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सांसद बनने चले कुछ नेता कर रहे असंसदीय शब्दों की बौछार

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक जितने असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल इस चुनाव में हो रहा है, उतना इससे पहले कभी नहीं हुआ था जितने असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल इस चुनाव में हो रहा है, उतना इससे पहले कभी नहीं हुआ था. कालेधन के मामले में भी इस चुनाव ने रिकाॅर्ड कायम किया है. हां, पश्चिम बंगाल […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
जितने असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल इस चुनाव में हो रहा है, उतना इससे पहले कभी नहीं हुआ था
जितने असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल इस चुनाव में हो रहा है, उतना इससे पहले कभी नहीं हुआ था. कालेधन के मामले में भी इस चुनाव ने रिकाॅर्ड कायम किया है. हां, पश्चिम बंगाल को अपवाद मानें तो बूथों पर कब्जा के मामले में सुधार जरूर देखा जा रहा है.
दरअसल धनबल, बाहुबल की जगह ले रहा है. साम्प्रदायिक और जातीय भावनाओं का इस्तेमाल कमोवेश पहले ही जैसा है. हां, चुनाव प्रचार के दौरान अनेक बड़े नेताओं के द्वारा भी असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल अधिक चिंताजनक बात है.
संसद अब तक हंगामों के लिए जानी जाती रही है. अब शायद गाली- गलौज के रूप में नया तत्व जुड़ जाये. स्पीकर के चयन में इस बार और अधिक ध्यान रखना होगा. जिन्हें संसद में जाकर सिर्फ संसदीय शब्दों का ही इस्तेमाल करना है, वे भी चुनाव-प्रचार के दिनों अपनी गरिमा भूल जा रहे हैं. नतीजतन नयी पीढ़ी के सामने वे लोकतंत्र की गलत तस्वीर पेश कर रहे हैं.
नयी पीढ़ी में जो लोग राजनीति में जाने को सोच भी रहे होंगे तो उन्हें यह मान कर ही जाना पड़ेगा कि उन्हें भी गालियां सुननी भी पड़ेंगी और देनी भी. यानी गाली भी खादी की तरह राजनीति का जरूरी ‘लिबास’ बन चुकी है.
भूली-बिसरी याद :
कर्पूरी ठाकुर पहली बार सन 1970 के दिसंबर में बिहार के मुख्यमंत्री बने थे. जून, 1970 तक रहे. उससे पहले वह सन 1967 में उपमुख्यमंत्री बने थे. मुख्य मंत्री के लिए आवंटित बड़े बंगले में कर्पूरी ठाकुर नहीं रहते थे. इतना ही नहीं, उन्होंने सलाह दी थी कि राज्यपाल महोदय, मुख्यमंत्री के लिए निर्धारित बंगले में रहें. पटना स्थित विशाल राज भवन में कुछ सरकारी दफ्तरों को स्थानांतरित कर दिया जाये.
अभी राज्य सरकार के कई दफ्तर किराये के मकानों में हैं. उन पर हर साल किराये के नौ लाख रुपये खर्च होते हैं. कर्पूरी ठाकुर ने यह भी कहा था कि चूंकि राज भवन राष्ट्रपति के अधिकार में होता है, इसलिए केंद्र सरकार ही इस संबंध में कुछ कर सकती है. पर, केंद्र सरकार ने कुछ नहीं किया तो कर्पूरी ठाकुर ने अन्य दलों तथा प्रेस से अपील की थी कि वे इस शुद्ध प्रशासनिक और गैर राजनीतिक कार्य में मेरी मदद करें.
एक तो कर्पूरी ठाकुर जैसे नेता थे, जो सरकार के पैसे बचाने के लिए अपनी सुविधा भी कम कर रहे थे. दूसरी ओर आज के कई नेता हैं जिन लोगों ने चुनाव का खर्च भी इतना अधिक बढ़ा दिया है कि लगता ही नहीं है कि यह चुनाव एक गरीब देश में हो रहा है. याद रहे कि सन 1970 के एक सौ रुपये के बराबर 2019 के 3878 रुपये होते हैं.
और अंत में :
भाजपा सांसद उदित राज पिछली शाम तक भाजपा से एक बार फिर टिकट की उम्मीद करते रहे. नहीं मिला तो दूसरे ही दिन कांग्रेस में शामिल हो गये. ऐसे ही अन्य दलों के टिकटार्थी बिना कोई संकोच किये भाजपा में शामिल होते रहे. कई अन्य दलों का भी कमोवेश यही हाल रहा. पहले ऐसे दल बदल पर आश्चर्य होता था. अब नहीं होता. पहली बार 1967 में तो झटका लगा था जब बिहार के हरसिद्धी क्षेत्र के सीपीआइ विधायक एसएन अब्दुल्ला मंत्री बनने के लिए शोषित दल में शामिल हो गये थे.
बाद में उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक को उसका ठोस कारण भी बताया था. अब तो हर तरफ एक ही अघोषित नारा है-‘टिकट कर्मा, टिकट धर्मा, धर्मा-कर्मा टिकट-टिकट!’ आमतौर पर अधिकतर नेताओं के लिए नीति-सिद्धांत और लाॅयल्टी का कोई मतलब नहीं रह गया है. टिकट नहीं मिलने के बावजूद जो नेता मूल पार्टी में रह जाये, उसके लिए अलग से लाॅयल्टी पुरस्कार का इंतजाम होना चाहिए.
Prabhat Khabar Digital Desk
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