जमुई. बिहार में विधानसभा चुनाव का माहौल पूरी तरह परवान पर है. जैसे ही चुनाव की घोषणा होती है, बिहार की राजनीति में हलचल तेज हो जाती है. चाय की दुकानों से लेकर गांव की गलियों तक, हर जगह प्रत्याशियों की चर्चा और जीत-हार का गणित बनने लगता है, लेकिन इस बार जमुई में चुनावी मुद्दों के साथ-साथ एक नई मिठास भी घुल गयी है. दरअसल, गृहमंत्री अमित शाह ने हाल ही में जमुई में आयोजित एक चुनावी सभा में कहा कि अगर जिले की चारों सीटें एनडीए के खाते में आती है तो वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुंह खैरा की बालूशाही और घनबेरिया के पेड़ा से मीठा करवाएंगे. अमित शाह का यह बयान न सिर्फ राजनीति में मिठास घोल गया, बल्कि इन दोनों स्थानीय मिठाइयों को राष्ट्रीय सुर्खियों में ला दिया. घनबेरिया का पेड़ा वैसे तो जमुई की पहचान बन चुका है, लेकिन अब यह राजनीतिक चर्चाओं का भी हिस्सा बन गया है. गृहमंत्री द्वारा मंच से किए गए इस जिक्र के बाद इस मिठाई की डिमांड में अचानक बढ़ोतरी हो गयी है. बताया जाता है कि घनबेरिया का पेड़ा अपनी शुद्धता और स्वाद के लिए प्रसिद्ध है. इसे बनाने में सिर्फ देसी दूध और देसी घी का इस्तेमाल किया जाता है, इस कारण इसका स्वाद अलग होता है. यही वजह है कि इसकी डिमांड न सिर्फ बिहार और झारखंड में बल्कि विदेशों में भी है. स्थानीय कारोबारियों के मुताबिक, घनबेरिया का पेड़ा अमेरिका और यूएई तक भेजा जाता है. विदेश में रहने वाले प्रवासी भारतीय यहां से पेड़ा खरीदकर अपने साथ ले जाते हैं या अपने रिश्तेदारों से मंगवाते हैं. करीब दो दशक पहले तक घनबेरिया एक सामान्य गांव था, लेकिन आज इसे लोग “पेड़ा वाला गांव” के नाम से जानते हैं. ग्रामीणों के अनुसार, करीब डेढ़ दशक पहले गांव के लाल बहादुर सिंह ने इस मिठाई का कारोबार शुरू किया था. शुरुआत में वे एक पेड़ के नीचे बैठकर पेड़ा बनाया करते थे. धीरे-धीरे अन्य लोगों ने भी इस काम को अपनाया और अब यह गांव पूरी तरह पेड़ा उद्योग का केंद्र बन गया है. फिलहाल, यहां ढाई दर्जन से ज्यादा दुकानें हैं, जिन पर रोजाना सैकड़ों ग्राहकों की भीड़ लगी रहती है. स्थानीय लोगों का कहना है कि त्योहारों या सावन के महीने में एडवांस बुकिंग करनी पड़ती है, क्योंकि मांग इतनी अधिक होती है कि पेड़ा की खेप जल्दी खत्म हो जाती है. पेड़ा व्यवसाय से जुड़े दुकानदार बताते हैं कि यहां रोजाना करीब 15 से 20 क्विंटल पेड़ा बनता और बिकता है. एक किलो पेड़ा तैयार करने के लिए पांच क्विंटल दूध की जरूरत होती है, यानी पूरे गांव में प्रतिदिन करीब 75 से 100 क्विंटल दूध की खपत होती है. पेड़ा की कीमत 300 रुपये प्रति किलो है, जो स्वाद और गुणवत्ता को देखते हुए लोगों को महंगा नहीं लगता. स्थानीय स्तर पर ही दूध की खरीद की जाती है, इससे सैकड़ों पशुपालकों को रोजगार मिला है. यानी यह मिठास सिर्फ स्वाद तक सीमित नहीं, बल्कि गांव की अर्थव्यवस्था को भी मजबूत कर रही है.
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