Dr. Sachchidanand Sinha: एक ऐसे दौर में जब बिहार बंगाल प्रांत का एक हिस्सा भर था और उसकी अपनी कोई प्रशासनिक पहचान नहीं थी, सच्चिदानंद सिन्हा ने अपनी कलम, विचार और राजनीतिक समझ से उसे स्वतंत्र स्वर दिया. उन्होंने न सिर्फ बिहार को बंगाल से अलग करवाया, बल्कि उसके सांस्कृतिक पुनर्जागरण, शैक्षिक संस्थानों और न्यायिक ढांचे की भी आधारशिला रखी.
अगर आज बिहार भारत के राजनीतिक नक्शे पर एक अलग राज्य के रूप में मौजूद है, तो इसके पीछे डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा का अथक संघर्ष है, वे उस वैचारिक परंपरा के जनक थे जिसने आधुनिक बिहार की नींव रखी, शिक्षा, कानून, पत्रकारिता और सामाजिक सुधार के जरिए.
आरा से उठी आवाज जिसने बदला इतिहास
10 नवंबर 1871 को आरा में जन्मे सच्चिदानंद सिन्हा बचपन से ही असाधारण थे. पिता एक छोटे जमींदार थे, पर उनके संस्कारों में आत्मसम्मान और अध्ययन की गहराई थी. उन्होंने स्थानीय स्कूल से शिक्षा शुरू की और जल्द ही अंग्रेज़ी और संस्कृत दोनों में दक्ष हो गए. इसी दौरान उनकी मित्रता दो ऐसे युवकों से हुई, अली इमाम और हसन इमाम, जो आगे चलकर बिहार की राजनीति में उनके सहयात्री बने.
एक दिन अली इमाम इंग्लैंड बैरिस्टरी पढ़ने चले गए. तब सिन्हा साहब के मन में भी वही आग जगी. लेकिन उस दौर में कोई हिंदू युवक विदेश जाए, तो समाज उसे अछूत मान लेता था. लोगों ने उन्हें डराया “वापस लौटोगे तो कोई छूएगा भी नहीं.”
सच्चिदानंद ने कहा “अगर शिक्षा को पाने की कीमत बहिष्कार है, तो मैं खुशी से दूंगा.”
1889 में उन्होंने सब कुछ बेच दिया, रिश्तेदारों से 200 रुपये उधार लिए और समुद्र पार लंदन पहुंच गए.

लंदन की गलियों में जन्मी ‘बिहार’ की चेतना
लंदन में उन्होंने न केवल बैरिस्टरी की पढ़ाई की, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के बौद्धिक केंद्र से भी जुड़े. वहां वे ब्रिटिश कमेटी ऑफ इंडियन नेशनल कांग्रेस के सदस्य बने और दादाभाई नौरोजी के चुनाव प्रचार में जुट गए. वहीं उन्होंने पहली बार महसूस किया कि भारत की तरह ही बिहार की पहचान भी खो चुकी है.
एक दिन किसी ने उनसे पूछा — “Where are you from?”
उन्होंने उत्तर दिया — “From Bihar.”
सामने वाले ने हंसकर कहा — “Which Bihar?”
वह एक सवाल उनके भीतर आग बनकर जलता रहा. भारत लौटने तक उन्होंने ठान लिया बिहार को अपनी पहचान दिलाए बिना चैन नहीं लेंगे.
‘बिहार टाइम्स’: कलम से उठी क्रांति
1894 में पटना लौटकर उन्होंने पत्रकार महेश नारायण और मजहरुल हक के साथ मिलकर ‘बिहार टाइम्स’ नामक अखबार निकाला. यह सिर्फ अखबार नहीं, आंदोलन की आवाज़ बन गया. उन्होंने लिखा —
“बंगाल ने बिहार को अपना चारागाह बना लिया है. यहां शिक्षा, प्रशासन और न्यायालयों में बंगाली वर्चस्व है.अब समय आ गया है कि बिहार अपने पैरों पर खड़ा हो.”
