Pitru Paksha 2025: सनातन धर्म में पितरों की मुक्ति के लिए पितृपक्ष में पिंडदान का विशेष महत्व माना गया है. परंपरा के अनुसार श्रद्धालु सबसे पहले पटना जिले की पुनपुन नदी में स्नान कर अपने पूर्वजों को प्रथम पिंड अर्पित करते हैं. इसके बाद ही वे मोक्ष की नगरी गयाजी पहुंचकर श्राद्ध और तर्पण की विधि पूरी करते हैं. पुराणों में पुनपुन नदी को गया श्राद्ध का प्रवेश द्वार बताया गया है. ऐसा विश्वास है कि यदि पितरों को पुनपुन में प्रथम पिंड नहीं दिया जाता तो गया में किया गया श्राद्ध अधूरा माना जाता है. इसी कारण सदियों से पुनपुन नदी में प्रथम पिंडदान की यह परंपरा चली आ रही है.
भगवान श्रारीम से जुड़ी है ये परंपरा
पुनपुन नदी में पहले पिंडदान की परंपरा के पीछे पौराणिक मान्यता जुड़ी हुई है. कहा जाता है कि भगवान राम ने अपने पिता राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए सबसे पहले पुनपुन नदी के तट पर पिंडदान किया था. इसके बाद उन्होंने गया की फल्गु नदी में पिंडदान की विधि पूरी की. इसी कारण पुनपुन नदी को ‘आदि गंगा’ और पिंडदान का पहला द्वार माना जाता है. विश्वास है कि यहां पहला पिंड चढ़ाए बिना गया में किया गया श्राद्ध अधूरा और निष्फल माना जाता है.
17 दिन वाले पिंडदान की है खास अहमियत
पितृपक्ष माह में पूर्वजों की आत्मा की शांति और मोक्ष के लिए अलग-अलग प्रकार के कर्मकांड किए जाते हैं. इनमें मुख्य रूप से पाँच तरह के अनुष्ठान शामिल हैं. परंपरा के अनुसार कोई व्यक्ति 1 दिन, 3 दिन, 7 दिन या 17 दिनों तक पिंडदान कर सकता है. इनमें 17 दिनों तक लगातार किया जाने वाला पिंडदान सबसे बड़ा और विशेष माना जाता है, जिसे ‘त्रिपाक्षिक पिंडदान’ कहा जाता है. माना जाता है कि इस विधि से किए गए पिंडदान से पितरों को पूर्ण तृप्ति और मोक्ष की प्राप्ति होती है.
सीता जी ने पिंडदान की जताई थी इच्छा
राजा दशरथ की जब मृत्यु हुई, उस समय राम, लक्ष्मण और सीता वनवास में थे. ऐसे में भरत और शत्रुघ्न ने राजा दशरथ का अंतिम संस्कार किया.कहा जाता है की उनकी चिता की बची राख उड़कर गया की फल्गु नदी किनारे आ गई. वहां माता सीता को उस राख में राजा दशरथ के दर्शन हुए थे. तब सीता जी ने अपने ससुर का पिंडदान करने की इच्छा जताई. उन्होंने नदी, गाय और वटवृक्ष को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर पिंडदान किया था.

