमुख्यमंत्रियों में चार का संबंध ईसाई समुदाय से था/है. यानी आदिवासी, गैर आदिवासी, अगड़ी जाति, पिछड़ी जाति, हिंदू, मुसलमान और ईसाई, कोई ऐसा वर्ग या समुदाय नहीं है, जिससे ताल्लुकात रखने वाले संताल परगना के नेता मंत्री-वंत्री नहीं बने, मगर हिजला मेला का उद्घाटन करने का साहस किसी ने नहीं किया.
मुख्यमंत्री रहते शिबू सोरेन और मंत्री रहते प्रो स्टीफन मरांडी मुख्य अतिथि बन कर मेले के उद्घाटन समारोह में जरूर आये, मगर जब मुख्य द्वार पर फीता काटने का अवसर आया, तब कैंची हिजला (गांव) के ग्राम प्रधान को थमा दी. नेता-तो-नेता, अफसरों का भी यही हाल है. मेला समिति के संरक्षक संताल परगना के कमिश्नर होते हैं. अध्यक्ष दुमका के उपायुक्त, उपाध्यक्ष जिले के उप विकास आयुक्त और सचिव अनुमंडल पदाधिकारी, मगर उद्घाटन करने की हिम्मत किसी में नहीं होती. इस बार ऐसा ही हुआ.
हिजला मेला राजकीय महोत्सव है! सांस्कृतिक धरोहर
बस, इसलिए कुछ मुख्यमंत्री और आला अफसर जिन्होंने मेले का उद्घाटन किया वे अपनी नाकामियों की वजह से सत्ताच्युत हो गये. इसलिए इन सबका ठीकरा हिजला मेले के माथे फूटा.
अविभाजित बिहार के वक्त से चल रहा यह सिलसिला
यह सिलसिला बिंदेश्वरी दुबे के समय से शुरू हुआ. उससे पहले आम तौर पर यह चलन था कि मुख्यमंत्री इसका उद्घाटन करते थे और राज्यपाल समापन. मार्च 1985 से 1990 तक, पांच साल में बिहार में पांच मुख्यमंत्री बदले. इसकी वजह राजनीतिक थी, कुछ और नहीं, मगर दोष हिजला मेले के हिस्से आया. दुबे जी ने 1988 में हिजला मेले का उद्घाटन किया और उसके बाद ही उनकी कुर्सी चली गयी. उनके बाद भागवत झा आजाद मुख्यमंत्री बने और इस मेले का उन्होंने उद्घाटन किया. यहां से लौटने के कुछ ही समय बाद उनकी कुर्सी चली गयी और सत्येंद्र नारायण सिंह मुख्यमंत्री बने. महज नौ माह में सत्येंद्र नारायण सिंह भी कुर्सी से बेदखल कर दिये गये. जगन्नाथ मिश्र दिसंबर 1989 में तीसरी बार मुख्यमंत्री बने और महज तीन माह से विदा हो गये. अब यह मान लिया गया कि जो मुख्यमंत्री हिजला मेले का उद्घाटन करता है, वह मेले का एक साल पूरा होने के पहले गद्दी से उतर जाता है.