Bihar News: बिहार विधानसभा चुनाव में प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी की करारी हार ने एक बार फिर बहस छेड़ दी है कि आखिर क्यों भारत में नए राजनीतिक दल टिक पाते नहीं हैं. प्रशांत किशोर की पार्टी ने बिहार में महीनों तक अभियान चलाया, गांव-गांव ‘जन संवाद यात्रा’ कराई, राजनीतिक बहसों में केंद्र में रही, लेकिन चुनाव आते ही हवा निकल गई. यही कहानी न तो पहली है और शायद आखिरी भी नहीं होगी.
कमल हासन, प्लुरल्स और जन सुराज, उम्मीदें ऊंची, नतीजे शून्य
कमल हासन ने जब मक्कल नीधि मैयम की स्थापना की, तो तमिल राजनीति में हलचल मच गई. सिनेमाई लोकप्रियता को वोटों में बदलने का फॉर्मूला दक्षिण भारत में नया नहीं था. एमजीआर, जयललिता और एनटीआर इसकी मिसाल हैं. लेकिन अभिनेता-राजनीति समीकरण अब पहले जैसा मजबूत नहीं रहा.
2021 के तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में हासन की पार्टी का खाता भी न खुला, शून्य सीटें, निराशाजनक वोट शेयर रहा.
इसी तरह, बिहार में पुष्पम प्रिया चौधरी की ‘प्लुरल्स’ पार्टी दो-दो चुनाव लड़ चुकी है. चर्चाओं में खूब रही, सोशल मीडिया पर चर्चा भी खूब, लेकिन चुनाव नतीजों में कोई असर दिखाई नहीं दिया. न जीत, न प्रभाव, न जनाधार.
अब यही अध्याय जन सुराज ने जोड़ दिया है. महीनों तक मीडिया में चर्चा, विशेषज्ञों द्वारा तुलना ‘आप’ से, लेकिन नतीजे बेहद कमजोर. निर्वाचन आयोग के आंकड़े बताते हैं कि उसके अधिकांश उम्मीदवारों को कुल वोटों के 10% से भी कम वोट मिले. कई जगह जमानत तक जब्त हो गई.
भारत में नए दल क्यों नहीं टिक पाते?
भारत की राजनीतिक जमीन पर जो दल सफल हुए हैं, वे मोटे तौर पर तीन में से किसी एक आधार पर खड़े होते हैं. किसी आंदोलन से, किसी व्यक्तित्व/वंश से या किसी सामाजिक समूह/विचारधारा से.
बहुजन समाज पार्टी दलित आंदोलन से निकली. आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन से उभरी. एनपीपी एक स्थापित नेता पीए संगमा की राजनीतिक विरासत थी.
लेकिन जन सुराज, प्लुरल्स या कमल हासन की पार्टी न आंदोलन की उपज थीं, न ही इनके पास कोई गहरी सामाजिक जड़ें थीं. सिर्फ लोकप्रियता, मीडिया कवरेज या डिजिटल अभियान जमीन नहीं दे सकते. प्रशांत किशोर भले ही चुनावी रणनीतिकार के रूप में चमके हों, लेकिन वह वह आधार नहीं है जिस पर कोई पार्टी टिक सके.
राजनीति में जनाधार बनाना एक धीमी, निरंतर और कठिन प्रक्रिया है, लोकप्रियता नहीं, संगठन चाहिए, चर्चा नहीं, कैडर चाहिए और नारों से ज़्यादा सामाजिक जुड़ाव चाहिए.
तमिलगा वेत्री कझगम (TVK), क्या विजय की पार्टी बनेगी अपवाद?
अब सबकी नजरें अभिनेता विजय की पार्टी टीवीके (TVK) पर हैं, जिसे उन्होंने पिछले साल लॉन्च किया. दक्षिण भारत में अभिनेताओं की पार्टियां लंबे समय से मजबूत रही हैं. एमजीआर, जयललिता, एनटीआर और विजयकांत इसका इतिहास तय करते हैं.
लेकिन यह मॉडल अब पहले जैसा सहज नहीं रहा और कमल हासन की हार इसकी ताजा मिसाल है. विजय, तमिल राजनीति में एक नया समीकरण खड़ा कर सकते हैं यह संभावना है, लेकिन यह गारंटी नहीं. फिल्मी लोकप्रियता चुनावी सफलता का टिकट कभी-कभी देती है, हमेशा नहीं.
छोटी पार्टियां-सीमित महत्वाकांक्षा, सीमित प्रभाव
हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर), राष्ट्रीय लोक मोर्चा, निषाद पार्टी, पीस पार्टी और सुभासपा जैसी पार्टियां अपनी-अपनी जातियों या क्षेत्रों में प्रभाव रखती हैं, लेकिन उनका विस्तार सीमित है. ये दल अक्सर गठबंधनों में शामिल होकर या कुछ सीटें जीतकर खुद को बनाए रखते हैं, लेकिन राष्ट्रीय या व्यापक राजनीति पर उनका असर कम होता है.
जन सुराज की हार-जमीन की हकीकत
जन सुराज के लिए जो उत्साह था, वह शहरी और मीडिया-निर्मित ज्यादा था. गांवों में संगठन नहीं, गांव-स्तर पर नेतृत्व नहीं, जातीय समीकरणों में पकड़ नहीं और न ही कोई आंदोलनकारी भाव, ये सभी कारण मिलकर चुनावी नतीजों में साफ दिखाई दिए.
जो लोग मान रहे थे कि जन सुराज बिहार की राजनीति में अरविंद केजरीवाल जैसा चमत्कार कर देगा, वे इस तथ्य को नजरअंदाज कर रहे थे कि आम आदमी पार्टी एक विशाल देशव्यापी आंदोलन से निकली थी. जन सुराज का कोई ऐसा सामाजिक आधार या जनदबाव नहीं था.
क्या भारत में नए दलों के लिए कोई जगह बची है?
भारत का राजनीतिक तस्वीर स्थिर है. भाजपा, कांग्रेस, बसपा, माकपा, एनपीपी और आप ये छह राष्ट्रीय दल इस स्थिति को दर्शाते हैं. तेलुगु देशम पार्टी 1982 में बनी, और उसके बाद बहुत कम दल ऐसी स्थिति में पहुंचे हैं कि अपनी पहचान खुद गढ़ सकें.
लेकिन वह जगह उन दलों के लिए है जिनके पास या तो स्पष्ट विचारधारा हो,या मजबूत आंदोलन का पृष्ठभूमि या किसी सामाजिक समूह का भरोसा. सिर्फ रणनीति, छवि, कैंपेन और लोकप्रिय चेहरे किसी पार्टी को जीत नहीं दिला सकते.