उनकी लेखनी ने युवाओं में चेतना भर दी. पहली बार लोग “मैं बंगाल का नहीं, बिहारी हूं” कहने लगे.
1905 में जब बंगाल का विभाजन हुआ, तो सच्चिदानंद सिन्हा ने इसका विरोध करते हुए ‘पार्टीशन ऑफ बंगाल एंड सेपरेशन ऑफ बिहार’ नामक पुस्तिका प्रकाशित की.
उन्होंने लिखा “अगर बंगाल का विभाजन जरूरी है, तो बिहार को उसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक एकता के साथ अलग प्रांत बनाया जाए.”
इस विचार ने शिक्षित वर्ग को झकझोर दिया. 1908 में उन्होंने मजहरुल हक, दीप नारायण सिंह और हसन इमाम के साथ बिहार प्रांतीय कांग्रेस समिति बनाई. यह आंदोलन अब पूरे प्रदेश की आवाज बन गया.

दिल्ली दरबार से मिला ऐतिहासिक ऐलान
1910 में वे केंद्रीय विधायिका के सदस्य बने और वहीं से उन्होंने बिहार के हक में तर्क रखना शुरू किया. उनके मित्र अली इमाम ने लॉर्ड हार्डिंग तक यह बात पहुंचाई. अंततः 12 दिसंबर 1911 को दिल्ली दरबार में लॉर्ड हार्डिंग ने बिहार-उड़ीसा प्रांत के गठन की घोषणा की.
1 अप्रैल 1912 को यह सपना साकार हुआ, बिहार पहली बार भारत के नक्शे पर एक स्वतंत्र इकाई बन गया. सिन्हा साहब ने कहा था — “अगर बिहार को सशक्त बनाना है, तो उसे दो चीजे चाहिए , शिक्षा और न्याय”
1916 में उनके प्रयास से पटना हाईकोर्ट और 1917 में पटना विश्वविद्यालय की स्थापना हुई. वह मानते थे कि शिक्षित बिहार ही आत्मनिर्भर बिहार बन सकता है.
समाज सुधारक सच्चिदानंद
जब वे विदेश से लौटे तो समाज ने उन्हें जाति से बाहर कर दिया. कहा गया कि उन्हें ‘प्रायश्चित भोज’ करना होगा, तभी जाति में पुनः प्रवेश मिलेगा. उन्होंने साफ इनकार कर दिया. किसी कायस्थ परिवार ने उनसे बेटी की शादी करने से इनकार किया तो उन्होंने लाहौर में जाति के बाहर शादी कर ली. उनकी पत्नी राधिका देवी न केवल साथी थीं, बल्कि उनके विचारों की सच्ची सहभागी भी. उनकी याद में उन्होंने ‘राधिका सिन्हा इंस्टिट्यूट’ और ‘सच्चिदानंद सिन्हा लाइब्रेरी’ की स्थापना की.
1899 में उन्होंने ‘कायस्थ समाचार’ और ‘हिंदुस्तान रिव्यू’ नामक पत्र निकाले. इनमें उन्होंने शिक्षा, महिला सशक्तिकरण और औद्योगिक विकास पर लेख लिखे. उन्होंने कहा- “अगर बिहार को आगे बढ़ना है, तो उसे रूढ़ियों से मुक्त होकर ज्ञान और उद्योग की ओर बढ़ना होगा.”
राजनीति में नैतिकता की मिसाल
1921 में वे बिहार-उड़ीसा प्रांत की कार्यकारी परिषद में शामिल हुए और जेल सुधार के लिए काम किया. राजनीतिक बंदियों के साथ अमानवीय व्यवहार का उन्होंने कड़ा विरोध किया. 1936 में वे पटना विश्वविद्यालय के पहले भारतीय कुलपति बने. 1946 में उन्हें संविधान सभा का सदस्य चुना गया. उन्होंने प्रोटेम स्पीकर के रूप में पहले सत्र की अध्यक्षता की और 14 फरवरी 1950 को पटना में संविधान की मूल प्रति पर हस्ताक्षर किए.

