Bihar politics: 2025 का विधानसभा चुनाव बिहार में दस्तक देने वाला है. इस बार भी चुनावी गणित का केंद्र वंचित और दमित समाज ही हैं. राजद, जद-यू, लोजपा, हम या वीआईपी—हर दल अपने-अपने जातीय आधार को साधने में जुटे है.
इस पृष्ठभूमि में एक ऐतिहासिक सवाल गूंज रहा है: गैर-कांग्रेसी सरकार के गठन के 75 साल, संपूर्ण क्रांति के 50 साल और मंडल राजनीति के 25 साल बाद भी, क्या वंचित और दमित चेतनाएं अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी निभा पाई हैं या वे सिर्फ सत्ता की राजनीति तक सीमित होकर रह गई हैं?
गैर-कांग्रेसी दौर से लालू युग तक
1967 से ही राष्ट्रीय पार्टियां बिहार की राजनीति से बेदखल होने लगी थीं. महामाया प्रसाद सिंह बिहार के पहली गैर कांग्रेसी सरकार के मुख्यमंत्री बने और कर्पूरी ठाकुर को उपमुख्यमंत्री बनाया गया. इस सरकार को स्थिरता देने के लिए जनसंघ और सीपीआई के नेता एक ही मंत्रीमंडल में मंत्री बने. ये अपनेआप में एक अनोखा प्रयोग था जो न इसके पहले कभी हुआ था न इसके बाद कभी हुआ. कांग्रेस का पतन और गैर-कांग्रेसी राजनीति यही से शुरू हो चुकी थी.
डॉ. राममनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर जैसे नेताओं के स्वर जब बिहार में लहराने लगे, तब बिहार में वंचित और दमित चेतनाएं सक्रिय होने लगीं. कर्पूरी ठाकुर और जेपी आंदोलन की समाजवादी राजनीति ने वंचित समाज को राजनीतिक भाषा और स्वर दिया. जो बाद में बिहार के राजनैतिक क्षितिज पर लालू यादव के उदय से राष्ट्रीय पार्टियों की बेदखलीकरण की प्रक्रिया पूरी हो गई है.
राष्ट्रीय पार्टियां अपनी जमीन खोती गई
इसका चरम 1990 में लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री बनने से आया. उनके साथ राष्ट्रीय पार्टियों की जड़ें लगभग उखड़ गईं. कांग्रेस तो लुंजपुंज हो ही गई थी. भाजपा और कांग्रेस को बिहार में सांस लेने के लिए भी क्षेत्रीय दलों का सहारा लेना पड़ा. लालू यादव ने “सामाजिक न्याय” का नारा देकर पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों की चेतनाओं को मुख्यधारा की राजनीति में खड़ा कर दिया.
इस दौर में भाजपा अगर कुछ इलाकों में जीवित रही, तो उसका कारण उनके शूद्र क्षत्रप नेता नहीं है. कहीं न कहीं बाबरी मस्जिद आंदोलन की स्मृतियां रही या मौजूदा समय में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का करिमाई चेहरा. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि बिहार में राष्ट्रीय पार्टियों का कोई अपना कार्यक्रम नहीं है. उनके कार्यक्रम एक तरह से क्षेत्रीय पार्टियों के दबाव से बनते-बिगड़ते रहे.
लालू, नीतीश और रामविलास पासवान

क्षेत्रीय पार्टियों की रैलियों के सामने राष्ट्रीय पार्टियों की रैलियां फीकी और निष्प्राण नजर आती थीं. लालू, नीतीश और रामविलास पासवान जेपी के संपूर्ण आंदोलन की उपज थे. तीनों ने अपने-अपने जातीय आधार पर राजनीति खड़ी की और लंबे समय तक बिहार की राजनीति इन्हीं तीन ध्रुवों पर घूमती रही. आज भी ये चेतनाएं बिहार की राजनीति को न केवल प्रभावित कर रही हैं, बल्कि ये चेतनाएं उसकी नियति का फैसला भी कर रही हैं.
मौजूदा विधानसभा चुनाव में भी ये चेतनाएं निर्णायक तत्व हैं, इसलिए इन पर गंभीरता से विचार-विमर्श होना चाहिए कि क्या बिहार की वंचित और दमित चेतनाएं के आकलन से इस राज्य के पिछड़ेपन और उससे मुक्ति का रास्ता भी खुल सकता है? क्या यह चेतनाएं लालू यादव के सामाजिक न्याय, नीतीश कुमार के सोसल इंजीनियरिंग के मांडल के बाद बिहार को, नये बिहार के रूप में नया फार्मूला विकसित कर सकती है? क्या उन्होंने समाज बदलने की राजनीति की या सिर्फ सत्ता में भागीदारी की राजनीति?
हमें यह ध्यान रखना होगा उदारीकरण और वैश्वीकरण के नीतियों से जहां देश के अन्य राज्यों ने विकास के नये-नये प्रतिमान गढ़े, बिहार उसमें पीछे रह गया.
मंडल के बाद का दौर
90 के दशक में बिहार की वंचित और दमित चेतनाएं चेतनाओं के तीन प्रतीक हैं- लालू यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान. बाद के दशक में मुकेश सहनी, जीतनराम मांझी, उपेन्द्र कुशवाहा…भी स्वतंत्र चेतना के रूप में उभरने का प्रयास करने लगे. पर इन तीन चेतानाओं के अभाव में अपना अस्तीत्व तलाश नहीं कर पा रही है.
