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फीफा अंडर-17 के बहाने, पढ़ें फुटबॉलर सुमित्रा मरांडी की कहानी

-दशमत सोरेन- आज से भारत में फीफा अंडर-17 विश्वकप का रंगारंग आगाज होगा. पहला मुकाबला भारत और अमेरिका के बीच खेला जायेगा. भारत एक ऐसा देश है जहां क्रिकेट धर्म बन चुका है, बावजूद इसके फुटबॉल के प्रति लोगों की दीवानगी खत्म नहीं हुई है. ऐसे में फीफा अंडर-17 विश्व कप का आयोजन इस दीवानगी […]

-दशमत सोरेन-

आज से भारत में फीफा अंडर-17 विश्वकप का रंगारंग आगाज होगा. पहला मुकाबला भारत और अमेरिका के बीच खेला जायेगा. भारत एक ऐसा देश है जहां क्रिकेट धर्म बन चुका है, बावजूद इसके फुटबॉल के प्रति लोगों की दीवानगी खत्म नहीं हुई है. ऐसे में फीफा अंडर-17 विश्व कप का आयोजन इस दीवानगी को और बढ़ायेगा और भारत में अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी जन्म लेंगे, ऐसी उम्मीद की जा सकती है. फुटबॉल के प्रति इसी दीवानगी का उदाहरण है झारखंड के दुमका जिले की फुटबॉल खिलाड़ी सुमित्रा मरांडी. पढ़ें सुमित्रा की पूरी कहानी :-

झारखंड की उपराजधानी दुमका से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर है गादी कोरैया पंचायत का लतापहाड़ी गांव. गांव के अंतिम छोर पर कदाम डुंगरी पहाड़ी की तलहटी में एक गरीब किसान प्रधान मरांडी और फूलमुनी सोरेन के खपरैल घर में जन्मी बेटी सुमित्रा मरांडी भारतीय महिला फुटबॉल टीम की खिलाड़ी बनकर जॉर्डन, फ्रांस और पाकिस्तान जैसे देशों में हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर के फुटबॉल टूर्नामेंट में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व कर चुकी है. सुमित्रा ने अपनी कड़ी मेहनत के दम पर फुटबॉलर के रूप में अपना सपना साकार किया है.
सुमित्रा का गांव लतापहाड़ी एक आदिवासी बहुल इलाका है और आज भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है. ऐसे में सुमित्रा के माता-पिता को अपने एक पुत्र और पुत्री की जिंदगी संवारने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा. सुमित्रा के पिता प्रधान मरांडी और पांचवीं तक पढ़ी मां फूलमुनी ने तमाम संघर्ष कर अपने पुत्र व पुत्री को न सिर्फ बेहतर शिक्षा देने के लिए कड़ी मशक्कत की, बल्कि जरूरत पड़ी तो बेटी सुमित्रा के भारतीय टीम में चयन होने के बाद विदेश भेजने के लिए गाय-बैल तक बेच दिया. जमीन बंधक रख ऋण लिया और ग्रामीणों से भी सहयोग लेकर बेटी को अंतरराष्ट्रीय फुटबॉलर बनाने का जो सपना देखा था उसे साकार किया. आज समूचे गांव को सुमित्रा और उसके माता-पिता पर गर्व है.

अपने घर के बाहर करती थी प्रैक्टिस
सुमित्रा मरांडी ने पुरुष खिलाड़ियों के सानिध्य में खेल की बारीकी सीखी़. सुमित्रा जिस गांव में रहती है वहां के ग्रामीणों में फुटबॉल खेलने की नैसर्गिक प्रतिभा है पर यहां महिलाओं की टीम नहीं है. गांव के कई युवाओं की पहचान फुटबॉलर के रूप में जिला व राज्य स्तर पर है. गांव के मांझी हड़ाम दशमत हेंब्रम भी अपने जमाने के अच्छे फुटबॉल खिलाड़ी रह चुके हैं. बुद्धिलाल किस्कू, सुफल हेंब्रम, राजेश हेंब्रम, किस्टू सोरेन समेत कई ऐसे नाम हैं जिनकी पहचान फुटबॉल खिलाड़ी के तौर पर है. इन्हीं खिलाड़ियों के सानिध्य में सुमित्रा के मन में फुटबॉल खेलने का सपना पनपा और एक जुनून बन गया. गांव के बाहर नीम टुंडी (फुटबॉल मैदान) में अपने भाई सुरेश मरांडी के साथ सुबह चार बजे मैदान पहुंच कर खेलने का अभ्यास करती और दिन में संत जोसेफ स्कूल गुहियाजोरी में पढ़ाई करती.

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फुटबॉल खेलना लोगों को नहीं था पसंद
पुरुष टीम के साथ सुमित्रा का फुटबॉल खेलना कुछ ग्रामीणों को पसंद नहीं था, लेकिन मां-पिता की सहमति और मांझी हड़ाम दशमत हेंब्रम का मार्गदर्शन से सुमित्रा आगे बढ़ती चली गयी. स्कूल में भी सुमित्रा ने इमानुवेल सोरेन, पौलुस कुजूर और कमरुद्दीन के मार्गदर्शन में फुटबॉल की बारीकी सीखी. दुमका में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है. यहां की दुलड़ मरांडी और शिवानी सोरेन राष्ट्रीय स्तर पर खेल चुकी हैं और खेल की बदौलत ही इन्हें एसएसबी और सीआरपीएफ में नौकरी मिली है.

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