सद्गुरूश्री दयाल, आध्यात्मिक गुरु
Chhath Puja 2025 : जब देहात की सुबह की ठंडी हवा में गंगा के तीर वैदिक मंत्रों सा नाद हो उठता है, तब उत्तरी भारत की गली कूचों, आँगनों और घाटों से उठती छठ पूजा की सौंधी महक हर आत्मा को छू जाती है. यह महज एक लोकपर्व नहीं, मिट्टी की परतों में छुपी आस्था, इतिहास, शोध और आत्मानुभूति का महोत्सव है. छठ की सुबह और उसकी संध्या जहाँ सूर्य की नूतन रश्मियां भीगी मिट्टी को ऊष्मा देती हैं, वहीं साधना का क्रम ब्रह्मांड के रहस्य, ज्योतिष की गणना, विज्ञान की आधुनिक दृष्टि और आत्मा के गहनतम स्पंदन को एक डोर में बांधता है.
आलोक का अनुष्ठान, मिट्टी की गंध
छठ पूजा की शुरुआत ही मिट्टी की सौंधी गंध से होती है. व्रती जब आंगन की मिट्टी से सूप और दीये बनाती है, तब उसमें सिर्फ़ हाथ का श्रम नहीं, बल्कि पुरखों की सिलवटों का इतिहास भी आकार लेता है. मिट्टी से नन्हें दीपक गढ़ते समय साधिका अपनी जड़ों से, अपने अतीत और उस शाश्वत लोक विश्वास से जुड़ जाती है, जो रेत और अस्तित्व की कहानी है. यही वह मिट्टी है जिसमें हज़ारों वर्ष पहले वैदिक ऋषियों ने सूर्य स्तुति की, जहाँ घाटों में पहला अर्घ्य चढ़ा और जहाँ से ब्रह्मांड का संवाद आज भी गूंजता है.
सूर्य अनुष्ठान : विज्ञान और ज्योतिष की दृष्टि
छठ महापर्व के वैज्ञानिक पक्ष की झलक तब और स्पष्ट हो जाती है जब हम सूर्योपासना और जल अर्घ्य की प्रक्रिया को वैज्ञानिक संज्ञान से जोड़कर देखते हैं. सायंकाल और प्रातःकाल जब सूर्य की रश्मियां पृथ्वी पर न्यून कोण से गिरती हैं, तो उनमें हानिकारक पराबैंगनी विकिरण सबसे कम रहता है. उस क्षण सूर्य स्नान करने से शरीर में विटामिन डी का संचयन त्वरित और प्राकृतिक रूप से होता है, स्नायु और अस्थि तंत्र मजबूत बनता है, और मानसिक संतुलन सुस्थापित होता है. शोधों से यह भी प्रमाणित है कि इसी दौरान जल के स्पर्श और सूर्य के प्रकाश का योग शरीर में ऑक्सीजन को बेहतर अवशोषित करने में सहायक है, जिसे आधुनिक जैवविज्ञान फोटोबायोलॉजिकल प्रभाव कहता है.
मानव शरीर की पीनियल ग्रंथि जो मस्तिष्क का सूक्ष्मतम केंद्र है, सूर्य के प्रकाश से सक्रिय होती है. मेलाटोनिन और सेरोटोनिन का संतुलन होता है, जो निद्रा, चित्तशुद्धि, रचनात्मकता और मनोबल को बढ़ाता है. अतः छठ का व्रत सिर्फ़ श्रद्धा का रूप नहीं, अपितु प्राचीन ऋषियों द्वारा प्रकृति विज्ञान और खगोलशास्त्र को परखने का शास्त्रीय प्रयास भी है.
उपवास का विज्ञान और गूढ़ साधना
छठ में व्रती निर्जल उपवास रखते हैं. उपवास का तात्पर्य अन्न जल के त्याग से कहीं आगे आत्मानुशासन और चित्तशुद्धि तक जाता है. अध्ययनों में पाया गया है कि उपवास के समय शरीर में ऑटोफैगी की प्रक्रिया बढ़ जाती है, जिसके फलस्वरूप दूषित कोशिकाएँ नष्ट होती हैं, नई कोशिकाओं का निर्माण होता है और शरीर दैहिक रोगों से मुक्त होता है. यह वैज्ञानिक तर्क छठ के कठिन उपवास और साधना के पीछे छुपे रहस्य को उजागर करता है. ध्यान और सामूहिक साधना के इन क्षणों में शरीर और चित्त दोनों का कायाकल्प होता है.
छठ : गहन ज्योतिषीय संवाद
ज्योतिष के आकाश में छठ का समय अत्यंत महत्वपूर्ण है. कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन सूर्य तुला से वृश्चिक राशि में संक्रमण करता है. दीर्घ गणना के अनुसार सूर्य की स्थिति ग्रहमंडल में आत्मा, तेज, नेतृत्व, स्वास्थ्य, भाग्य और राजनैतिक संतुलन के अद्भुत स्रोत के रूप में आती है. तुला में सूर्य नीचस्थ होता है, यह क्षण आत्मबल, साहस और आधिकारिक प्रभाव की न्यूनता का संकेत है. छठ के साधक अपने व्रत, अर्घ्य और पूजा के माध्यम से इसी नीचत्व को तेज में बदलने की प्रक्रिया साधते हैं.