तीनों चेतनाएं राजनैतिक सत्ता के लिए कभी गठजोड़ करती हैं और कभी बिखर जाती हैं. इन चेतनाओं के पास कोई बड़ा सपना नहीं है, न ही वे उदार हैं.
लालू यादव शूद्र-चेतना के सबसे ताकतवर प्रतीक हैं. दुर्भाग्यवश उनकी सीमा ‘यादव’ जाति है. यादव जाति संख्या में भी अन्य जातियों की तुलना में बहुसंख्यक है और प्रकृति से दबंग है. उनका तात्कालिक और राजनैतिक गठजोड़ मुसलमानों के साथ है. परंतु मुसलमानों का पसंमादा तबका आज भी अपने विकास की बाट जोह रहा है. मुसलमानों के साथ उनके गठजोड़ से लालू यादव को राजनैतिक फायदा पहुंचता है. वंचित और दमित चेतनाओं की छोटी-छोटी जातियों को मिलाने और संगठित करने का उनके पास कोई कार्यक्रम नहीं है. उन जातियों के असंतोष और ताकत के आधार पर वे मौके-बेमौके राजनैतिक सत्ता की रोटियां फेंकते रहते हैं.
कभी वे निषादों को पुचकारते हैं, तो कभी कोइरियों को. इन जातियों के नेता भी ‘बाउंड्री’ पर खड़े रहते हैं, जिधर की रोटियां मिलती हैं, उधर चल पड़ते हैं. सिद्धांतविहीनता उनके रग-रग में समाई हुई है. उनकी पार्टी के इस छवि को उनके पुत्र तेजस्वी तोड़ने का पूरा प्रयास कर रहे है पर एम-वाई के समीकरण से इतर कोई नया जातीय, वर्गीय या धार्मिक समीकरण बनाने में कामयाब नहीं हो पाए है.
सीमाओं में बंधे नेता
नीतीश कुमार को बिहार की राजनीति का चाणक्य कहा जाता है. वे पहले लालू यादव के साथ थे. फिर राजनैतिक स्वार्थ और आकांक्षाओं ने दोनों को अलग किया. उनकी सीमा भी उनकी जाति है. वे कुर्मियों के नेता हैं. उन्होंने बिना हिचक के भाजपा से दोस्ती की.
भाजपा के बारे में यह दुहराने की आवश्यकता नहीं है कि वह अंततः जाति-प्रथा को तोड़ने वाली ताकत नहीं है. उसने कभी भी हिंदुओं की एकता के लिए जाति तोड़ने का आह्वान नहीं किया. उनकी मातृ-संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विभिन्न तरह के सामाजिक कार्य करने के भ्रम पैदा करती है, लेकिन हिंदू-समाज की कोढ़ के बारे में वह चुप रहती है.
नीतीश कुमार ने उनसे दोस्ती कर जाति-प्रथा के खिलाफ लड़ने वाली धारा को कुंद किया. वे जेपी आंदोलन की पैदाइश हैं और लोहिया-कर्पूरी की समाजवादी धारा के आसपास खड़े दीखते रहे हैं.उनसे उम्मीदें थीं, मगर ऐतिहासिक दुष्चक्रों के वे शिकार हो गए. नीतीश कुमार ने कुशलकार्य प्रणाली से महिला मतदाताओं के बीच एक अलग पहचान बनाई. साथ ही साथ उन्होंने महादलीत के संबोंधन में कई दमित जातियों को एक कैनवास में ला कर विकास के पहले पायदान पर पहुंचने में सफल रहे.
स्वर्गीत रामविलास पासवान दलित थे और सामाजिक रूप से लालू यादव और नीतिश कुमार की तुलना में ज्यादा पिछड़ी थी. उनके पास उनकी दलित सेना भी थी, लेकिन उनकी सीमा भी, उनकी जाति पासवान ही रही. पासवानों की स्वाभाविक दोस्ती न चर्मकारों के साथ है, न अन्य दलित जातियों के साथ.वे कभी लालू यादव से हाथ मिलाते तो कभी नीतीश कुमार से.
फिलहाल उनके पुत्र नरेन्द्र मोदी के हनुमान के भूमिका में है उनकी पार्टी परिवार में ही दो फाड़ हो चुकी है. वह कभी नीतीश कुमार के साथ दिखते है कभी मुखर विरोधी हो जाते है कहना गलत नहीं होगा कि आजकल वह राजनैतिक हठयोग कर रहे हैं.
अधूरी क्रांति और जनता की बेचैनी
सवाल है कि आखिर ये वंचित और दमित चेतनाएं समाज-परिवर्तन की दिशा में सक्रिय क्यों नहीं हुईं? क्यों नहीं ये चेतनाएं व्यापक धर्म, संस्कृति या राष्ट्रवाद के निर्माण में अपनी भूमिका निभा पाई ? उनके पीछे महात्मा फुले, बुद्ध, डॉ. अंबेडकर, डॉ. राममनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर जैसे चिंतक, नेता और सामाजिक कार्यकर्त्ता रहने के बावजूद वे क्यों फिसल गई?

