नूर-सुल्तान : विश्व चैम्पियनशिप में रजत पदक जीतने वाले भारतीय पहलवान दीपक पूनिया ने जब कुश्ती शुरू की थी तब उनका लक्ष्य इसके जरिये नौकरी पाना था जिससे वह अपने परिवार की देखभाल कर सके.
वह काम की तलाश में थे और 2016 में उन्हें भारतीय सेना में सिपाही के पद पर काम करने का मौका मिला, लेकिन ओलंपिक पदक विजेता पहलवान सुशील कुमार ने उन्हें छोटी चीजों को छोड़कर बड़े लक्ष्य पर ध्यान देने का सुझाव दिया और फिर दीपक ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.दो बार के ओलंपिक पदक विजेता सुशील ने दीपक को प्रायोजक ढूंढने में मदद की और कहा, कुश्ती को अपनी प्राथमिकता बनाओ, नौकरी तुम्हारे पीछे भागेगी.
पक ने दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम के अपने सीनियर पहलवान की सलाह मानी और तीन साल के भीतर आयु वर्ग के कई बड़े खिताब हासिल किए. वह 2016 में विश्व कैडेट चैंपियन बने थे और पिछले महीने ही जूनियर विश्व चैम्पियन बने. वह जूनियर चैम्पियन बनने वाले सिर्फ चौथे भारतीय खिलाड़ी है जिन्होंने पिछले 18 साल के खिताबी सूखे को खत्म किया था. एस्तोनिया में हुई जूनियर विश्व चैम्पियनशिप में जीत दर्ज करने के एक महीने के अंदर ही उन्हें अपने आदर्श और ईरान के महान पहलवान हजसान याजदानी से भिड़ने का मौका मिला.उन्हें हराकर वह सीनियर स्तर के विश्व चैम्पियनशिप का खिताब भी जीत सकते थे.
मीफाइनल के दौरान लगी टखने की चोट के कारण उन्होंने विश्व चैम्पियनशिप के 86 किग्रा वर्ग की खिताबी स्पर्धा से हटने का फैसला किया जिससे उन्होंने रजत पदक अपने नाम कर लिया. स्विट्जरलैंड के स्टेफान रेचमुथ के खिलाफ शनिवार को सेमीफाइनल के दौरान वह मैच से लड़खड़ाते हुए आये थे और उनकी बायीं आंख भी सूजी हुई थी. वह इस खेल के इतिहास के सबसे अच्छे पहलवानों में एक को चुनौती देने से चूक गये.दीपक के लिए हालांकि पिछले तीन साल किसी सपने की तरह रहे हैं.
दीपक की सफलता के बारे में जब भारतीय टीम के पूर्व विदेशी कोच व्लादिमीर मेस्तविरिशविली से पूछा गया तो उन्होंने कहा, यह कई चीजों के एक साथ मिलने से हुआ है. हर चीज का एकसाथ आना जरुरी था.
दीपक के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इस कोच ने कहा, इस खेल में आपको चार चीजें चाहिए होती है जो दिमाग, ताकत, किस्मत और मैट पर शरीर का लचीलापन हैं. दीपक के पास यह सब है. वह काफी अनुशासित पहलवान है जो उसे पिता से विरासत में मिला है.
उन्होंने कहा, नयी तकनीक को सीखने में एक ही चीज बार-बार करने से खिलाड़ी ऊब जाते है, लेकिन दीपक उसे दो, तीन या चार दिनों तक करता रहता है, जब तक पूरी तरह से सीख ना ले. दीपक के पिता 2015 से रोज लगभग 60 किलोमीटर की दूरी तय करके उसके लिए हरियाणा के झज्जर से दिल्ली दूध और फल लेकर आते थे.
उन्हें बचपन से ही दूध पीना पसंद है और वह गांव में ‘केतली पहलवान’ के नाम से जाने जाते हैं. ‘केतली पहलवान’ के नाम के पीछे भी दिलचस्प कहानी है. गांव के सरपंच ने एक बार केतली में दीपक को दूध पीने के लिए दिया और उन्होंने एक बार में ही उसे खत्म कर दिया.
उन्होंने इस तरह एक-एक कर के चार केतली खत्म कर दी जिसके बाद से उनका नाम ‘केतली पहलवान’ पड़ गया. दीपक ने कहा कि उनकी सफलता का राज अनुशासित रहना है. उन्होंने कहा, मुझे दोस्तों के साथ घूमना, मॉल जाना और शॉपिंग करना पसंद है, लेकिन हमें प्रशिक्षण केंद्र से बाहर जाने की अनुमति नहीं है. मुझे जूते, शर्ट और जींस खरीदना पसंद है, हालांकि मुझे उन्हें पहनने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि मैं हमेशा एक ट्रैक सूट में रहता हूं.
उन्होंने कहा, टूर्नामेंट के बाद जब भी मुझे मौका मिलता है मैं बाहर जाकर अपना मनपसंद खाना खाता हूं, लेकिन छुट्टी खत्म होने के बाद उसके बारे में सोचता भी नहीं हूं. उसके बाद कुश्ती और प्रशिक्षण ही मेरी जिंदगी होती है. उन्होंने बताया कि ‘ओलंपिक गोल्ड कोस्ट (ओजीक्यू) से प्रायोजन मिलने के बाद दीपक की चिंतायें दूर हुई और वह अपने खेल पर ज्यादा ध्यान देने लगे.
बीस साल के इस खिलाड़ी ने कहा, 2015 तक मैं जिला स्तर पर भी पदक नहीं जीत पा रहा था. उन्होंने कहा, मैं किसी भी हालत में नतीजा हासिल करना चाहता था ताकि कहीं नौकरी मिल सके और अपने परिवार की मदद कर सकूं. मेरे पिता दूध बेचते थे.वह काफी मेहनत करते थे. मैं किसी भी तरह से उनकी मदद करना चाहता था. मैट पर उनकी सफलता से परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ. वह 2018 में भारतीय सेना में नायक सूबेदार के पद पर तैनात हुये.
दीपक अब इस खेल से पैसे बनाना सीख गये है और अब उन्होंने पिता को दूध बेचने से भी मना कर दिया. उन्होंने पिछले साल एसयूवी कार खरीदी है. उन्होंने हंसते हुए कहा, मुझे यह नहीं पता है कि मैंने कितनी कमाई की है.
मैंने कभी उसकी गिनती नहीं की लेकिन यह ठीक-ठाक रकम है. ‘मैट दंगल’ पर भाग लिये अब काफी समय हो गया, लेकिन मैंने इससे काफी कमाई की और सब खर्च भी किया.