जब जवाहरलाल नेहरू को भी झुकना पड़ा
डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा जितने विद्वान थे, उतने ही दबंग भी. उनकी मौजूदगी में बड़े-बड़े नेता भी छोटे लगते थे. पंडित मोतीलाल नेहरू, सर तेज बहादुर सप्रू, भूलाभाई देसाई — सभी जब भी पटना आते, सिन्हा साहब के घर ही ठहरते.
एक बार आजादी से दो साल पहले जवाहरलाल नेहरू पटना आए और सर्किट हाउस में ठहर गए. खबर मिलते ही डॉ. सिन्हा वहां पहुंचे और बोले — “तुम्हारे बाप की मजाल नहीं थी कि पटना में कहीं और ठहर जाएं और तुम मेरे जीते-जी सर्किट हाउस में?” नेहरू निरुत्तर हो गए.
सिन्हा साहब ने कहा — “खानसामा, साहब का सामान मेरी गाड़ी में रखो.” और जवाहरलालजी बिना प्रतिवाद किए अपने ‘अंकल’ के पीछे चल दिए.
“हिंदी भी कोई जुबान है?” और फिर बदल गई सोच
1935 में, जब वे पटना विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर थे, एक दिन उन्हें एक कार्यक्रम का निमंत्रण मिला. मुख्य वक्ता थे पं. माखनलाल चतुर्वेदी. जब उन्होंने सुना कि वक्ता हिंदी में बोलेंगे, तो हंसते हुए बोले —
“हिंदी भी कोई जबान है? इसे तांगावालों के लिए रहने दो.”
लेकिन जब माखनलाल चतुर्वेदी मंच पर बोले “हम व्यक्ति नहीं, पुस्तकें पढ़ते हैं. जिस साहित्य में व्यक्तित्व को पढ़ने का साहस नहीं, वहां नए व्यक्तित्व का जन्म असंभव है.”
सभा में सन्नाटा छा गया. सिन्हा साहब के मुंह से निकला — “वाह!” भाषण खत्म होने पर वे खुद जाकर बोले “मैंने अपने जीवन में ऐसा भाषण बहुत कम सुना है.”
उसी दिन उन्होंने माना कि हिंदी सिर्फ जबान नहीं, आत्मा की भाषा है.

संविधान की प्रति पर अंतिम हस्ताक्षर
1950 तक उनकी तबियत बहुत खराब हो चुकी थी. संविधान की मूल प्रति उनके हस्ताक्षर के लिए दिल्ली से विशेष विमान से पटना लाई गई. 14 फरवरी 1950 को उन्होंने डॉ. राजेंद्र प्रसाद की उपस्थिति में उस पर हस्ताक्षर किए. वह कागज उनके जीवन संघर्ष का प्रतीक बन गया. कुछ ही हफ्तों बाद, 6 मार्च 1950 को, उन्होंने अंतिम सांस ली.
उनकी मृत्यु पर राजेंद्र प्रसाद ने कहा “अगर बिहार का इतिहास लिखा जाएगा, तो उसके पहले पन्ने पर डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा का नाम होगा.”
डॉ. सिन्हा ने दिखाया कि एक व्यक्ति अगर संकल्प और नैतिकता के साथ खड़ा हो, तो इतिहास की दिशा बदल सकता है. उनका जीवन पत्रकारिता, शिक्षा और राजनीतिक नैतिकता का दुर्लभ संगम था. आज भी जब बिहार अपनी पहचान की बात करता है, तो पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा की आवाज सुनाई देती है “बिहार कोई परछाई नहीं, वह भारत की आत्मा का एक चेहरा है.”
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