अनदेखी . घटने लगी है कोसी में आनेवाले मेहमान पक्षियों की संख्या
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स्वाद ही बना जान का दुश्मन
अनदेखी . घटने लगी है कोसी में आनेवाले मेहमान पक्षियों की संख्या जिले के विभिन्न झील, तालाब व कोसी के कछार में पूर्व में सैकड़ों प्रकार के पक्षियों का बसेरा होता था़ ठंड का मौसम आते ही नदी व दलदली क्षेत्र तरह-तरह की पक्षियों के कलरव से चहचहा उठते थे़ कोसी के चांप चौड़ियों में […]
जिले के विभिन्न झील, तालाब व कोसी के कछार में पूर्व में सैकड़ों प्रकार के पक्षियों का बसेरा होता था़ ठंड का मौसम आते ही नदी व दलदली क्षेत्र तरह-तरह की पक्षियों के कलरव से चहचहा उठते थे़ कोसी के चांप चौड़ियों में लाखों की जगह अब कभी – कभार इक्का-दुक्का विदेशी पक्षियां ही नजर आती है़
सुपौल : कोसी नदी का कछार व जिले में मौजूद सैकड़ों झील व चांप-चौड़ियां कुछ वर्ष पूर्व तक देशी व विदेशी पक्षियों का महत्वपूर्ण अभ्यारण्य माना जाता था़ सीजन आते ही नदी व दलदली क्षेत्र तरह-तरह की पक्षियों के कलरव से चहचहा उठते थे़ विशेष कर शरद ऋतु में जब विदेशी पक्षियों का आगमन होता था़, तो नजारा और भी मनोहारी हो उठता था़ लाखों की संख्या में छोटी-बड़ी रंग-बिरंगी अतिथि पक्षियों का कोसी की धरती व ताल तलैयों में आना ना सिर्फ इलाके के बेहतर पर्यावरण का परिचायक था.
बल्कि इन चिड़ियों की चहचहाहट माहौल को खुशनुमा बना देती थी़ बच्चे, बूढ़े व जवान जाड़े के मौसम में नदी व झीलों के किनारे खड़े होकर इन सुंदर पक्षियों का रूप रंग देख मुग्ध होते थे़ पक्षियों का कलरव मानव जीवन में एक नई ऊर्जा का संचार भी करती थी़ लेकिन दुर्भाग्य है कि समय के साथ ही इन पक्षियों का दर्शन दुर्लभ हो ता जा रहा है़ कोसी के चांप चौड़ियों में लाखों की जगह अब कभी
– कभार इक्का- दुक्का विदेशी पक्षियां ही नजर आती है़ आधुनिकीकरण के अंधी दौर में पशु पक्षियों की विलुप्तता ना सिर्फ मौसम व पर्यावरण में हो रहे खतरनाक बदलाव बल्कि बदल रही सामाजिक संस्कति की ओर भी इशारा कर रही है़ समय रहते सरकार, समाज व पर्यावरण विद अगर नहीं संभले तो दुर्लभ हो चुके इन पक्षियों का वजूद ही खत्म हो जायेगा, इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता़
विदेशी पक्षियों के मिटते वजूद का प्रमुख कारण इनका स्वादिष्ट होना भी बताया जाता है़ गौरतलब है कि लालसर, दीघोंच, चाहा, बगेरी जैसी कई चिड़ियों का मांस काफी स्वादिष्ट माना जाता है़ लिहाजा मांस प्रेमी शौकीन या तो बंदूकों से इसका शिकार कर डालते हैं या फिर बहेलियों से मुंह मांगे दाम पर इसे खरीद कर अपना शौक मिटाते हैं.
जाड़े के मौसम में ये बहेलियां विशेष रूप से सक्रिय होते हैं. इनके द्वारा शाम ढ़लते ही चांप चौड़ियों में कई प्रकार का फंदा लगा दिया जाता है़ जिसमें फंसे बेचारे बेजुवान पक्षियों को सबेरे बाजार में बेच दिया जाता है़ हालांकि इन पक्षियों का शिकार कानूनी रूप से अवैध है़ लेकिन प्रशासनिक लापरवाही की वजह से फंदेबाजों का कारोबार चोरी छिपे ही सही, आज भी जारी है़ समय रहते समाज व सरकार इस ओर सचेष्ट नहीं हुई तो वह दिन दूर नहीं जब हर साल विदेश से आने वाली सुंदर मेहमान पक्षियां किस्सों कहानियों तक ही सिमट जायेगी़
नहीं दिखते अब लालसर व अधंगा : गौरतलब है कि जिले के विभिन्न झील, तालाब व कोसी के कछार में पूर्व में सैकड़ों प्रकार के पक्षियों का बसेरा होता था़ वहीं शीत ऋतु में साइबेरिया, रूस, युक्रेन व अन्य ठंडे मुल्कों से मेहमान पक्षियों का आगमन होता था़ जिसमें लालसर, अधंगा, दीघोंच, टोपरिया, खखरी, डुआब, नकटा जैसे डक प्रजाति की पक्षियों के साथ ही चाहा, बगेरी, हरियल, बसुलिया चाहा, कारन, हंसुआ दाभिल, खुरपा दाभिल, वाक आदि प्रमुख थे़ डक प्रजाति की अधिकांश पक्षियां दिन में कोसी की अविरल जल धारा में अठखेली करती थी़
वहीं शाम से सुबह तक चांप चौड़ी जैसे दलदली जगहों पर इनका बसेरा होता था, जहां रात में वे अनाज, कीड़े- मकोड़े व कई वानस्पतिक भोजन प्राप्त करते थे़ सुरक्षा के द्ष्टिकोण से सबेरे ये नदियों की ओर पलायन कर जाते थे़ अहले सुबह खेतों में जाने वाले किसान आसानी से इनका कलरव देख आनंदित होते थे़
मालूम हो कि सदियों से कोसी प्रभावित इस क्षेत्र में चांप-चौड़ी व ताल-तलैयों की भरमार थी़ लेकिन कालक्रम में ड्रेनेज सिस्टम का विकास हुआ़ नतीजतन चांप – चौड़ी खत्म होते गये़ बड़े तालाबों की परंपरा भी समाप्त हो चुकी है़ जाहिर तौर पर चिड़ियों का मन पसंद आशियाना भी खत्म हो रहा है़ जो कुछ क्षेत्र बचे भी हैं
वहां लोगों की बढ़ती आबादी की वजह से टोले -टप्परों की भरमार हो गयी है़ ऐसे में समस्या यह है कि आखिर ये मेहमान पक्षियां जायें तो जायें कहां? यही कारण है कि कोसी क्षेत्र में भारी तादाद में पक्षियों का बसेरा अब पुरानी यादें बनती जा रही है़ पर्यावरण के साथ ही ग्लोबल वार्मिंग की वजह से तापमान में हुए बदलाव को भी इसका कारण माना जाता है़
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