षष्ठी तिथि का और भी सूक्ष्म ज्योतिषीय रहस्य है, सूर्य और चंद्रमा के बीच लगभग 90 अंश का कोण. यह कोण जीवन में मानसिक और आत्मिक संतुलन, कार्यधारा में समन्वय और शुद्धता का प्रतीक है. चंद्रमा मन का, सूर्य आत्मा का प्रतीक है, यह पर्व मन और आत्मा के द्वैत को एकात्म करने की योग साधना है.
सप्ताश्व के रथ पर आरूढ़ सूर्य की वैदिक कल्पना छठ की साधना में साकार होती है. सप्ताश्व अर्थात सूर्य के रथ के सात अश्व, ज्योतिष में इन्हें सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि से जोड़ा गया है. छठ व्रती जब सूर्य को अर्घ्य देता है, तो वह केवल तेजस्विता का प्रार्थी नहीं, बल्कि सप्तग्रहों की ऊर्जा को संतुलित करने वाला साधक भी है. यह ग्रहों की कुंठा, दोष, पीड़ा और पारिवारिक विषमताओं का शमनकर्ता पर्व है.
आध्यात्मिक संस्कार
छठ नारी की आस्था, प्रेम और संकल्प का पर्व है. भारतीय संस्कृति में नारी का प्रतिनिधि ग्रह चंद्रमा है. जब वह सूर्य की उपासना करती है, तो प्रतीकात्मक रूप में मन और आत्मा, रति और तप, गृह और ब्रह्मांड, पोषण और तेज सब मिलकर समष्टि शक्ति का संधान रचते हैं. संतान सुख, कुल स्थिरता, पारिवारिक संतुलन और संकल्प की अजेयता इसे दीपावली की दीपशिखा की तरह कालातीत बनाती है.
जब व्रती जल में अर्धनिमग्न होकर सूर्य को अर्घ्य देता है, तो केवल पूजा या श्रद्धा का अनुकरण नहीं करता. वह अपनी समस्त ऊर्जा, कर्म, ज्ञान, चित्त और आत्मा को प्रकृति में समर्पित करता है. जल, अग्नि और पृथ्वी का पंचतत्वीय संगम उसकी साधना में उतर आता है. घाट पर गूंजते गीत, सूर्य की आराधना, आंगन आँगन जलती दीपशिखाएँ और व्रत का अनुशासन सब मिलकर उस रहस्य को जन्म देते हैं, जिसमें व्यक्ति मिट्टी की महक में ब्रह्मांड की असंख्य रश्मियों से संवाद करने लगता है.
छठ : मिट्टी की लिपि में ब्रह्मांड का विज्ञान
इस पर्व का दृश्य मूल मिट्टी की सौंध, ऋग्वेद की ऋचाओं, घाटों की भीड़ और सूर्य की अरुणिमा में सुरक्षित है. छठ की साधना जितनी गहन, उतनी ही वैज्ञानिक और मौलिक. पौराणिक, ज्योतिषीय और आधुनिक शोध का संगम ब्रह्मांडीय ऊर्जा के आवर्तन में आत्मा के शुद्धिकरण और शारीरिक मानसिक उत्कर्ष का द्वार खोलता है.
यह पर्व अपने संपूर्ण मौलिक स्वरूप में गंगा की रेत, व्रत की कठोरता, सूर्य की किरणों और पंचतत्व की लय से सुसज्जित है. छठ पूजा की मिट्टी, उसमें भीगा आकाश, दीयों का धुआं और जल में काँपते प्रतिबिंब, इन सबमें जीवन के गहन विज्ञान, ज्योतिष के सूक्ष्म रहस्य और आध्यात्मिक अनंतता की छाया बसी है.
निष्कर्ष
छठ पूजा मिट्टी की महक से आरंभ होती है और ब्रह्मांड की अनंतता में विलीन हो जाती है. विज्ञान, ज्योतिष और आध्यात्मिक अनुसंधान के तंतु इसमें मौन गंभीरता से गुंथे हैं. यह पर्व हमें सिखाता है कि असली आलोक, स्वास्थ्य, संतुलन और श्रद्धा की प्राप्ति बाहरी साधनों से नहीं, बल्कि मिट्टी, सूर्य और जल के मौलिक संवाद और अपने अंतरंग शोध से ही संभव है. यही है छठ का सबसे गहन और मौलिक रहस्य, सौंधी मिट्टी की लिपि पर ब्रह्मांड और आत्मा की संध्या रचित है, जो जीवन को ऋतुओं, लोकगीतों, विज्ञान और ज्योतिष के समवेत स्वरूप में अर्थ प्रदान करती है.

