Gunahon Ka Devta : गुनाहों का देवता में 1940 के दशक में इलाहाबाद में पनपी एक प्रेम कहानी है – यह उस दौर का इलाहाबाद है, जब गंगा धीरे-धीरे बहती थी और अब से बहुत साफ थी. जब शहर अपनी सुंदरता के चरम पर था, पेड़ों से भरी सड़कें, शांत बंगले, फूलों से भरे पार्क और धीरे-धीरे बहती गंगा. लेखक के शब्दों से आप पहले ही पेज पर देख सकते हैं, कि यह उपन्यास जब लिखा गया, तब इलाहाबाद कैसा था-‘सुबहें मलयजी, दोपहरें अंगारी, तो शामें रेशमी, धरती ऐसी कि सहारा के रेगिस्तान की तरह बालू भी मिले, मालवा की तरह हरे-भरे खेत भी मिलें और ऊसर और परती की भी कमी नहीं. सचमुच लगता है कि प्रयाग का नगर देवता स्वर्ग-कुंजों से निर्वासित कोई मनमौजी कलाकार है, जिसके सृजन में हर रंग के डोरे हैं.’
प्रेम, जीवन के इस पार से उस पार तक
प्रेम महज एक शब्द, एक भावना भर नहीं, एक पूरी जिंदगी और जिंदगी के उस पार तक की यात्रा है. सुधा और चंदर की प्रेम कहानी भी जीवन के इस पार से उस पार तक जाती है. एक निश्चल प्रेम से शुरू हुई यह कहानी एक रुलाई के साथ खत्म होती है. कई बार लगता है कि चंदर के लिए सुधा का प्रेम ही उसके जीवन के अंत का कारण बन गया या फिर यह अंत उसकी नियति थी! जिसे सामाजिक दायरे की कलम ने उसके नाम लिख कर दिया था.
उपन्यास की सात दशक से अधिक की यात्रा
प्रशंसाओं के साथ आलोचनाओं का भी सामना करते हुए इस उपन्यास ने अपने सात दशक से अधिक की यात्रा पूरी कर ली है. लेकिन, ब्रेकअप, पैचअप के इस दौर में भी यह पाठकों को भीतर तक भिगोने का सामर्थ्य लिए कहता है- ‘जब आदमी अपने हाथ से आंसू मोल लेता है, अपने-आप दर्द का सौदा करता है, तब दर्द और आंसू तकलीफ-देह नहीं लगते. और जब कोई ऐसा हो, जो आपके दर्द के आधार पर आपको देवता बनाने के लिए तैयार हो और आपके एक-एक आंसू पर अपने सौ-सौ आंसू बिखेर दे, तब तो कभी-कभी तकलीफ भी भली मालूम देने लगती है.’
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