जब समय के साथ तुम्हारे ज्ञान की वृद्धि होती है, तब उदासीनता संभव ही नहीं. तुम्हारा आंतरिक स्रोत ही आनंद है. जैसे-जैसे तुम्हारा विकास होता है, तुम्हारी चेतना का भी विकास होना आवश्यक है. अपने दुख को दूर करने के लिए विश्व के दुख में भागीदार बनो.
और खुद के आनंद की वृद्धि के लिए विश्व के आनंद में सहभागी हो जाओ. मेरा क्या होगा? इस संसार से मुझको क्या मिलेगा? ऐसा सोचने के बदले यह सोचो कि इस संसार के लिए मैं क्या कर सकता हूं? और जब सभी लोग इस विचार से आयेंगे कि वे समाज को अपना क्या योगदान दें, तब वह समाज दैवी समाज हो जायेगा. हम सबको अपनी व्यक्तिगत चेतना को शिक्षित और शिष्ट करना है, ताकि समय के साथ हमारे ज्ञान की वृद्धि हो. मन का विस्तार मेरा क्या होगा से आगे मैं क्या योगदान दे सकता हूं तक होना चाहिए.
यदि ध्यान से गहन अनुभव नहीं हो रहे हों, तो और अधिक सेवा करो. तुम्हें पुण्य मिलेगा और तुम्हारे ध्यान में अधिक गहराई आयेगी. जब तुम सेवा द्वारा किसी को आराम पहुंचाते हो, तब तुम्हें मंगलकामनाएं और आशीर्वाद मिलते हैं. सेवा से पुण्य मिलता है. पुण्य तुम्हारे ध्यान को और गहन करता है. ध्यान तुम्हारी मुस्कान वापस लाता है.
– श्री श्री रविशंकर