Bihar Election 2025: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का शोर तेज हो चुका है. महागठबंधन और एनडीए—दोनों खेमों में टिकट बंटवारे से लेकर नाराजगी तक सबकुछ सुर्खियों में है. लेकिन इस बार जो तस्वीर उभरकर आई है, वह राष्ट्रीय दलों की गिरती साख और क्षेत्रीय दलों के बढ़ते प्रभाव को साफ दर्शाती है.
कांग्रेस ने जी-जान से तैयारी की, महीनों तक सर्वे कराया, मजबूत सीटें चुनीं, लेकिन सहयोगियों के आगे उसकी एक नहीं चली. वहीं भाजपा, जो खुद को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी कहती है, उसे भी बिहार के छह जिलों में ‘नो-कैंडिडेट जोन’ घोषित करना पड़ा.
कांग्रेस की तैयारी, लेकिन नतीजा ‘शून्य लाभ’
कांग्रेस ने इस बार बिहार चुनाव के लिए कमर कस ली थी. पार्टी ने तीन से चार महीने तक जिलों में सर्वे कराया, फीडबैक लिया और अपने स्तर पर “मजबूत सीटों” की पहचान की. राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा ने भी कार्यकर्ताओं में जान फूंकी.
लेकिन सीट बंटवारे के वक्त पार्टी का जो हश्र हुआ, उसने सारी मेहनत पर पानी फेर दिया. कांग्रेस 70 से घटकर इस बार सिर्फ 61 सीटों पर लड़ रही है. यानी नौ सीटों की सीधी कटौती.
सबसे बड़ी चोट यह कि पार्टी अपनी दो मौजूदा सीटें महाराजगंज और जमालपुर भी सहयोगियों को देनी पड़ीं. इसके अलावा बिहारशरीफ, बनमनखी और कुम्हरार जैसी तीन नई सीटों पर उतरी है, जो पूरी तरह ‘अनजान इलाका’ हैं.
सीटों के मामले में यह गिरावट बताती है कि कांग्रेस अब बिहार की राजनीति में खुद की जगह नहीं, बल्कि दूसरों की मेहरबानी से बची जगह तलाश रही है. जबकि 2020 में उसने 70 मैदानों में ताल ठोकी थी यानी मेहनत भले की गई, लेकिन पर्सेंटेज में कांग्रेस की ‘स्ट्राइक रेट’ सुधरने से पहले ही संभावनाएं कमजोर पड़ गई हैं.
सहयोगियों से ही मुकाबला!
महागठबंधन में इस बार सबसे दिलचस्प स्थिति यह है कि कांग्रेस का असली मुकाबला विपक्ष से नहीं, बल्कि अपने ही सहयोगियों से है. कुल 11 सीटों पर महागठबंधन के घटक दल एक-दूसरे के खिलाफ मैदान में हैं, जिनमें 10 सीटों पर कांग्रेस को राजद या वाम दलों ने घेर रखा है. राजद-कांग्रेस की टक्कर पांच सीटों पर है, जबकि भाकपा और कांग्रेस चार सीटों पर आमने-सामने हैं. यह तस्वीर बताती है कि गठबंधन की एकजुटता सिर्फ मंच तक सीमित है, जमीन पर ‘मित्र दल’ ही असली प्रतिद्वंदी बन चुके हैं.
भाजपा भी क्षेत्रीय दलों के आगे झुकी
एनडीए में भी तस्वीर बहुत बदली हुई है. भाजपा, जो 2020 में 110 सीटों पर मैदान में थी, इस बार सिर्फ 101 सीटों पर उतर रही है. यानी पार्टी ने भी खुद को सीमित करने में ही भलाई समझी है. सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि छह जिलों मधेपुरा, खगड़िया, शेखपुरा, शिवहर, जहानाबाद और रोहतास में भाजपा का कोई प्रत्याशी नहीं है. इनमें से कई जिलों में भाजपा पहले मजबूत मानी जाती थी, लेकिन अब ये सीटें सहयोगी दलों को सौंप दी गई हैं.
2020 में भाजपा ने रोहतास जिले की दो सीटों — डिहरी और काराकाट — पर उम्मीदवार उतारे थे, पर हार मिली. इस बार उसने दोनों ही सीटें सहयोगी दलों को सौंप दीं. यह बताता है कि एनडीए के भीतर भी भाजपा को अपने पुराने किले बचाने में मुश्किलें आ रही हैं.
हालांकि पार्टी ने अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए कुछ जिलों पर फोकस बढ़ाया है. पश्चिम चंपारण में भाजपा ने सबसे अधिक 8 उम्मीदवार उतारे हैं, जबकि पूर्वी चंपारण में 9 में से 7 सीटों पर उसके प्रत्याशी मैदान में हैं.
चंपारण का इलाका इस बार भाजपा का ‘मिशन ज़ोन’ बन गया है. पार्टी यहां से बड़ी संख्या में सीटें जीतकर राज्यव्यापी संतुलन साधने की कोशिश में है. इसके अलावा पटना की 14 में 7 सीटों, दरभंगा की 6, मुजफ्फरपुर की 5 और भोजपुर की 5 सीटों पर भाजपा ने अपने प्रत्याशी उतारे हैं.
राष्ट्रीय दलों की सीमित हैसियत
बिहार की मौजूदा सियासत में एक बात साफ है. राष्ट्रीय दल अब क्षेत्रीय समीकरणों के आगे बेबस हैं. कांग्रेस, जिसे कभी बिहार की सत्ता में एकाधिकार था,आज सीटों के लिए राजद और वाम दलों पर निर्भर है. भाजपा, जो राष्ट्रीय स्तर पर सबसे मजबूत संगठन मानी जाती है, बिहार में जदयू, लोजपा (रामविलास), हम और रालोमो जैसे सहयोगियों के आगे अपनी सीटें समेटने पर मजबूर है.
बिहार में 243 सीटों के इस गणित में 101-101 सीटें जदयू और भाजपा के बीच बंटी हैं, जबकि लोजपा (आर) को 29 और हम व रालोमो को 6-6 सीटें मिली हैं. यह साफ दर्शाता है कि बिहार में सत्ता की कुंजी अब राष्ट्रीय नहीं, बल्कि स्थानीय ताकतों के हाथ में है.
Also Read: Aaj Bihar Ka Mausam: खरना के बाद बदल जाएगा मौसम का मिजाज, छठ के दिन बरस सकती है बूंदें

